संदेश

नवंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शिरोमणि महतो के कविता संग्रह 'भात का भूगोल' की समीक्षा:जेब अख्तर

चित्र
  युवा कवि शिरोमणि महतो का कविता संग्रह 'भात का भूगोल' अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है जेब अख्तर ने। लीजिए प्रस्तुत है यह समीक्षा।      आम आदमी की भाषा में आम आदमी की कविताएं जेब अख्तर भात का भूगोल शिरोमणि महतो का तीसरा कविता संग्रह है। इसके पहले उनके दो कविता संग्रह- ‘पतझड़ का फूल’ और कभी अकेले नहीं आ चुके हैं। मुझ तक पहुंची,  दूसरे संग्रह की कोई कविता मुझे बहुत अच्छी तरह से याद नहीं है। लेकिन उसे पढ़ते हुए उन कविताओं के प्रभाव में आए बिना नहीं रह सका था। मैं अपनी ही बात कहूं तो ऐसा मेरे साथ बहुत कम होता है। एक तो कविताएं, दूसरे अखबारी नौकरी के दरम्यान पढ़ी जाने वाली अखबारी कविताएं, इन दोनों ने मिल कर कविता के प्रति मुझे बहुत नृशंस बना दिया है। यह सब यहां लिखना इसलिए जरूरी लग रहा है क्योंकि स्थितियों के अनुसार पाठ के अर्थ बदलते रहते हैं। खैर,  शिरोमणि की कविताओं का आग्रह मेरे मन में हमेशा रहा है। इसका कारण है इन कविताओं की सादगी। चाहे वो भाषा हो, शब्दों का चयन हो, या कविता लिखने के तरीके का। शिरोमणि बिना किसी आडंबर, शब्दों के मोहजाल

लेखक की गरिमा और पुरस्कार की प्रतिष्ठा का प्रश्न

चित्र
(संदर्भ: लमही सम्मान)   भालचन्द्र जोशी अभी हाल ही में लमही सम्मान को ले कर साहित्य जगत में काफी बावेला खड़ा हुआ था। फेसबुक पर इसको ले कर तमाम बातें और बहसें हुईं। कुछ समय बाद यद्यपि यह बावेला ठंडा पड़ गया लेकिन इस मसले ने लेखकीय गरिमा जैसे महत्वपूर्ण सवाल को हमारे सामने उठा दिया। इस पूरे मसले पर कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने यह विचारपूर्ण और बहसतलब आलेख लिखा है जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।         पिछले कुछ समय से हिन्दी साहित्य का परिदृश्य इतना उग्र और आक्रामक हो गया है कि असहमति का अर्थ शत्रुता से आगे बढ़ गया है। इस हद तक कि असहमत को भावनात्मक स्तर पर रक्तरंजित और जख्मी देखने पर ही एक क्रूर तुष्टि मिलती है। साहित्य के लिए जरूरी समझी जाने वाली विनम्रता पर हाँका लगा हुआ है। असहमति के तर्क की जगह एक उग्र तेवर आकार ले रहा है। यह भी पूरे मन से प्रयास हो रहे हैं कि उग्रता को सच के तर्क के विकल्प में प्रतिष्ठित किया जाए। हाल ही में लमही सम्मान मिलने की घोषणा और सम्मान प्रदान किए जाने के बाद तक एक घमासान-सा मच गया है। किसी भी सम्मान या पुरस्कार का किसी को भी मिलना या न मिलना अ

रमाकान्त राय

चित्र
आज पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली साहित्यिक प्रतिक्रियाओं को भले ही हल्के में लिया जाता हो लेकिन इसका एक आशय हुआ करता है. समीक्षा कैसे की जाती है और रचनाओं पर कैसे बेलाग प्रतिक्रिया व्यक्त की जानी चाहिए इसके बारे में हम मार्कंडेय की इसी तरह की उन टिप्पणियों को पढ़ कर जाना सकते हैं, जिसे उन्होंने कभी हैदराबाद से छपने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका 'कल्पना' नामक पत्रिका के लिए लिखा था. ये टिप्पणियाँ अब एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं. इसी पुस्तक पर एक सारगर्भित समीक्षा लिखी है युवा आलोचक रमाकान्त राय ने.   चक्रधर की साहित्य धारा पत्र पत्रिकाओं के लिए पाठक का कितना महत्त्व है- इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगभग हर पत्र-पत्रिका में पाठकों के पत्र का एक स्तम्भ हुआ करता है। समाचार पत्र तो इसे बाकायदा सम्पादकीय पन्ने पर प्रकाशित करते हैं। सम्पादकीय पन्ने को पाठकों के पत्र के बिना अधूरा माना जाता है। पाठक के पत्र को पढ़ कर हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि पत्र कितना गंभीर है। वह किस तरह के मुद्दों को प्राथमिकता देता है। मेरा आशय यह है कि पाठकों की प्रतिक्

चन्द्रकान्त देवताले से मनोज पाण्डेय की बातचीत

चित्र
चन्द्रकान्त देवताले ऐसे कवि हैं जिनका व्यक्तित्व निर्विवाद है। वे ठेठ कवि ही हैं । खुद भी वे अपने को पूरावक्ती कवि मानते हैं । एक ऐसा कवि जो पूरी निर्भीकता से उनके साथ खड़ा है जिनके साथ कोई खड़ा नहीं । आज जब स्त्रियों के प्रति हमारा समाज असहिष्णु और हिंसक दिखाई पड़ रहा है वैसे में यह अनायास नहीं कि देवताले जी की कविताओं में स्त्रियाँ भरी पड़ी हैं । और भरा पड़ा है देवताले जी की कविताओं में स्त्रियों के प्रति अपार आदर, प्यार एवं स्नेह । ऐसे ही निर्भीक व्यक्तित्व कवि के साथ बात की है युवा कवि और आलोचक मनोज पाण्डेय ने। तो आईए पढ़ते हैं यह बातचीत ।            मनोज पाण्डेय - एक कवि के रूप में कविता पर बात शुरू करने के लिए आप किन सन्दर्भों को जरूरी मानते हैं? चंद्रकांत देवताले - मनुष्य, धरती, पर्यावरण और हमारा समय। जिसमे हम जीवित हैं, कैसे जीवित है, हमारे संकट, हमारा संघर्ष, और हमारे सपने। 'हमारे’ से यहाँ मेरा आशय साधारण, सामान्य आदमी से है। मेरे लिए यही जरूरी सन्दर्भ हैं।   मनोज पाण्डेय - 1973 में आपका पहला संग्रह आया और 2012  में नया संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’आया है। इस 

जीतेन्द्र कुमार की कहानी 'जकड़न'

चित्र
जातिवादी जकडन से घिरे प्यारे लाल चौबे खेती कराने का जब उपक्रम करते हैं तो उनके सामने एक-एक कर तमाम समस्याएं आती हैं । इस कहानी के माध्यम से जीतेन्द्र कुमार न केवल जातिवादी जकड़न बल्कि कृषिगत जकड़नों की भी बात करते हैं । आधुनिकता की मार झेल रहा किसान किन द्वंदों से गुजर रहा है इसकी भी पड़ताल जीतेंद्र जी ने इस कहानी में की है । तो आईये पढ़ते हैं जीतेंद्र जी की यह कहानी ।       जकड़न       उस दिन जनक मिस्त्री प्यारे लाल चौबे से रामचंदर बाबा के बारे में ओरहन देने आरा आये। चौबे जी के आवास पर आये तो पता चला कि वे गाँव गये हैं , कृषि वैज्ञानिक भवेश जी और पत्रकार अमन भार्गव के साथ। जनक मिस्त्री मोहल्ले से बाहर होने वाले थे कि डॉ0 अशोक सान्याल के क्लीनिक के निकट चौबे जी गाँव से लौटते दिखे उनको। औपचारिक दुआ-सलाम के बाद चौबे जी ने जनक मिस्त्री से पूछा , ‘‘ किधर चले जनक , हम तो गाँव हीं से आ रहे हैं ?  कोई समस्या है ?’’       प्यारे लाल चौबे के साथ दो अन्य शहरियों को देख कर जनक मिस्त्री संकोच में पड़ गये। बात भी ऐसी थी कि सरे-आम चौक-चौराहे पर कहने में उनको हिचकिचाहट हो रही थी। व