पद्मनाभ गौतम




जन्म - 27-06-1975, बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया, छत्तीसगढ़
संप्रति - निजी क्षेत्र में सेवा

प्रकाशन - ग़ज़ल संग्रह "कुछ विषम सा" सन 2004 में जलेसं द्वारा प्रकाशित
विभिन्न प्रमुख पत्र पत्रिकाओं - कृति ओर, प्रगतिशील वसुधा, काव्यम, अक्षरपर्व, आकंठ, हंस, अक्षरशिल्पी, दुनिया इन दिनों, छत्तीसगढ़ टुडे, कविता कोश - कविता छत्तीसगढ़, देशबन्धु, लफ्ज़, उपनयन, सृजनगाथा इत्यादि में कविता, गज़लें, विचार आलेख इत्यादि प्रकाशित।
आकाशवाणी अंबिकापुर से उदिता व वार्ता में रचनाओं का प्रसारण


युवा कवि पद्मनाभ गौतम बहुत कम कविताएँ लिखते हैं . किन्तु गंभीर लिखते हैं . इनकी कविताएँ समसामयिक हैं, अपनी रचनाओं में वे बाजारवाद का मुखौटा खोलते हैं फिर टटोलते हैं लुप्त होते मानवीय संवेदनाओं को. “सुनकर हूँ अवाक् कि /आखिर किस हद तक / धो दिए गए हैं / हमारे दिमाग,/ तौली जा रही है / हमारी शखिसयतें / केवल पैसे फूँकने के /जुनून से”  यहाँ कवि की हैरानी हम सबकी हैरानी है. गठजोड़ के इस दौर में कवि चाहता है कविताओं का चुनाव. शब्दों का सही ताल–मेल एवं विषय का चुनाव इनकी कविताओं को खास बनाती है . निरंतर लेखन से वे और सशक्त होते जायेंगे समय के साथ. आइये इन्हें और जानते हैं इनकी रचनाओं को पढ़ कर .



 बाजार

किंडरज्वाय के लिए
मचल गई है बिटिया
बीच बाजार
और मैं समझा रहा हूँ उसे
पांच रूपए के
सामान के पीछे
तीस की मार्केंटिंग आंकड़ा,
कि हो जाए वह राजी
और खरीद ले
इसी दाम की
कोई और चाकलेट,
हो जाए
जिसमें कम से कम
ईमानदारी से
टैक्स भर कर कमाए
रूपए की कीमत वसूल।
और फिर होता है
मेरी इस कृपणता पर कटाक्ष
कि नहीं पूछूँ मैं
दूसरी चाकलेट का दाम,
हो सकता है 'हार्टफेल'
सुनकर पैंसठ रूपए
कीमत जिसकी
आप तो हमेशा
कम दाम की चीज़
खोजते हैं ना।
सुनकर हूँ अवाक् कि
आखिर किस हद तक
धो दिए गए हैं
हमारे दिमाग,
तौली जा रही है
हमारी शखिसयतें
केवल पैसे फूँकने के
जुनून से
क्या कहूँ कि मैं
सिखा रहा हूँ
अपनी बिटिया को
विपरीत परिस्थितियों में
जीने की वह कला,
जो शायद
एक गरीब मास्टर का
आत्मज ही
सिखा सकता है
अपनी आत्मजा को।
क्या बताऊँ कि
सीख रही है मेरी बेटी
उस देश मे जीने की कला
जिसने अमरीका से
आयात तो कर लिया है
बड़े गर्व के साथ
कोक, डोनट्स और
होम डिलीवरी पिज्जे का शौक
लेकिन जिसकी हैसियत नहीं
कि दे पाये अपने बुज़ुर्गों को
बुढ़ापे में इज्ज़त के साथ
जीने की सुरक्षा
यह भी बताने की
जरूरत नहीं
कि आज भी
बाबू साहेब
डकार जाते है
वृद्धा पेंशन के
डेढ़ सौ में से
पचहत्तर रूपए भी
बेशर्मी के साथ
बस चुप हूँ मैं
और महसूस कर रहा हूँ
उस औरत के
भीतर घुसे शैतान को
जो बस जाना चाहता है
मेरे खून में भी
गड़ा  कर गर्दन में दांत
एक जी करता है
कि बता दूँ
उस औरत को
अपनी पगार में लगे
शून्यों की हैसियत,
जो कि वह चाहती है खुद भी,
और जो कि चाहता है
उसका बाजार भी
लेकिन आखिरकार
फेर ली हैं मैंने अपनी आंखें
और चल पड़ा
बिटिया को
एक बाँह से खींचते
किसी और दुकान की
तलाश में,
शुक्र है अभी तक
इस कदर नहीं धुला है
मेरा दिमाग ...





इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ

कुछ कविताएँ
दृष्टि चाहिए उनके लिए
और वे भी चाहती हैं दृष्टि
बुन-छींट कर
उगाई नहीं जा सकती हैं वे
फसलों की तरह,
उन्हें तो केवल भर कलेजा
सूँघ सकते हैं हम
खदकते अदहन में डले
भात की गमक सा
या पढ़ सकते हैं
ताजी गही धान के
ललछर-मटिहर रंग में
वे जो हैं हमारे इर्द-गिर्द
हमेशा से मौजूद
अभी उस दिन देखा था उन्हें
डिब्रूगढ के पास
जमीरा चाय बागान में,
और अपने आप
गूँजने लगा था कानों में
भूपेन दा का गान -
'एक कली दो पत्तियाँ
नाज़ुक-नाज़ुक उंगलियाँ'
तोड़ने वाला और टूटने वाला
दोनों ही तो थे कविताएँ,
किसी रोशनाई ने नहीं रचा था उनको,
वे तो थे वहाँ पर पहले से मौज़ूद,
भूपेन दा की मधुर आवाज़ में
उतरने से पहले भी
और उसके बाद भी
इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ
कुछ कविताएँ
आँगन में बेटे के जगाए
पेरीविंकल के फूलने के साथ
आँखे खोलती
पहली दुधमुँही
उम्मीद से
बिटिया के मुँह से टपकती
गुझिए सी मीठी अँगरेजी पर
न्यौछावर होती माँ की मुस्कान,
और उस मुस्कान के पीछे थिरकते
एक अधूरे स्वप्न से
छह साल के पोगम पादू के
उस गुस्से में भी तो
हुई है नाजिल एक कविता ही,
जो है सुबह से नाराज़
कि कैसे आ गया रात को अचानक
उसकी माँ की गोद में
वह गुलाबी सा नन्हा बच्चा
जिसे सब बता रहे हैं उसका भाई,
आज सुबह से शिकायत है उसे कि
-सब प्यार करता है
केवल छोटा लोग को,
बड़ा लोग को तो कोई पूछता ही नहीं
इतना कह कर बरबस ही
मुस्कुरा देता है मुझे देख कर
बोलो, क्या नहीं है यह भी एक कविता ?

कुछ वहाँ भी दिखी थीं बगरी
इगो बस्ती से कुछ आगे
डिब्रूगढ़-आलंग सड़क पर झूमते,
लाल दहकते मागर फूलों के
देवकाय वृक्षों की छाँव में
कुछ कविताएँ चुनना चाहूँगा मैं
बोगीबील फेरीघाट की आपाधापी से
और यकीनन कुछ कविताएँ
लोहित से भी जरूर,
पर लोहित से कविता चुनना
लग रहा है ज़रा मुश्किल
दरअसल लोहित की
ज्यादातार कविताएँ तो
ले जा चुके हैं
भूपेन दा पहले ही,
काँधे पर टँगे बैम्बू बैग में डाल कर
और मगन-मन गा रहे हैं
लोगों के दिलों में बैठे हुए


फ्रेंच विण्डो

यह जो कमरा दिया है
तुमने मुझे,
बड़ी सी फ्रेंच विण्डो वाला,
खूबसूरत तो है
पर है ज़रा अजीब,
गुजरा करता है
सूरज सर्दियों में
इसके दूसरी ओर से,
और गर्मियों में
भेद कर जा पहुंचता है
भीतर की दीवार पर रखे
पलंग के सिरहाने तक,
जिसके लिए कहते थे
तुम इसे हवादार,
इसमें आने वाली
वह हवा भी रहती है
सर्दियों में शिताई
और गर्मियों में
बदन से लिपटती है
ऊनी कम्बल की तरह
सहज था मुझ जैसे का होना
इस शानदार खिड़की पर फिदा,
कि मुझ जैसी भुनभुटिया तो
गिरती ही है कड़ाह में
चासनी के लेखे,
पर क्या तुम
जमाने भर के पारखी,
क्या तुम भी
नहीं देख पा रहे थे
मेरी सौंदर्यदृष्टि पर
भारी पड़ने वाला
इसका भूगोल
खैर, तुम्हारा भी क्या दोष
कि उस समय
तुम भी तो थे तल्लीन
इसकी
वास्तुशास्त्रीय गणनाओं में
मेरे भले की खातिर,
लगाई थी जिन्होंने
मेरी सौंदर्यदृष्टि पर
तुम्हारे तर्ककोश के
तर्कों की स्याही से
तर आखिरी मुहर
चलो जाने दो
हम तो हैं ही
ऐसे लोग
जो कहाँ सीख पाते हैं कुछ भी
बिना भोगे
अपने हिस्से का भोग।


उत्तर-पूर्व से

जब हों न्याय की
आँखें खुली
और बेहद सर्द,
जब बदल दी गई हो
कानून की किताब
न्यायाधीश के शजरे से,
लाज़मी है लगना डर का,
जब एक नाव डोहती हो
हैसियत से ज्यादा बोझ
और एक नदी
हद से ज्यादा गम्भीर,
झाँकता है डर गहराइयों का
जबरन सपाट बना लिए गए
चेहरों के पीछे से
जब किसी स्टेशन के
करीब आते ही
याद आते हैं पहचान पत्र
और लगने लगती है
चाय की बेवजह तलब
ज़रूरत से ज्यादा,
डर होता है मौज़ूद
कहीं पास

अनगित हैं ऐसे डर,
जीते हैं हर रोज
जिनके साये में हम,
न जाने कितने ही अहसासों की
खुली जेल में नज़रबंद,
यह और बात
कि अक्सर रख दिया जाता है
हर एक डर को बला-ए-ताक,
छिपाकर बच्चों की आँखों से,
तो कभी कस कर भिंची
मुटिठयों में बीच,
डर हिस्सा है
इस जिंदगी का
और यकीन मानें
कि डर का चेहरा
डरावना नहीं होता अक्सर
चल रहा है एक अनवरत संघर्ष
डर और जिजीविषा के बीच
कभी जीत जाता है हमारा डर
कभी जीत जाती है हमारी जिजीविषा
(शजरा- वंशावली, वंश-वृक्ष)





दुनिया से अलग

सात बहनों के कुटंब की
है जो जीवन रेखा,
इन दिनों लोहित है नाराज़।
पाँच दिनों से अंधेरे में डूबे हैं हम
और कोने में पड़ा इन्वर्टर
कंधे उचका कर बता रहा है
हमारे लिए विज्ञान की सीमा
नाराज़ लोहित ने भी तो
दिखाई है हमको
ईश्वर के समानांतर सत्ता
बन चुके विज्ञान की हैसियत
बन्द हैं इन दिनों
कारेंगबील-बोगीबील फेरी घाट,
डिब्रूगढ़-आलंग सड़क
और बंद रसद की आमद,
कि बमुश्किल मिलते हैं लाही पत्ता
और केले के फूल,
सब्जियों के नाम पर
फोन के सारे कनक्शन हैं बेकार,
और दूभर बाहर की खबरें,
ईडियट-बाक्स के सर्वज्ञ सूत्रधारों के
बिना भी बीत रहा है समय
निपटा लेते हैं हम इन दिनों
दिन रहते सारे काम,
और खा-पी कर सांझ ढलते
घुस जाते हैं कम्बलों में,
झक्क सफेद जलने वाले बल्बों की जगह
अब आखिरकार सम्भाल लिया है मोर्चा
मोमबत्तियों ने,
और लड़ रही हैं वे अंधेरों से हमारे लिए
करते हैं हम इन दिनों ढेर सारी बातें,
उन औरतों की बातें
जिन्होंने करके
लालटेन की रौशनी में
तुरपाई का काम
पाल लिए भूखे बच्चों के पेट
और इसी क्रम में याद करते हैं
निरूपाराय के दांतो के बीच दबे
सुई और धागे को
सीख लिया है बच्चों ने आसानी से
कि किसलिए और कैसे जलाई होगी
आदिमानवों ने आग,
और यह भी कि मुझे नहीं आती
उनकी दादी की तरह कहानियाँ,
कितना बौड़म हूँ मैं
कहानी सुनाने की कला में
आज भी घुस गए हैं हम
खा-निबट कर
बिस्तरे में,
पास बैठी पत्नी गा रही है कोई
अजूबा सा फिल्मी गीत
और छेड़ रही है
लेकर मेरे कानों में
पूर्व प्रेयसी का नाम
हँस रहा हूँ मैं हौले-हौले
इस शरारत पर,
सचमुच, कितना अदभुत समय है यह
कि हैं हम सब एक-दूसरे के इतने करीब
कभी-कभी लगता है अच्छा
रहना दुनिया से अलग,
अंधेरों के साये में।




संपर्क-
पदमनाभ गौतम
फ्लैट नं.-103, रोन्या बिलिडंग
भारतीय स्टेट बैंक के पास
आलंग, जिला-वेस्ट सियांग
अरूणाचल प्रदेश -791001


दूरभाष - मो. - 09436200201
नि. - 03783-223951


(पद्मनाभ की कविताओं की प्रस्तुति नित्यानंद गायेन की है।)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स पाब्लो पिकासो की है।)

 


टिप्पणियाँ

  1. धन्यवाद भैया
    -नित्यानंद गायेन

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  2. Kavitain padhkr acchaa laga . Shubhkaamnain . Nityaanand jee dhanyavaad . Abhaar santosh jee.

    जवाब देंहटाएं
  3. Baazaar is a lesson in microeconomics...
    In dino...is really a good selection
    French Window needs venetian blinds
    Uttar-Poorva se is a thriller
    & Duniya se alag is truely out of this world!
    Very Well written Mishra jee!!

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  4. Correction-Gautamjee!! (sincere apologies for typing the surname wrong)

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  5. हृदय से धन्यवाद संतोष भाईजी व नित्या भाईजी का...आप सभी की टिपनियों के लिए भी धन्यवाद...कमल भाई, राका भाई व सुमीत भाई....सुमीत भाईजी..लेखन मे गौतम उपनाम से लिखता हूँ , अन्यथा मिश्रा सही है....

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