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वंदना मिश्रा

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जन्म- उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में 15 अगस्त 1970 को हुआ शिक्षा- एम ए, बी एड , पी-एच. डी. प्रायः सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन शिल्पायन से कविता संग्रह 'कुछ सुनती ही नहीं लड़की' का प्रकाशन सम्प्रति- वरिष्ठ प्रवक्ता हिंदी, जी डी बिन्नानी पी जी कालेज, मिर्जापुर 231001 शायद वह सही है मेरी कविता की डायरी में लगातार वर्षों ढूढने के बाद यदि वह प्यार शब्द पा जायेगा तो क्रोध से भर चीखेगा-चिल्लायेगा , उसका स्रोत जानने का करेगा प्रयास मैं कितनी भी उसके प्रेम की दुहाई दूँगी वह बहकेगा नहीं, जानता है कि वह प्रेम नहीं है उसका दिया इतने वर्षों में शायद वह पहली बार सही है मुझे बताना चाहिए उस वस्तु के विषय में जो मेरे पास है पर उसने कभी दी ही नहीं है वह दुबली सी लड़की सच बताओ क्या तुम्हे कभी याद आती है? वह कच्चे नारियल सी दुधिया हँसी की उजास बिखेरने वाली लड़की जिसके कम लम्बे बालों की घनी छांव में बैठने की कल्पना कर उसे चिढाते थे तुम इतना कि हँसते-हँसते आसुओं से भर जाएँ आँखे उसकी या जिसकी आंसू भरी आँखें तुम्हे देखते ही खिल उठत

देवेन्द्र आर्य

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                                                                      ( देवेन्द्र आर्य ) देवेन्द्र आर्य का जन्म १९५७ में गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर विश्विद्यालय से ही देवेन्द्र ने इतिहास में एम. ए. किया अब तक इनके तीन गीत संग्रह ‘खिलाफ जुल्म के, ‘धूप सिर चढ़ने लगी’ और ‘सुबह भीगी रेत पर’, तीन गज़ल संग्रह ‘किताब के बाहर’, ख्वाब-ख्वाब खामोशी’ और ‘उमस’ और एक कविता संग्रह ‘आग बीनती औरतें’ प्रकाशित हो चुका है. ‘किताब के बाहर’ और ‘धूप सिर चढ़ने लगी’ को केंद्र सरकार का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान जबकि ‘आग बीनती औरतें’ को उत्तर प्रदेश सरकार का विजय देव नारायण शाही पुरस्कार मिल चुका है. सम्प्रति- पूर्वोत्तर रेलवे में मुख्य वाणिज्य निरीक्षक गजल बड़ी अजीब विधा है, बिलकुल छुई-मुई जैसी. जहाँ इसके साथ किसी ने अनुचित व्यवहार किया और यह लाजवंती की भाँती अपने आप में सिमटी. आज रचनाकार हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी तो क्या फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी आदि भाषाओँ में भी गज़ल कह रहे हैं. जहाँ तक हिंदी का सवाल है मेरे स्वर्गीय मित्र दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त गिनती के दो-चार कवि गण ही गज़ल की नजाकतो

सुमन कुमार सिंह

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                               (सुमन कुमार सिंह) भोजपुरी कवि रामजियावन दास बावला पर प्रस्तुत है सुमन कुमार सिंह का भोजपुरी में दूसरा आलेख लोकानुरागी कवि रामजियावन दास बावला अब त इहे कहे के परी कि ‘ एगो कवि रहलन!’ हँ ऽऽ अब बावला जी के बारे में इहे कहल जाई।  1 मई, 2012 के उहाँ के निधन भ गइल। मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश निवासी रामजियावन दास बावला जी भोजपुरी के वरिष्ठ कवि रहीं। उहाँ के कविताई चर-चरवाही आ श्रद्धा-भक्ति के बीच से हो के पनपल रहे। पढ़ल-लिखल ना रहीं, बाकिर गृहस्थ जीवन आ कृषि संस्कृति के जवन सूझ-बूझ उहाँ के भीतर बसल रहे,  उहे पा के उहाँ के कविताई स्नेह लुटावत रहे। उहाँ के जतने लोक के रहीं , ओतने प्रकृति के आ आम आदमी के। उनका कविता गीत के एके संग्रह हो पाइल रहे जवना के नाम रहे ‘गीत लोक’। एह गीत लोक के भूमिका वरिष्ठ साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र लिखले रहलन। बावला जी एक लेखा से सहज-साधारन भक्ति-भाव के कवि रहलन। उ भक्ति-भाव, जवना में लोक संस्कृति के आदर्श रचल-बसल बा। जहँवा राम माने उठतो राम - सुततो राम होला। जेकरा जपे खातिर ध्यान-जोग के कवनो जरूरत ना परे। बावला जी एही

आस्था सिंह की कविता

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आस्था ने इसी सत्र में बनारस हिदू विश्वविद्यालय से स्नातक की अपनी पढाई पूरी की है। युवा कवि एवं आलोचक बलभद्र की पुत्री आस्था को बचपन से ही साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश मिला है. ‘फूस के छप्पर पर’ आस्था की पहली ऐसी कविता है जो कहीं पर प्रकाशित हो रही है। इस कविता में फूस के माध्यम से आस्था ने प्राचीन को नवीन के साथ बखूबी जोडने का प्रयास किया है। वह प्राचीन जिससे हमें यानी नयी पीढ़ी को अपने जीवन संग्राम के लिए बहुत कुछ सीखने-समझने-जानने को मिलता है। वह प्राचीन जो तमाम जीवनानुभवों से भरा हुआ है, लेकिन समय के प्रवाह में उन्हें बीता समझ कर आज उपेक्षित किया जा रहा है। पीढीयों के बीच इस दूरी के लिए ‘जेनरेशन गैप’ शब्द प्रयुक्त किया जा रहा है।   यह सुखद है कि आस्था ने  कविता में अपनी पुरानी पीढ़ी को समुचित सम्मान देते हुए उनसे अपनी पीढ़ी के गैप को पाटने की सफल कोशिश की है। फूस के छप्पर पर फूस के छप्पर पर हरी लताएँ फूस भरी लताओं से बतियाते हुए कुछ बातें जैसे बूढा कोई बतियाता हो किसी बच्चे के साथ   फूस की बातें अनेक रिझातीं लताओं को उकसाती बढ़ने को एक होड़ होती बढ़ने की छप्पर तक पहुँ

तिथि दानी

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जन्म- 3 नवंबर स्थान- जबलपुर( म.प्र.) शिक्षा-एम.ए.(अँग्रेज़ी साहित्य),बी.जे.सी.(बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड कम्युनिकेशन्स),पी.जी.डिप्लोमा इन मास कम्युनिकेशन संप्रति विभिन्न महाविद्यालयों में पाँच वर्षों के अध्यापन का अनुभव, आकाशवाणी(AIR) में तीन वर्षों तक कम्पियरिंग का अनुभव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं (दैनिक भास्कर, नई दुनिया, वागर्थ, शुक्रवार, पाखी, प्रबुद्ध भारती, परिकथा आदि में कविताएँ और परिकथा में एक कहानी) प्रकाशित। वर्तमान में Pearls News Network(P7 News Channel),की पत्रिका,Money Mantra नोएडा में कॉपी एडिटिंग।   अपनी कुछ प्रारंभिक कहानियों और कविताओं के जरिये तिथि दानी ने हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण मौजूदगी दर्ज कराई है. इनकी रचनाओं में शिल्प की तरोताजगी सहज ही देखी जा सकती है. कवियित्री का यह विश्वास ही है जिसके दम पर वह कहती हैं कि ‘ आयेगी  तुम्हें मेरी याद कहीं ’ . घोर संकट के क्षणों में, अकेलेपन में, भीड़ के रेले में या फिर बयारों के तपन से बचते हुए ही सही, कहीं न कहीं तो कवि अपनी याद दिलाएगा ही. यह याद दिलाना घोर निराशा, घोर अविश्वास और घोर अवसाद के

अंजू शर्मा

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मैनेजमेंट के क्षेत्र में नौकरी को छोड़ कर परिवार और लेखन को वक़्त देने वाली अंजू कविताएँ और लेख लिखना पसंद करती हैं. इनकी रचनाएँ जनसंदेश टाईम्स, नयी दुनिया, यकीन, सरिता जैसी पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. अंजू विभिन्न ई-पत्रिकाओं से भी जुडी हुई हैं. kharinews.com, नयी पुरानी हलचल, सृजनगाथा, नव्या आदि में कवितायें और लेख प्रकाशित हुए हैं. अभी हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक काव्य संग्रह ‘ औरत हो कर भी सवाल करती है ’ में भी इनकी कवितायें शामिल हैं. वर्तमान में अकादमी आफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के कार्यक्रम ‘ डायलोग ’ और ‘ लिखावट ’ के आयोजन कैम्पस और कविता ’ और ‘ कविता पाठ ’ से बतौर कवि और रिपोर्टर रूप में भी जुडी हुई हैं.                   यह सुखद है कि आज कविता का जो वितान बन रहा है उसमें स्त्रियों का महत्वपूर्ण स्थान है. इन कवियित्रियों ने यह पहचान अपने दम पर बनायी है. अंजू शर्मा एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने अपनी कविताओं में स्त्री अस्तित्व के प्रश्न को तलाशने की कोशिश की हैं. चूकि वे इस जीवन से खुद रू-ब-रू हैं अतः यह तलाश उनकी कविताओं में स्व

रचना

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रचना वाराणसी के सेन्ट्रल हिन्दू गर्ल्स स्कूल की बारहवीं की छात्रा हैं. रचना की इस कविता को वर्ष २०१२ का विद्यानिवास मिश्र प्रथम युवा प्रतिभा सम्मान प्रदान किया गया. निर्णायक मंडल में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के हिन्दी के विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर श्रद्धानंद थे. इस छोटी सी कविता में रचना ने अपने घर की दो बूढ़ी दादियों के माध्यम से स्त्री जीवन की उद्यमशीलता को बयान किया है. इस कविता की खास बात यह है कि रचना ने जिस अंदाज में लय को साधा है वह सुखद है और हमें बहुत आश्वस्त करता है. यह कविता मधुकर सिंह के संपादन में छापने वाली पत्रिका ‘इस बार’ में युवा आलोचक सुधीर सुमन की टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुई है. दो बूढ़ी मेरे घर में दो बूढ़ी दोनों बूढ़ी काम से जुडी हर समय करती हैं काम सुबह, दोपहर या हो शाम दिन भर करती रहतीं काम रात नहीं तो नहीं आराम सुबह जगीं तो लगीं काम में सिरहाने हो  जैसे  काम

बलभद्र

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अभी हाल ही में भोजपुरी के एक सशक्त कवि राम जियावन दास बावला का निधन हो गया. लेकिन उनपर कहीं न तो कोई चर्चा हुई या आलेख ही प्रकाशित हुआ. हमने इस सिलसिले में कुछ महत्वपूर्ण लेखकों से बात की जो स्वयं भोजपुरी में ही गंभीर कार्य करने में जुटे हुए हैं. इसी सिलसिले में बावला जी पर कुछ महत्वपूर्ण आलेख हमें प्राप्त हुए जिन्हें हम ‘पहली बार’ पर सिलसिलेवार प्रस्तुत करेंगे. इसी क्रम में पेश है बलभद्र का आलेख ‘बावला: एगो किसान कवि’ जो खुद कवि की बोली-बानी भोजपुरी में लिखा गया है.                                                                       ( बलभद्र) बलभद्र बावला: एगो किसान कवि रामजियावन दास बावला भोजपुरी के एगो कवि, पुरनकी पीढ़ी के. इनका के जाने वाला जादेतर लोग भक्त-कवि मानेला, राम कथा से जुडल कवितन के चर्चा करेला. बात सहियो लागत बा. कतने कुल्हि प्रसंग बा इनका कविता में जवन कुछ त तुलसी-वाल्मीकि से मेल खाला आ कुछ एक दम इनकर आपन कल्पना के उपज ह. मेल खाए वाला प्रसंगों जवन बा तवन खाली घटना के आधार पर मेल खाला, ओहकर प्रस्तुति एक दम नया बा. आ मिलतो बा त कुछे-कुछ. भोजपुरी मे

सुबोध शुक्ल

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पल-पल का हिसाब लेती कविता (भगवत रावत का कविता सन्दर्भ) एक पुरानी ग्रीक कहानी याद आ रही है। एक देवपुत्र था-प्रॉमिथियम, धरती पर रहने वाली एक सुन्दरी से प्रेम कर बैठा। परमेश्वर ने सजा सुनायी कि लड़की को छोडो या दण्ड भोगो। प्रॉमिथियस एक निर्दोष प्रेमी की तरह दण्ड को तत्पर हो गया। सजा दी गयी। एक गिद्ध प्रॉमिथियस के कलेजे को फाड़-फाड़ कर निकालेगा, उसे खायेगा, उड़ जायेगा और देवता होने के कारण यानी की अमर होने के कारण रातों-रात एक नया कलेजा पैदा हो जायेगा और पुनः गिद्ध को आ कर उसे नष्ट करना होगा। यह क्रम अहर्निश चलता रहेगा। हर धर्मशास्त्र के लोक मिथक, अपने किस्म के अदृष्ट माया लोक, अपरिभाषित नीति मानकों, अप्रतिहत अस्वीकृत दांवों और अन्तर्विसंगतियों से जूझते नायकों के श्वेत पत्र की तरह हैं। मैं जन-विश्वासों तथा लोक -आस्थाओं के समानान्तर जीवन-संसार को एक लिहाज से स्वीकारणीय पाता हूँ। कथाओं का निर्माण एक समूची संस्कृति का अपनी ‘उपस्थिति’ से अपने ‘अस्तित्व’ में संक्रमण है। प्रत्येक युग अपने समय के संभावित तर्क के साथ-साथ अपनी प्रस्तावित कल्पना का भी साक्षी होता है। यह अवश्य विचारणीय है कि य

हेमा दीक्षित

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२१ जुलाई को कानपुर में जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'की सहायक संपादिका. सम्प्रति, प्रबंध-निदेशक 'गौरी हॉस्पीटल', कन्नौज. आज के कविता की खूबसूरती यह है कि इसने अलग-अलग कोनों से बिलकुल अलग अलग ऐसी आवाजें उठाईं हैं जो बिलकुल हमारे आस-पास की आवाजें लगतीं हैं. इसमें आया सुख-दुःख, इसमें आया अवसाद, इसमें आयी समस्याएं बिलकुल अपनी समस्याएं लगतीं हैं. बिना किसी बनावट के बिलकुल सहज अंदाज में बुनी गयी ये कवितायें मन के अंदर गंभीर घाव करती हैं और हमें सोचने के लिए विवश करती हैं. हेमा दीक्षित स्त्री कवियों में ऐसा ही नाम है जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को करीने से उभारा है. उदाहरण के तौर पर ‘हरी हो मन भरी हो’ कविता में हेमा ने बिलकुल अदनी सी इलायची को बिम्ब के रूप में ले कर बड़ी खूबसूरती से स्त्री जीवन के यथार्थ को सहज अंदाज में उकेर दिया है. वह इलायची जिसे सिलबट्टे पर बारी