रमाकान्त राय



मार्कंडेय जी की पुण्यतिथि विशेष के क्रम में प्रस्तुत है रमाकांत की मार्कंडेय जी के नाम पाती। अपनी इस पाती में रमाकांत ने मार्कंडेय जी की रचनाओं को आधार बनाकर कई ज्वलंत मुद्दों की ओर इशारा किया है, जो सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। तो लीजिये आप भी पढ़िए रमाकांत की यह पाती। 

आदरणीय श्री मार्कंडेय  जी,

सोस्ती  श्री उपमा योग्य पत्र लिखा इलाहाबाद के एक अदना से पाठक की ओर से आपके चरणों में  सादर प्रणाम पहुंचे. कैसे हैं? आने वाले १८ मार्च को तीन साल हो जायेंगे, जब आप यहाँ अपना पार्थिव शरीर छोड़ कर चले गए. हम सब बहुत रोये, आपके जाने के बाद! सारा इलाहाबाद शोक में डूब गया था. हम सब आपकी याददाश्त के मुरीद थे. सबको हमेशा इल्म रहता था कि आप नए और अपरिचित पाठकों का भी हमेशा ख्याल रखते हैं, छोटी-छोटी बातें भी ध्यान में रखते हैं. फिर आप अपनी लम्बी छरहरी, गौर वर्ण की काया पर सदैव सुशोभित सफ़ेद कुरता-पायजामा वाला शरीर कैसे भूल गए!! सबलोग बहुत निराश हुए और हताशा और निराशा में ही सबने उस शरीर को पंचतत्व में मिला दिया. आप चले गए तो सबको बहुत दुःख हुआ ! सबने अपने-अपने तरीके से आपको याद किया. देश भर में श्रद्धांजलि सभाएं हुईं, कई पत्रिकाओं में आपके विषय में चर्चा हुई, सबने याद किया कि आप कैसे थे. मैंने उन दिनों को याद किया, जब आप तमाम साहित्यिक गोष्ठियों के आकर्षण हुआ करते थे और हमलोग तर्जनी दिखा कर इशारा करते हुए, फुसफुसाया करते थे कि वही हैं, मार्कंडेय जी! अग्निबीज वाले, गुलरा के बाबा! और धीरे-धीरे खिसकते-खिसकते उस गोल में शामिल हो जाते जो आपके केंद्र के साथ बढ़ती-घटती रहती थी. हम लोग बस आपके सफ़ेद बालों की ओर देखते और कई बार यह भी देखते कि इनमें कितने सफ़ेद हैं. आश्चर्यजनक रूप से सारे के सारे बाल सफ़ेद होते थे जो आपके गोरे रंग पर बहुत फबते थे. कान, आपकी बात सुनते और नजर आपके सौम्य व्यक्तित्व पर रहा करती थी. ऐसे ही एक दिन हम लोगों ने आपको इलाहाबाद के संग्रहालय में देखा और हिम्मत करके आपके पास सिमट आये. हमने आपका उपन्यास ‘अग्निबीज’ पढ़ा था और उसके कई पात्र हमें जब-तब परेशान करते थे. आपसे आदरभाव से शुरू हुई बात-चीत जल्दी ही उत्तेजना में बदल गई और आप बहुत खुश हुए कि किशोरवय के उन पात्रों ने हमें बहुत प्रभावित किया था. आपने हमारे कई प्रश्नों को टाल दिया था और कहा था कि आप जल्दी ही अग्निबीज का अगला भाग लिखेंगे! हम वहां से टरक लिए. यह जानते हुए भी कि आप दूसरा भाग नहीं लिखने वाले. उस मुलाकात ने हमें बहुत प्रभावित किया था. और सबसे बड़ी बात तो यह कि हम इस बड़े विश्वास के साथ लौटे थे कि बड़े लोग अपने कद के अनुरूप सहज भी होते हैं.

आपको बताना  चाहता हूँ कि एक दिन मैं आपकी कहानियों का एक संग्रह पढ़ रहा था. यह नया संग्रह लोकभारती प्रकाशन से आया है. “हलयोग. मार्कंडेय की असंकलित कहानियां.” वैसे आपकी कहानियों का समग्र भी लोकभारती वालों ने छाप दिया है. मैंने असंकलित कहानियों वाला संग्रह खरीदा था. उस संग्रह में पहली ही कहानी है –हलयोग! सुना था कि यह आपकी चर्चित कहानियों में से एक है! मैंने इसे पहले भी पढ़ रखा था. कई साल के बाद फिर से यह पढ़ते हुए मैं कई दिन तक उस सूली के विषय में सोचता रहा, जिस पर चौथी माट्साहब को चढ़ा दिया गया था. मुझे बार-बार ईसामसीह की याद आती रही. हम अभी भी बर्बर समाज में रह रहे हैं न ! चौथी माट्साहब की दुर्गति ने बहुत परेशान किया. मैंने आपकी कहानी का ट्रीटमेंट देखा. जिस निस्संगता से कथावाचक कहानी कहता है और अपनी बेबसी रखता है वह हृदयविदारक है. हलयोग में जाति व्यवस्था पर आपने जिस तरह बात की है, वह बहुत सहजता से संप्रेषित हो जाती है. चौथी का मुंशी बनना जैसे पूरे गाँव के लिए चुनौतीपूर्ण है. चौथी सहज ही बच्चों के विश्वासपात्र बन जाते हैं. उनका पढ़ने, समझाने का तरीका बच्चों को बहुत सही लगता है. इस बात को बताने के लिए आपने जिस युक्ति का उपयोग किया है वही आपको अन्य से विशिष्ट बनाता है. पंडित मूलचंद दिनभर भांग घोटवाते रहते थे या छड़ी से पीटते रहते थे. उसमें भी खासकर दलित बच्चों को. उस दिन वैसे तो पंडित मूलचंद सभी बच्चों को एक गलती पर एक छड़ी मार रहे थे लेकिन “एक चमार लड़के के हाथ पर छड़ी इस तरह लग गई कि उसके नाखून से खून बहने लगा.” मैं यहाँ आकर रूक जाता हूँ, पंडित जी ने कैसे मारा होगा कि “इस तरह लग गई”, उनका मारना जरूर अपनी उस खुन्नस को उतारना रहा होगा न, जिसमें यह मानसिकता काम कर रही थी कि अगर चमारों के बच्चे पढ़ने-लिखने लगे तो, “सारा काम-धाम ही बंद हो जायेगा. भला जानवरों का क्या होगा. उन्हें चराने और गोबर-पानी के लिए आदमी कहाँ से आयेंगे.” पंडित जी ने मारा और बच्चे के ऊँगली से खून टपकने लगा तो बच्चा “रोता हुआ मुंशी जी के पास भागा. उन्होंने उसकी ऊँगली साफ की और अपनी धोती के सिरे से एक चिट फाड़ कर पट्टी बाँध दी.” मैं लगातार सोचता रहा कि आप अपनी कहानी में जिस सहजता से यह अंतर पैदा कर सके हैं वह आपकी ही खासियत है. सब यह कहते भी हैं कि आप अपनी कहानी में संकेतों से बेजोड़ काम लेते हैं. हलयोग भी एक संकेत ही है न !!

कहानी में  मैं लगातार देखता रहा  कि वह कौन सी जगह है जहाँ चौथी माट्साहब के लिए तमाम षड्यंत्र शुरू होते हैं. यह आपकी विशिष्टता ही है कि यह षड्यंत्र बहुत सहज तरीके से आगे बढ़ता है. आप तो जानते ही हैं कि कहानी में कहन की बड़ी भूमिका है. आजकल की कहानियों में यह दुर्लभ होता जा रहा है. लोग कथावस्तु और कला में इस कदर उलझे हुए हैं कि यह भूल जाते हैं कि कहन बड़ी चीज है. कोई भी कहानी बिना कहन के बोझिल गद्य ही है. हलयोग में विवेक अभी बच्चा तो है, लेकिन उसके कहने का अंदाज आकर्षक है. वह अपने देखे और समझे के हिसाब से ही बात कहता है. जब चौथी के खिलाफ पूरा गाँव साजिश करता है, वह एक छोटी सी, मासूम परेशानी में उलझा हुआ है कि तबादला हो जाने के बाद “क्या मुंशीजी अब हमें कभी नहीं पढ़ा सकेंगे. क्या वे कहीं और चले जायेंगे, क्या उन्हें गाँव छोड़ देना पड़ेगा..” तो यह भी कहना है कि आपकी कहानियों में गजब की किस्सागोई है. यह मैंने ‘हंसा जाई अकेला’ पढ़ते हुए भी महसूस की और इस संग्रह की अधिकाँश कहानियों में भी.

अच्छा, ये बताइए कि आपने कैसे यह महसूस  किया? सब कहा करते हैं कि नयी कहानी के कथाकार भोगे हुए यथार्थ की कथा कहते हैं. मैं उनकी बात मान  लेता हूँ. आपने भी यह जरूर देखा होगा. जौनपुर, जहाँ की यह कहानी है, वहां यह मानसिकता तो है ही. मैं इस कहानी लिखे जाने के कई वर्ष बाद लिखे गए मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘अल्मा कबूतरी’ पढ़ रहा था. देखा कि दलित बच्चों के पढ़ने पर अक्सर सभ्य कहे जाने वाले समाज में दिक्कत शुरू हो जाती है. वहां राणा नाम का कबूतरा पढ़ने की कई कीमतें चुकाता है. उससे पहले एक और कबूतरा रामसिंह भी पढ़-लिखकर मास्टर तो बन जाता है पर व्यवस्था का शिकार बन जाता है. उसे सत्ता और पुलिस की दुरभिसंधियां मार डालती हैं. तो यह भी कहना है कि यह जो आपने हलयोग में लिखा है यह स्थानीय कहानी नहीं है, यह बड़े फलक को छूती हुई कहानी है. यह प्रेमचंद की कहानी सद्गति का विस्तार है.

मैं कहानी  में देख रहा था कि कैसे चौथी माट्साहब के ऊपर भूत-प्रेत  का साया है, यह दिखाने के लिए  महाराज के पौत्र श्रीकांत तफसील से बताते हैं कि उनपर बरम बाबा का साया है तभी उनकी आँखे लाल-लाल हैं. यह भी गढ़ा जाता है कि “बचपन में उसने बरम बाबा के चबूतरे पर पेशाब कर दिया था.” स्कूल  इंस्पेक्टर के तीन शिकायतों पर जब मुंशी जी से सफाई मांगी जाती है तो वे उस पर्चे को फाड़ देते हैं. आखिर ऐसे वाहियात पर्चे पर सफाई कैसे दी जा सकती है, जो बच्चों में भेद करता है, जो जाति और वर्ण का अंतर करता है और इसे मिटाने के प्रयास पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है. उनके इस व्यवहार को उनपर बरम के साए का प्रकोप माना जाता है. उनकी तबियत कई तनावों और शारीरिक अस्वस्थता से बहुत नाजुक हो गई है लेकिन उनका इलाज करने के बजाय उन पर बरम का साया बताया जाता है और यह ठीक भी समझ लिया जाता, लेकिन आप बताते हैं और संकेत दे देते हैं कि ऐसी ही स्थितियों में स्वयं विवेक के लिए दूर दूर से राजवैद्य बुलाये जाते हैं और चंडी पाठ एक विकल्प की तरह होता है जबकि मुंशीजी की कोई बात नहीं सुनना चाहता. उन्हें पहले बरम उतारने के लिए ओझा सोखा के हवाले किया जाता है और बाद में हलयोग.. यह अंतर ही बताने के लिए काफी है कि यह क्या था, षड्यंत्र ही न !! हलयोग तो एक तरह से सूली पर चढ़ाना ही न है!

मैं यह कहानी  पढता हूँ और मुझे उदय प्रकाश की कहानी ‘तिरिछ’ की याद  आती है. मुझे उन्हीं की कहानी  ‘मोहनदास’ की याद आती है. यह सब आपके प्लाट का विस्तार  हैं. मुझे शिवमूर्ति की भी एक कहानी याद आई, और भी कई कहानियां, जो ऐसे ही किसी अंश या प्लाट पर आधारित हैं. आप जानते हैं, कि ये लोग  आज के दौर के बड़े कहानीकार हैं. मैंने पढ़ा था कि एक सफल और बड़ी कहानी वह है जो अपनी बात समग्रता में कहती है और अपने कहन के बाद उससे जुड़ा कुछ नहीं शेष रखती. बाद की कहानियों को पढ़ कर देखा तो लगा कि आपकी यह कहानी ‘समग्र’ को ऐसे कहती है कि आज के बड़े कहानीकार उससे अंश लेकर (जाने-अनजाने) ही सफल कहानी रच देते हैं. इस नाते से आपके लिए मैं कह ही सकता हूँ कि आप बड़े कहानीकार हैं. वैसे मेरे जैसे अदने पाठक से यह सुनना आपके लिए कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जब मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूँ तो यह मेरा अनुभूत है.

आपने अपनी कहानियों में गाँव के जीवन का बहुत प्रामाणिक वर्णन किया है. और मैंने यह भी महसूस किया कि आप अपनी कहानियों में विषय का दोहराव नहीं करते. संग्रह में जितनी भी कहानियां हैं वे यद्यपि प्रारम्भिक दौर की हैं लेकिन उनके प्लाट भिन्न हैं. यह आपके व्यापक अनुभव का परिचायक हैं. यह बड़ी बात है जो अन्य कहानी लिखने वालों को सोचनी चाहिए. 

आखिर में, एक बात और कहना चाहता हूँ कि आपकी कहानियां पढ़ते हुए मुझे शब्द की ताकत का अहसास भी हुआ और यह भी समझ में आया कि शब्द को फिजूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए. कहीं भी कहानी में अनावश्यक वर्णन या विस्तार नहीं, सटीक शब्द और व्यंजित करने वाले सधे हुए प्रयोग. जरूरी हुआ तो तत्सम रूप रखा और अगर लगा कि ‘यश’ की जगह ‘जस’ कहने से ज्यादा अर्थ व्यंजक होगा तो वही प्रयोग किया. शब्द की ताकत बड़ी होती है, यह मुझे प्राथमिक कक्षाओं में ही सिखा दिया गया था. आपकी कहानियों ने उसका समुचित प्रयोग करके दिखाया.

अंत में, यह भी कहना है कि आपकी कहानी  वाली किताब ने हमलोगों  को कई बार कहानी पढने की तमीज सिखाई है.

मैं, अब यह चिट्ठी समाप्त करना चाह रहा  हूँ. यह सोचते हुए कि आप हमेशा नए और उदीयमान लोगों  को सराहते आये हैं और प्रोत्साहित  करते रहे हैं, चिट्ठी पढ़कर एक नए पाठक की बात समझेंगे  और यह अधिकार भी देंगे कि फिर, जब मन चाहे आपको याद कर सकूं.

आपको प्रणाम!
आपका ही-- 
रमाकान्त  राय 
प्रवक्ता, हिंदी
राजकीय  इन्टर कालेज, कोन  
सोनभद्र, उ. प्र., २३१२२६

सम्पर्क

            मोबाईल- 09838952426
 



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