विजेंद्र





हमारे समय के वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी ने ‘पहली बार’ के लिए अपनी नवीनतम कवितायें भेजीं हैं. इन्हें अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है.  लोक चेतना से जुडी हुई ये कवितायें आम आदमी की चिंता और परेशानियों की तहकीकात करतीं हैं. इसी क्रम में कवि विजेंद्र जी वाल्ट व्हिटमैन को याद करते हैं जिन्हें अमरीकी पूंजीवादी समाज ने प्रायः उपेक्षित किया.
ये एक लोकधर्मी कवि के सरोकार हैं जो उसे दूर-दराज के अपने ही सगोत्रीय जन कवि से जोड़ता है. पहली बार पर प्रस्तुत हैं विजेंद्र जी की कवितायें.  

 
धरती तभी बचेंगी


आदमी का खून कितना गाढ़ा है                   
यहाँ से वहाँ तक कनपटियों से बह कर
गर्दन तक आया है
वह गाढ़ा है - सुर्ख
जैसे खिले गुड़हल का फूल
इसके गिरने से धरती काली होती है
वह बराबर क्यों गिरता है
जहां वह  गिरा है
खार पैदा हुआ है
दोआबा की उर्वरता खत्म हुई है
युद्ध और आयुध मेरे विनाश के लिये है
दुनिया में अमन चाहने वाले
क्यो सबसे अधिक बंज करते हैं आयुधों का
मैं अगर उनके वर्चस्व को न मानूँ
तो वे मुझे तबाह करेंगे
मेरे विरुद्ध भाड़े के लोगों को लड़ायेंगे
ओह.... वे कितने बेचैन  हैं
आदमी को मार कर अमन रचाने को
नदियों को गंदा  ओह .... विषाक्त कर
धरती बचाने को ।



उन किरदारों की जरूरत है


जो आदमी पिलास से
बिजली का तार काटता है
उसके ऊपर लगी रबड़
अपने मज़बूत दाँतों से छुड़ाता है
फ्यूज़ उड़ते ही घुप्प अँधेरा था
रामहेत आया
उसने बारीक तार जोड़ कर
मुझे फिर से साँस लेने को
उजाला दिया
मैं इन्हें  कहाँ कहाँ देखूँ
कविताये मिथक.... दंत कथायें पीछे छूट गई हैं
चुटकुलों से कब तक भूखे आदमी को
बहलाता रहूँगा
पतझर की बादामी झरन के बाद
पियरछौंही वसंत ज़रूर आता है
उसकी पहली फुटन
अपनी खिड़की पे पौंड़ी
मधु....कंचनलता पर ही सुनूँगा
पेचकस से चूड़ियाँ कस
उसने मुझे हिफाज़त दी है
नट बोल्ट कस कर
मेरे इरादे पक्के किये हैं
क्या मेरी अमूर्त कवितायें
पोटुओं पर पड़ी दरारों को भरेंगी
आने दोकविता में उन्हें भी आने दो-
जो तख्तों में चोबे ठौक कर
मुझे सहूलियतें देते हें
लोहे की आरी से गाटर काट कर
हमारी छतें पुख्ता करते हैं
जब चीज़ों की शक्ले बदलती हैं
तो मेरा सोच आगे बढता है
मेरे इरादों में धार आती है



लड़ता है आदमी सतत समर


देखे  हैं  मैं ने मरु के सूखे खेत
भूदृश्यपृथ्वी की आकृतियाँ अनेक अनेक
खैरी धूप में तपता किसान का खुला सीना
ऊँट के गद्देदार पाँव छोड़ते छाप
लहरियोंदार टिब्बो पर
गर्दन उठा टूँगते पल्लव झाड़ियों के
क्या तुमने देखा है
पानी को काटते पृथ्वी तल
धानों को होते जलमग्न
क्या कभी सुनी है हवा और जल की
मिश्रधातुक टक्कर
वर्षा से भी जन्मते हैं नये-भू- आकार
अनंत प्रजातियाँ अनाम वनस्पतियों की
कहाँ देती है दिखाई
चट्टानों को काटती
पानी की तेज़ धार
हवा की पैनी बर्छियाँ
कणों का संगठन कहाँ दिखता है
इन आँखों को
हवा नहीं कर पाती इन्हें पराजित
वह काटती है सतह को
करती है निक्षेपण हर बार
ओह.... यह मरुथल, यह रेत, यह सूखा
कब से नहीं देखी बूँद
दूब तिनकों ने
सूखे अधसूखे मुरझाये पेड़े रूख 
कँटीली बेलड़ियाँ
ओह.... न हो कोई खेत ऐसा
न गिरे जहाँ बूँद पानी की
कैसे लगते हैं भूखे आदमियों के तपते चेहरे
छिपाये धधकता क्रोध आँखों में
रेत ही रेत है देख पाती जहाँ तक आँखें
न वृक्ष,  न घास,  न फूल,  न पत्ती
यह कितना भिन्न है दोआबा से
मेरे धड़कते दिल से
आदमी ही लड़ता है सतत समर
नहीं आती यहाँ नम हवायें
भीगे डेनों को फड़फड़ाती
बनते रहते वृष्टिछाया क्षेत्र
कैसे छिटकूँ यहाँ जल-बीज
हर बार उगेगा बिना पानी ही
ऊँटकटीला , रोहिड़ा , केरी
लगती रहेगी हर बार
धरती की फेरी ।

   
(गंगा नदी)


क्या गंगा भी होगी लुप्त


कहाँ है सरस्वती
गूँजती थी ध्वनियाँ ऋचाओं की
जिसके तटों पर
कहाँ है उसकी हिलोरें अगाध
कहाँ उसका फैला पसरा पाट
दोआबा के सीने की तरह
नहीं दिखाई देती वह कहीं धरती पर
सुनता हूँ उसकी गरजनाये
अपने दरके हृदय में
ओ गंगा .... कौन बचायेगा
उन क्रूर हाथों में फँसीतुझे
सदानीरा ....प्रवाहित होना ही
जीवन है नदी का
मैं जानता हूँ क्रूर और स्वार्थी
करेंगे विषाक्त तुझे  भी विवश
लुप्त होने को यहीं कहीं
तेरी तरंगों से ही
दोआबा हुआ है उर्वर
जीवित हैं तेरी रगों से अनेक
जलधारायें,  नद,  सर छोटी सिरतायें
ओ गंगा मेरी माँ
सागर में मिलने से पहले
तूने दिये जाने कितने पौष्टिक आहार
बालुका कणों से सिक्त तलछट
बाढ़ में उजाड़े हैं गाँव के गाँव भी
बनाया है उन्हें कर्मठ
उगाने को धान, मकई,  बाजरी
कहाँ है वह समय
देखता था जल में
अपनी परछाइयाँ तरल
तू बदलती है अपना पथ हर बार
क्यों उजाड़ती है छुटभैया किसानों को
गंगोत्री से विचलित हो
तू गई है अपनी सुरक्षा को अन्यत्र
मैं ने रोका है तेरी धारा को
बाँधों से कसी हैं तेरी भुजायें
गंदलाते हैं तेरे पवित्र जल को
जहरीले रसायन से
बनती जाती है तू
लावारिस लाशों की वाहिका
मेरे अनाड़ीपन से हुआ है
तेरा पवित्र जल दूषित
कहाँ खेाजूँगा तुझे भविष्य में
तेरा एक एक जलकण
रक्त कोष है मेरा
तू ही नहीं और नदियाँ भी
होती जाती हैं पतनालियाँ
ओ भगीरथ मेरे वैज्ञानिक
तुम बताओ दृष्टिवान अंधों को
चौकन्ने बहरों को
क्यों हैं वे इतने क्रूर
अपनी माँ के प्रति
नष्ट करते हैं उसके जल स्रोतों को
सुखाते हैं हिमालय में वसी झीलों को
नष्ट करते हैं हिम नदों को
कौन कर सकता है
उनकी रक्षा आज
होती है बरबादी पानी की
आधे से ज्यादा देश प्यासा है
टूटते हैं पाइप हर रोज़
लाखों गैलन पानी बिखरता है यूँ ही
महानगरों सिर फोड़ते है प्यासे लोग
पश्चिम की नकल से
सीखा है बनाना बाँधों को
क्यों नहीं सीखा नदियों को
रखना पवित्र अपने ऋषियों से
विलुप्त होती जाती  हैं
अनेक प्रजातियाँ जल जीवों की
औंधाते हैं अपार जल प्रभुजन
कारों को धोने में
लान सींचने में
कुत्तों को नहाने में
खुला छोड़ती हैं पाइप अभिजन स्त्रियाँ
बहता रहता है पानी सड़कों पर
जल नहीं तो नहीं होगा धान
कहाँ से हो पायेगी ईख
ऐसा विकास क्या
मुठ्ठीभर ही पायें अपार सुख सुविधायें
बहुल समाज मरे प्यासा ,भूखा , असहाय
अपौष्टिक आहार से होता रहे लँगड़ा लूला ।
      
                                            19 अगस्त , 012




(वाल्ट व्हिटमैन)


वाल्ट ह्विटमैंन की याद में
  

ओ मेरे प्रिय बुजुर्ग कवि
अमरीका के महान ....महानतम कवि
जब मनाया गया
तुम्हारी अमर कृति दूब के तिनको की
सौवी जयंती का उत्सव
मेरा युवा मन नहीं समझा
तुम्हारे काव्य शिखर
मैं डूबा था कीट्स की बुलबुलमें
शैले की पछुआ में
वर्डस्वर्थ के डैफोडिल्स में
उसकी रीपर में
शेक्सपियर के अथाह स्वगतों में
ओह़़ ...... मेरे साहसी कवि
जब मनाई गई तुम्हारी डेढ़सौवी जयंती
मैं लड़ रहा था स्वयं से
अपनी कविता को
अपनी भदेस भाषा को
अपने ऊबड़खाबड़ कथ्य को
तुम्हारी घनी दाढ़ी में दिखा मुझे
अपने जनपद का खादर
चट्टानों में उभरी सिलवटें
सागर का रौरव
पूरे विश्व में
गूँजती रही तुम्हारी कविता की
अमिट छाप,  बजती रहीं लय की घंटियाँ
सरपट भागते वाक्य की आड़ी तिरछी हिलोरों  मे
खनकता रहा धातुक टिकाऊपन
सुनता हूँ आज भी सतत्तरवी साल में
कालपरीक्षित तेरी कविता का गान
तेरी कविता के हृदय में वसी मुक्तिकामी पीड़ा
नक्षत्रों का फूटता प्रकाश
तुम्हारी विस्तृत आत्मा का फैला असीम वृत्त
प्रभु वर्ग के पेशेवर समीक्षक
छिपे-छिपे विहँस कर
करते हैं तुम्हारी निंदा
वे जनता के शत्रु हैं
श्रमिको , छोटे किसानों के शोषक
यथास्थिति के कायल
स्वर्ण मुद्राओं को लालायित
पाने को दरवार से
मुझे कोई आश्चर्य नहीं
निरस्त किया है तुम्हारी कविता को
जनता के शत्रुओं ने
पृथ्वी की तरह विपुल विस्तृत तुम्हारा गान
जहाँ पाई है अमरता मनुष्य ने
तुमने गाये हैं उसी के गान
जो नहीं होगा कभी पराजित अपने शत्रुओं से
नहीं जियेगा कीड़े मकोड़ों सा
कारुणिक नहीं होगा उसका अंत
सहेगा अभी और शत्रु की यातनाये
नहीं हो पायेगा उसके हृदय का दलन
सफेदपोश डरता है
सुर्ख लोहे को देख कर
वह हथैाड़े से पीट कर
उसे ढालता है मनचाही शक्लों में
कितना ही होगा वह दुर्बल
नहीं होगा चेतना शून्य कभी
तपता रहूँ चाहे जितना
कहाँ हो पायेगा भस्म शरीर अभी
नहीं हेाता जीवन नष्ट बज्रप्रहारों से
अर्जित होती है शक्ति अपूर्व
तुम कितने दुखी हो
देख कर मनुष्य की एकता न होने पर
अथाह गहराइयाँ नापी हैं तुमने
मनुष्य हृदय की
विपुलता पृथ्वी की
पवित्रता सौंदर्य की
कितने सरल हैं तुम्हारे शब्द जैसे दूर्वांकुर
बिल्कुल ताज़ा जैसे ओस की बूँदें
छोटे हृदय में नहीं समा पायेगा
तुम्हारी कविता का आलोक वलय
मनुष्य के शत्रु
नहीं कर पायेंगे तुम्हारी कविता का आस्वाद
मैं ने भी सहे हैं आघात दुष्टों के
नहीं कर पाया प्रसन्न उन्हें
जो करते हैं घिन जनता से
अक्षय कोष तुम्हारी कविता का
पत्थर पर खिंची रेखायें
चमकते रहेंगे अमिट आँक
माथे पर काल के
करते रहेंगे प्रेरित करोड़ों करोड़ लोगों को
आगे तक दुनिया में
गुजरने  दो कठोर समय को
वर्तमान के वृक्ष को हिलाते हुये
तुम आज भी मेरे साथ हो
दूब के तिनकोंमें मुखार है
भविष्य अमरीकी कविता का ।
                     21 अगस्त ,2012
          फरीदाबाद


संपर्क
मोबाईल- 09928242515

टिप्पणियाँ

  1. vijendra ji ki ye kavitaayen hawa,paani,mitti ki, yaani kulmilaakar jivan ki, tatha jeevan ke liye kavitaayen hain. santosh ji 'pahleebar' ke maadhyam se naye purane sabhi tarah ke rachnakaron ki rachnayen saamane laakar sahitya ko samridh kar rahen hain.

    जवाब देंहटाएं
  2. vijendr hamare samay ke jaruri kavi hain .hindi kavita ki pragateesheel parampra ka charamotkrsh vijendr ki kavita me dekhne ko milta hai.aise kathin samay vijendr jaise varisth evam pratibadh kavi ka satat skriya hona samkaleen kavita evam naye kaviyon ke liye prerna daye hai
    achyutanand

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