संतोष कुमार चतुर्वेदी




 भाई  बिमलेश त्रिपाठी ने अपने  ब्लॉग 'अनहद'  पर मेरी तीन कवितायें अभी हाल ही में  प्रकाशित थीं.   अपनी  उन्हीं कविताओं को  मैं आपसे साझा कर रहा हूँ.

इन कविताओं पर आपकी बहुमूल्य एवं बेबाक  प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।

संतोष कुमार चतुर्वेदी

पानी का रंग

गौर से देखा एक दिन
तो पाया कि
पानी का भी एक रंग हुआ करता है
अलग बात है यह कि
नहीं मिल पाया इस रंग को आज तक
कोई मुनासिब नाम

अपनी बेनामी में भी जैसे जी लेते हैं तमाम लोग
आँखों से ओझल रह कर भी अपने मौसम में
जैसे खिल उठते हैं तमाम फूल
गुमनाम रह कर भी
जैसे अपना वजूद बनाये रखते हैं तमाम जीव
पानी भी अपने समस्त तरल गुणों के साथ
बहता आ रहा है अलमस्त
निरन्तर इस दुनिया में
हरियाली की जोत जलाते हुए
जीवन की फुलवारी में लुकाछिपी खेलते हुए


अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुःख में दुःख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता
पानी से रंग को
रंग से पानी को
कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया वह आपादमस्तक
क्योंकि पानी का अपना पक्का रंग हुआ करता है
इसलिए रंग छुड़ाने की सारी प्रविधियां भी
पड़ गयीं इसके सामने बेकार

किसी कारणवश
अगर जम कर बन गया बर्फ
या फिर किसी तपिश से उड़ गया
भाप बन कर हवा में
तब भी बदरंग नहीं पड़ा
बचा रहा हमेशा एक रंग
प्यास के संग-संग

अगर देखना हो पानी का रंग
तो चले जाओ
किसी बहती हुई नदी से बात करने
अगर पहचानना हो इसे
तो किसी मजदूर के पसीने में
पहचानने की कोशिश करो
तब भी अगर कामयाबी न मिल पाये
तो  शरद की किसी अलसायी सुबह
पत्तियों से बात करती ओस की बूंदों को
ध्यान से सुनो


अगरचे बेनाम से इस पनीले रंग को
इसकी सारी रंगीनियत के साथ
बचाये रखना चाहते हो
तो बचा लो
अपनी आखों में थोड़ा सा पानी
जहाँ से फूटते आये हैं
रंगों के तमाम सोते



विषम संख्याएँ

जिन्दगी की हरी-भरी जमीन पर
अपनी संरचना में भारी-भरकम
दिखायी पड़ने वाली सम संख्याएँ
किसी छोटी संख्या से ही
विभाजित हो जाती हैं प्रायः
वे बचा नहीं पातीं
शेष जैसा कुछ भी


विषम चेहरे-मोहरे वाली कुछ संख्याएँ
विभाजित करने की तमाम तरकीबों के बावजूद
बचा लेती हैं हमेशा
कुछ न कुछ शेष


वैसे इस कुछ न कुछ बचा लेने वाली संख्या को
समूल विभाजित करने के लिए
ठीक उसी शक्ल-सूरत
और वजन-वजूद वाली संख्या
ढूढ लाता है कहीं से गणित


परन्तु अपने जैसे लोगों से न उलझ कर
विषम मिजाज वाली संख्याएँ
शब्दों और अंकों के इस संसार में
बचा लेती हैं
शेष की शक्ल में संभावनाएँ


अन्धकार के वर्चस्व से लड़ते-भिड़ते
बचा लेती हैं विषम-संख्याएँ
आँख भर नींद
और सुबह जैसी उम्मीद


निगाहों का आइना


तुम्हारी निगाहों का
फकत
ये आइना न होता
तो कभी
परख ही न पाता मैं
अपना चेहरा।







टिप्पणियाँ

  1. और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
    तो खुद ही भीग गया वह आपादमस्तक
    क्योंकि पानी का अपना पक्का रंग हुआ करता है...bahut achhi kavita..

    जवाब देंहटाएं
  2. पानी का रंग व विषम संख्याएँ हिंदी कविता की संभावना की ओर संकेत करती है

    जवाब देंहटाएं
  3. अपने आप में अलग तरह की कविताएं हैं । अपनी कल्पनाशीलता से उत्कंठा पैदा करती हुई। पानी को बिल्कुल एक नए अंदाज में देखा गया है। विषम संख्या को प्रतीक बनाकर महत्वपूर्ण बात कह दी गई है-
    अन्धकार के वर्चस्व से लड़ते.भिड़ते
    बचा लेती हैं विषम.संख्याएँ
    आँख भर नींद
    और सुबह जैसी उम्मीद
    तीसरी कविता आकार में भले छोटी है पर अपने आशय में बहुत बड़ी ।.... तो कभी
    परख ही न पाता मैं
    अपना चेहरा। बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. जीवंत कविताएं... अपने समय को बहुत बेबाकी से देखने और बयान करने वाली... बधाई...

    जवाब देंहटाएं
  5. जहाँ से फूटते आये हैं
    रंगों के तमाम सोते

    जीवन्तता से भरपूर पंक्तियाँ...बहुत अधिक सच के समीप...कल्पना शक्ति से दृश्य प्रस्तुत करने में पूर्णतया कामयाब...बस ऐसे ही लिखते रहिये...अच्छा लगता हैं....

    जवाब देंहटाएं

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