मीनाक्षी जिजीविषा




मीनाक्षी जिजीविषा
कविता संग्रह .......'पलकों पर रखे
स्वप्नफूल', 'दिल के मौसम', 'स्त्री होने के मायने' ,,,,'आवाज़ में उतरती दुनिया' ....प्रकाशित
लघुकथा संग्रह .....'इस तरह से  भी' ...प्रकाशित!
कथाबिम्ब, वर्तमान साहित्य, कथादेश, कादम्बिनी, वागर्थ, आजकल, अभिनव मीमांसा ,,, वसुधा, विपाशा ...अक्स..इंडिया न्यूज़ ,
दैनिक त्रिबुने, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, दैनिक जागरण, जनसत्ता, में निरंतर रचनाएं प्रकाशित!
मैथिलि गुजराती पंजाबी और अंग्रेजी में रचनायों का अनुवाद!
वर्ष २ ० ० ४ में मौरिश के राजदूत श्री क्रिशन दत्त बैजनाथ द्वारा सम्मानित
वर्ष २ ० १ २  में युवा कविता सम्मान से सम्मानित
सम्प्रति- भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत

मीनाक्षी की कविताओं में सहज रूप में वह नारी मन है जिसे विरासत में कविता मिली है। लेकिन वह जानती है कि आज के पित्रसत्तात्मक समाज ने उसे उपहार में दिया है दिन-रात खटना। इस क्रम में वह घर-आँगन, बाग -बगीचे, बेटा-बेटी, पति सबको संवारने का काम करती है लेकिन इस काम में वह इस कदर मशगूल होती है कि खुद भूल जाती है कि उसे भी अभी बहुत बदलना है। फिर भी वह निरंतर लगी रहती है इस दुनिया को बदलने के काम में। आईये पढ़ते हैं मीनाक्षी की कुछ इसी अंदाज की कवितायें। 

ठहरना
जरा सा ठहरना होता है
बस जरा सा
अगर कर पाए तो
देख पायेंगे हम
धरती का सीना चीर
अंखुआते बीज को
ठूंठ पर हरी नर्म
कोंपलें आते
देख पायेंगे
इन्द्रधनुष में रंग उतरते
बादलों में जल भरते
कोमल हरी दूब की नोक
पर ठिठकी ओस की
बूँद में चाँद का प्रतिबिम्ब
गिरते पत्ते का नर्तन
फूल के अधरों पर
तितली का चुम्बन
चींटियों की कतारें
बच्चे की किलकारी में
खिलखिलाती पृथ्वी को
देख पायेंगे
एक उम्मीद को चेहरा बनते
एक स्वप्न को आकार लेते
अगर ठहर पाए तो
देख पायेंगे हम
इनमे छुपी
उम्मीद और
जिजीविषा भी 

बदलना

बड़ी  एहतियात से
याद रखती हैं वो
बदलना
घर के पुराने पड़ गए
बदरंग पर्दे…
सोफे के कवर
मेज पोश
तकिये, रजाई के लिहाफ
अलमारी के अखबार
बच्चों की कापियों के कवर
पति के चश्मे का फ्रेम
शर्ट के बटन ....
कालर और कफ
बदलना
घर का  पेंट'
गमलों की
मिटटी
नाश्ते और रात के
खाने का  मीनु
और बच्चों और पति का
मूड
रखती हैं चाहत और हिम्मत
दुनिया बदलने की .
फिर क्यों भूल जाती हैं
इस सबमें
बदलना रंग
अपने बदरंग सपनों का 
उन्वान  अपनी आदिम इच्छाओं का !


औरत एक कविता

कविता में औरत
फूल होती है
महकती है, उसकी महक से
महकता है संसार
आंसू होती है
ठहर जाती है संवेदना की पुतलियों में
नदी बन कल कल बहती है
अपने बहाव में बहा ले जाती है
अवरोधों और कठिनाइयो
के सारे पत्थर
हौसलें के पंखों से
नाप लेती है
महत्वाकांक्षा के सातों आसमान
करती है इजाद आठवाँ आसमान
अपने लिए
कातती है प्रेम की पूनी
बुनती है सृष्टि का अंगवस्त्र
कविता में औरत
बिठा दी जाती है
पवित्रता के शीर्ष पर
पूजी जाती है देवी बना
कविता में
जीती है वह
अपनी शर्तों पर जिंदगी
वरण करती है
मनचाही मृत्यु
और पा लेती है मुक्ति
कविता से बाहर
क्या है औरत का
अस्तित्व ..क्या है
कोई मुक्ति ....औरत के लिए
कविता से बाहर
औरत सिर्फ देह है
अपनी आत्मा को
ढूँढती हुई
कविता से बाहर
पाती है तनी हुई  भृकुटीयाँ
खींचे हुए चेहरे
कासी हुई मुट्ठियाँ
और
घबरा कर कविता में
लौट जाती है औरत



नया अध्याय

तुम्हारी नज़र से
जब खुद को पढ़ा मैंने
तो मेरे सामने
एक नया अध्याय खुला
कि पाँव के नीचे की 
जरा सी जमीन
भी हो सकती है पूरा ब्रह्माण्ड
अगर तुम्हारी हथेली मिले तो
घर की खिड़की भी
हो सकती है समूचा आकाश
अगर तुम्हारी दृष्टि मिले तो
पहन प्रकृति का मधुर संगीत
कानों में, नृत्य कर सकती हूँ मैं
लहरों पर
अगर अधरों को तुम्हारे बोल मिलें तो
सजा कर पलकों पर दुःख
हंस सकती हूँ मैं अधरों से
अगर ह्रदय को तुम्हारा
संबल मिले तो
फुनगी फुनगी लहरा सकती हूँ मैं
अमरबेल से
अगर तुम वट वृक्ष बनो तो
मैं ही हो सकती हूँ
होली दिवाली और वसंत
अगर तुम मुझमे  अपने
 इन्द्रधनुषी प्रेमरंग भरो तो
तुम्हारी नज़र से खुद को पढ़ा मैंने
तो नया अध्याय खुला
जीवन का

छुप्पन छुपायी
तुम्हारी आवाज़
हाथ पकड़ ले चलती है मुझे
बचपन की उबड़ खाबड़
टेडी मेडी बंद संकरी गलियों में
 देहरी पे बैठ
खेलती है मेरे संग
गिट्टे -चंगी चारा
छुप्पन छुपायी, गुड्डी पटोला
घर घर, पिट्ठू फोड़,
ऊंच नीच का पापड़ा
लोहा लंगर काट कटम्बर
हरा समंदर गोपी चंदर
और उठ खड़ी होती है
मेरे अन्दर से एक बच्ची
अपनी आँखे मलते
अपनी गुडिया पकडे!



पहचान

बहुत कोशिश करती हूँ
इस आवाज़ को
रंग रूप आकार
कोई नाम, कोई पहचान देने की
पर ये क्या कि
ये आवाज़
मुझसे मेरा ही
रंग रूप नाम और
पहचान  सब लिए जाती है!

संपर्क    
मीनाक्षी जिजीविषा 
892, सेक्टर 10
हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
फरीदाबाद हरियाणा 126001 


५/२ नज़दीक सिटी थाना
मोहेल्ला कजियन हिसार

हरियाणा १२५००१

E-mail: meenjijivisha892@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. १ .बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना (पहली कविता .....कि दरअसल गति से उतरते हैं हम ढलानों से .

    २. खुद को भूलना मुक्त होने की और पहला कदम है .....सार्थक कविता .

    ३. कविता में .........और कविता में औरत .....या औरत एक कविता . मुक्ति चेतना इस कविता में बात करती है . सुंदर !

    ४. सुंदर .....पर पूर्ण है स्त्री ...बिना उस नजर के भी .

    ५. हर उम्र में हमारे भीतर आँख मिचोली खेलता है बचपन .

    ६. देने से खुलती है ,पाने की राह ........पहचान भी अपवाद नहीं .


    सभी कविताओं में एक दर्शन ...गहन नारी विमर्श .

    जवाब देंहटाएं
  2. 'सिताब दियारा' ब्लॉग पर पहले भी मीनाक्षी जी कविताओं को पढ़ चुका हूँ | छिटपुट रूप से 'फेसबुक' की दीवार पर भी | और आज यहाँ 'पहली बार' ब्लाग पर भी यह अवसर मिल रहा है | कह सकता हूँ , कि इस पढने के क्रम में , मैं उनसे काफी उम्मीद करने लगा हूँ | सरल साधारण शब्दों में कविता कैसे रची जाती है , और कैसे उनसे अपने समय का सच उगलवाया जा सकता है , ये कवितायें बताती हैं | संवेदनाओं के कोमल तंतुओं के सहारे मिनाक्षी जिस तरह से एक सार्थक बदलाव का आह्वान करती हैं , वह प्रशंसनीय है | उनका रचनात्मक सफर और ऊंचाई प्राप्त करे , मेरी कामना है | उन्हें बधाई और पहली बार का आभार |

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