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अच्युतानंद मिश्र

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कवियों, दार्शनिकों और विचारकों के लिए मृत्यु हमेशा से एक ऐसा 'रहस्य' रही है जिस पर वे एक लम्बे अरसे से चिंतन करते आ रहे हैं. सभ्यता के सोपान पर आगे बढ़ते मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिए या फिर किसी को चोट पहुंचाने के लिए जब पहला पत्थर उठाया होगा तब से ही शुरू हुई हथियारों की परम्परा अब इतनी समृद्ध हो गयी है कि हम अपनी इस जीवनदायी धरती को ही हजारों-हजार बार नष्ट कर सकते हैं. एक तरफ हथियारों पर मिलियन-ट्रिलियन डॉलर खर्च करने वाले देश हैं वहीँ भूख-प्यास से बिलखते हुए तमाम देश हैं. अनजाने या पागलपन में उठाया गया हमारा एक कदम आत्मघाती साबित हो सकता है. तो क्या हमारे लिए 'मृत्यु ही सबसे बड़ी चीज़ है?' कदापि नहीं. क्योंकि जीवन के होने से ही मृत्यु का अस्तित्व है. यानी जीवन से ही सब कुछ है. हमें इसे सहेजने की कोशिशें करनी चाहिए. अच्युतानंद मिश्र ने एक लम्बी कविता लिखी है- 'मृत्यु एक बड़ी चीज है.' लेकिन ठीक इस पंक्ति के बाद ही वे प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछते हैं- 'लेकिन जीवन?' . यहीं पर कवि इस मायने में विशिष्ट हो जाता है कि उसके चिंतन के मूल में सबसे पहले जी

संध्या नवोदिता

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कवि ,अनुवादक ,व्यंग्य लेखक और पत्रकार , छात्र राजनीति में सक्रिय भूमिका ,छात्र- जीवन से सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर लेखन , आकाशवाणी में बतौर एनाउंसर -कम्पीयर जिम्मेदारी निभाई . समाचार-पत्र,पत्रिकाओं ,ब्लॉग और वेब पत्रिकाओं में लेखन..  .  कर्मचारी राजनीति में सक्रिय, कर्मचारी एसोसियेशन में दो बार अध्यक्ष .जन आन्दोलनों और जनोन्मुखी राजनीति में दिलचस्पी. स्त्रियाँ चाहें जहाँ और जिस भी समाज की हों, उनकी स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। इसीलिए उन्हें दलितों में भी दलित कहना अनुचित नहीं। हमारे बीच की कुछ कवियित्रियों ने अपनी रचनाओं में अब उन उत्पीड़नों को, उस आपबीती को बताने का साहस किया है। सन्ध्या नवोदिता वह कवियित्री हैं जिनकी रचनाओं में बिना किसी हल्ले-गुल्ले के वह स्त्री स्वर अभिव्यक्त होता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। उनमें स्वीकार का साहस है तभी तो वे यह कहने से नहीं हिचकतीं कि ' संतृप्त/ ऊबे हुए मेरे साथी पुरुष/ अब कुछ बचा ही नहीं/ तुम्हारे लिए/ जहाँ/ जिस दुनिया में /चीज़ें शुरू होती हैं/ वहीं से/ मेरे लिये ।' इस आत्मविश्वास के चलते ही संध्या और कवियित्रियों से अलग खड़ी नज