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अगस्त, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पंकज पराशर

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हमारे समय के कुछ युवा आलोचकों ने समकालीन कहानी पर बेहतर काम किया है । युवा आलोचकों में पंकज पराशर एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने शिद्दत से इस काम को शुरू किया है । इसी क्रम में पंकज ने हमारे समय की चर्चित कहानीकार अल्पना मिश्र की कहानी 'स्याही में सुरखाब के पंख' पर यह विस्तृत पड़ताल की है. पिछली पोस्ट में आपने अल्पना के उपन्यास अंश पढ़े । इस पोस्ट में  पहली बार पर पढ़िए पंकज पराशर का आलेख 'पितृसत्ता, स्त्री और समकालीन जीवन यथार्थ । '        पितृसत्ता, स्त्री और समकालीन जीवन-यथार्थ (संदर्भः अल्पना मिश्र की कहानी ‘ स्याही में सुर्खाब के पंख ’ ) समकालीन कहानी पर यदि हिंदी आलोचना की गुरु-गंभीर और पारंपरिक भाषा में (जिसे उपहास में प्रायः ‘ प्राध्यापकीय आलोचना ’ कहा जाता है और संयोग से यह लेखक भी प्राध्यापक नामक जीव ही है) बात शुरू की जाए, तो कुछ इस तरह शुरू कर सकते हैं-बीसवीं सदी के अंतिम दशक के उत्तरार्द्ध से हिंदी कहानी में जिन कथाकारों का प्रवेश होता है, उन्होंने उदारीकरण के बाद पैदा हुए नए जीवन-यथार्थ की संशिलष्टता को न केवल पूरी गहराई और संवेदनशीलता

अल्पना मिश्र

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    हिन्दी कहानी के क्षेत्र में अल्पना मिश्र ने थोड़े ही समय में अपनी एक मुकम्मल पहचान बना ली है। अभी-अभी अल्पना ने अपना पहला उपन्यास लिख कर पूरा किया है। इस उपन्यास में इन्होंने उस समस्या को बड़ी खूबसूरती से उठाया है जो हमारे समय का सच तो है लेकिन जिस पर बात करना आम तौर पर वर्जित माना जाता है। अल्पना ने इस उपन्यास के माध्यम से यह दुस्साहस किया है और अपने तरीके से बखूबी किया है. कहीं पर भी लाउड हुए बिना अपनी बातें कह देना अल्पना की खूबी रही है, जिसका निर्वहन इस उपन्यास में भी इन्होने बखूबी किया है। शिल्प की छटा जो अल्पना की खूबी है वह तो आप इस उपन्यास में देखेंगे ही ।   तो आइए पढ़ते हैं आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य अल्पना मिश्र के उपन्यास - ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ का एक अंश ।  मनसेधू , तोरा नगर बासंती..... (आत्मकथा -3)     एक बसंती पीला, खिलने खिलने को होता गुलाब मेरे हाथ में था। ओस कण की केवल एक झिलमिलाती बूंद उसकी हेम काया पर थिरक रही थी। जरा सा असावधान हुई कि यह खो जाएगी। मैं इस कण के खो जाने की संभावना को बचा ले जाना चाहती हूँ। कम से कम अभी या कम से कम जब तक मैं बचा पा