रवि नन्दन सिंह की कविताएँ



कवि इसी मायने में औरों से अलग होता है कि वह वस्तुस्थिति का आंकलन वस्तुनिष्ठ ढंग से करने का प्रयास करता है. इसीलिए वह प्रायः बनी बनायी मान्यताओं से सहमत नहीं हो पाता और उसका स्वर विद्रोही प्रकृति का लगता है. लोकतन्त्र भी हमारे भारत के लिए ऐसी ही मरीचिका साबित हुआ है जिसमें आम व्यक्ति उसी तरह का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है जैसा कि वह पहले जीता चला आया था. रविनन्दन सिंह ऐसे ही कवि हैं जो आज की हकीकत को अपनी कविताओं में स्पष्ट रूप से उकेरने का प्रयास कर रहे हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत है युवा कवि रवि नन्दन सिंह की कविताएँ


1. जंगल में लोकतंत्र

रेत पर लिखी इबारत की तरह
राजशाही का अन्त हो गया
यातना भरी प्रतीक्षा के बाद
आज़ादी मिली
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण
चारों ओर बहने लगी
जंगल में लोकतंत्र की बयार
फिर भी सबकी आँखों में
अदृश्य भय व्याप्त है
जंगल का वातावरण
इतना  विषाक्त है।

आज भी जंगल का राजा सिंह होता है

क्योंकि उसके दाँत तीक्ष्ण हैं
नाखून खंजर की तरह पैने हैं
उसके नख-दन्तों की लम्बाई
क्रमशः बढ़ती गयी है
आजादी के बाद
किसी का कर सकता है शिकार
जंगल का विधान
उसकी जरूरत से ढलता है
सूरज उसी की आग से जलता है।

एक दिन आएगा रामराज्य
सिंह, मेमने एक घाट पर पीएंगे पानी
दोनों की एक होगी कहानी
दीवारों पर चिपके
भ्रामक इश्तहारों की तरह
गारण्टी देने वाला यह ‘यूटोपिया’
आज भी मथता है
मेमनों की पूरी कौम को
और तोड़ देता है
राष्ट्र के निरर्थक मौन को।

कोरा आश्वासन देते हुए
गुजर जाती है पूरी पीढ़ी
धीरे से धमा देती है
इन्द्रजालिक मुस्कानों का पुलिन्दा
सोयी हुई अगली पीढ़ी को
जो आज तक नहीं समझ पायी
कि सांप कैसे निगल जाता है
एक पूरी सीढ़ी को।

सिंह को स्वराज मिला सुराज मिला
किन्तु मेमने आज भी
तलाशतें हैं इसका अर्थ
एक दूसरे की प्रश्नवाचक नजरों में
पूछते हैं एक बुनियादी सवाल
उनकी इच्छा कब शामिल होगी
जंगल के विधान में
पंक्तियों के बीच खुरचते हैं
शायद मिल जाए अपनी जगह
देश के संविधान में।

आज भी ऊॅंचाई पर खड़ा सिंह
पानी गंदा करने का
आरोप लगाता है मेमनों पर
उन्हें खींच लेता है कटघरे में
बिना किसी सुनवाई के
देता है मृत्युदण्ड बिना किसी जाँच के
मेमनों के सारे स्वप्न पिघल जाते हैं
बिना किसी आंच के।

गीदड़ों की पीढ़ी सदियों से
हिलाती रही है पॅूंछ सिंह के सामने  
आज भी हिला रही है
कल भी हिलाएगी
कौम की नपुंसकता ओढ़
सीख रहा है नन्हा गीदड़
पॅूछ हिलाने का हुनर
सीख रहा है सलीका बूढ़ी पीढ़ी से
सब कुछ सहन करने का
सब कुछ वहन करने का
फिर भी मौन रहने का।
एकत्र हो गये हैं लोमड़
सिंह के प्रभामण्डल के चारों ओर
जारी है प्रशस्तिवाचन का दौर
धुंधलके में चल रहे
दौरे-जाम में तय हो चुका है
कल कौन बनेगा शिकार
किसके सिर फोड़ा जाएगा
अपराध का ठीकरा
अंधेर नगरी के चौपाल में
होने वाले नाटक का
प्रत्येक अध्याय
लिखा जा चुका है
फांसी के दृश्य में
प्रकाश-अंधकार का प्रबन्ध
किया जा चुका है
सूत्रधार अब भी मौन है
यह गोबर्धनदास कौन है।

लकड़बघ्घे ले रहे हैं दुम दबा कर
पद और गोपनीयता की शपथ
मानो दुम दबाना ही
समर्पण की गारण्टी है
जूठन खा कर विद्रूप हुआ चेहरा
सब कुछ हजम कर लेने के बाद भी
पिचका हुआ पेट
लार टपकाती जिह्वा की बेचैनी
समझी जा सकती है
अवसर पा कर यही जिह्वा
सिंह के तलवे चाटेगी
शिकार के अवषेशों को चुन-चुनकर
अपनी पूरी कौम में बाँटेगी।

सिंह के इशारे पर उसके आदमी
दबा देते हैं लोकतन्त्र की आवाज
मिटा देते हैं समस्त निशानियाँ
विकल्प की, संभावना की
काट देते हैं उठते हाथ
बुझा देते हैं क्रांति की मशाल
कदम ताल करते हुए
गुजर जाते हैं बस्तियों से
लगा देते हैं ताला जुबानों पर
उड़ा देते हैं धज्जियां इन्कलाब की
धारदार नखदंतो से
कर देते हैं भ्रूण हत्या
पनपते हुए ख्वाब की।

जिसमें जितना बड़ा दाग है
उसका कालर उतना ही साफ है
बदल जाती हैं मुट्ठियां
गांधी की तस्वीर के ठीक नीचे
मुखौटों की एक लम्बी कतार है
सभी कुर्सियों के पीछे
जब रात में उतारे जाते हैं मुखौटे
भयानक एवं विद्रूप चेहरों को देख
टूट जाता है आइना
फट जाती हैं दीवारें
आज जीवन एवं जगत के
सारे क्रिया-व्यापार
चल रहे हैं मुखौटों के सहारे।

हिजड़ों की टोली गाती है तराना
सिंह के विजय जुलूसों में
बजाती है तालियाँ
हाय-हाय की तर्ज पर
चुनावी उत्सव में
पूरी कौम अंधी हो जाती है
सोची-समझी फितरत से
अलग-अलग समुदायों में
बाँट दी जाती है
बुद्धिजीवी बंद कमरों की बहस में
अपनी भूमिका की इति मान लेते हैं
नपुंसक बुद्धिजीविता का कवच ओढ़
यथास्थिति स्वीकार कर लेते हैं।

सिंह को तिलक लगाने की होड़ में
मेमनों की पूरी कौम भूल जाती है
कि एक साजिश  से
उनका इन्कलाबी बैनर
बदल दिया गया है
उनके नारे चुरा लिये गये हैं
और उनकी मशाल बुझा दी गयी है।
          
जंगल की संसद
आज भी हल खोज रही है
भूख,प्यास,गरीबी,बेकारी का
किन्तु कोई समाधान नहीं मिला
मेंमनों की बेबसी एवं लाचारी का।

आज के अखबार की
सबसे बडी खबर है
कि जंगल में लोकतंत्र आ चुका है
सिंह के सिंहासन को मेंमने सूँघ रहे हैं
ये अलग बात है कि
आजादी के नशे में
वे आज भी ऊंघ रहे हैं।


                   

2 . क्षर से अक्षर की ओर


पर्वत की चोटी पर टिका
रिक्त बूढ़ा बादल
करता है आत्मालाप
कि जब कंधे लटक जाते हैं
देह को संप्रेप्रेषित करने की भाषा
बदलनी पड़ती है।

जब बढ़ जाती है अन्तस की पीड़ा
चाल का समायोजन करने के लिए
नयी विधा की जरूरत होती है।

जब आँखों के सामने के दृश्य
आच्छादित होने लगते है धुंध में
तब दृष्टि संकुचन से बचने के लिए
नये दृष्टिकोण की तलाश होती है।

जब उलझने लगते हैं सपनों के क्रम
शुरू हो जाती है मरीचिका दौड़
तब जीवन का संतुलन बनाने के लिए
आत्मसंयम की अपेक्षा होती है।

जब रात आने के पहले ही
रात गहराने लगती है
तब जीवन की सम्पूर्ण यात्रा
पर्वत और घाटी की सैर हो जाती है

पथिक अपनी देह को उठा कर
चोटी पर पहॅुंचाता है और पुनः
लुढ़का देता है घाटी की ओर
विकसित कर लेता है नया व्याकरण
गढ़ लेता है नया मुहावरा
सब कुछ वहन करने का
सब कुछ सहन करने का
फिर भी कुछ न कहने का।

प्रतिदिन देखता हूँ
एक नन्हा बादल
अनुभव की अंगुली पकड कर
दूर तक चला जाता है
सीख जाता है गरजना और बरसना
जब बूढा बादल सबकुछ बरस कर
रिक्त हो जाता है
नन्हा बादल धीरे से
अपनी अंगुली छुड़ा लेता है
खो जाता है अशेष विस्तार में।

उड़ा ले जाती है हवा
बूदें बादल को अपने साथ
कर देती है अवस्थित
किसी चोटी के सहारे
जहां वह करता है प्रतीक्षा
चोटी के उस पार जाने की
अर्थ से आशय की ओर                                                                                                                                                                                                                                                  
क्षर से अक्षर की ओर


3. ठहरा हुआ गाँव

द्वीप की तरह ठहरा हुआ गाँव
टिका है संशय, अटकलों, संदेहों पर
करता है वक्त से प्रश्न
जिससे मिलने वाले उत्तर की प्रतीक्षा में
जिन्दगी रूकती है सरकती है ठहरती है
फिर आगे बढ़ जाती है
केंचुए की तरह।

गाँव रखता है
अपनी  एक मुट्ठी में प्रश्न
दूसरी मुट्ठी में विस्मय
यहां सुबह आस से शुरू होती है
और शाम अवसाद पर खत्म होती है
उसकी आस्था व्यक्त करती है
अनेक सार्वभौम वक्तव्यों को
जो जीवन जगत शुभाशुभ पाप पुण्य
आत्मा ब्रह्म के विषय में होते हैं
जिसके जवाब में
अनेक सवाल अपने आप खड़े होते हैं।
गाँव की गति का पैमाना है
चेहरे की झुर्रियां, कमर का झुकाव
बालों की सफेदी और
बूढ़े की लाठी का घिस जाना ही
क्योंकि जैसे जैसे झुर्रिया मोटी होती हैं

कमर झुकती है बाल सफेद होते हैं
और लाठी घिसती है
उसी अनुपात  में
आदमी  का अनुभव घिसता है
गाँव अपनी आवश्यकता
एवं राजधानी के आश्वासन के बीच
बार बार पिसता है।
गाँव  हमेशा
एक भ्रम का शिकार होता है
उसकी जिन्दगी लम्बी भले न हो
उसकी जिन्दगी बड़ी है
अपनी जमीन पर खड़ी है
यदि कोई उसे छोटा सिद्ध करता है
तब वह कहता है कि
दुनिया की हर बड़ी चीज को
छोटे पैमाने से ही मापा जाता है
जैसे जीवन का लम्बा वक्त
क्षणों में ही काटा जाता है।

गाँव अब सभ्य हो चुका है
जब बूढ़ा खांसता है तब भी
बहुएं सजग नहीं होंती
नीम की डार में लचक नहीं होती
कजरी गांव छोड़ गयी
नदी दामन थी गांव का
अपना रूख मोड़ गयी
गीत नृत्य हास लास्य
ढोल मजीरा चैता फाग
अब पागलपन कहलाता है
व खुद को चौपाल में नहीं
अब बाज़ार में बहलाता है।

आज गांव की दरार में
प्रत्येक घर फंसा है
अलगू हो या जुम्मन
बदलते वक्त ने सबको डसा है
रिश्तों के बीच एक ‘डैश’ है
पंच-पंचायत, हुक्का-चौपाल
नीति -प्रीति, धर्म-समाज
सारे व्यापार पूंजी से चलते हैं
गाँव में इंसान नहीं
अब केकड़े बसते हैं।
              

4. खण्डहर

शहर के कोलाहल से दूर
एकान्त साधना में लीन खण्डहर
अपने अतीत में जीता है
वक्त की तलवार से खण्डित दामन में
अपनी यादों के बेलबूटे पिरोता है
यादों के आवेग में हाथों से
कमर को सीधा करने की
कोशिश करता है
ताकि पूर्व की भाँति
खड़ा हो सके सीधा, तन कर।

यह रोज की दिनचर्या है
जब सूरज लुढ़क जाता है
क्षितिज की गोद में
जब पक्षी लौटने लगते हैं
अपने घोसलों की ओर
जब अपने अलाव बुझा कर
चादर तान लेते है प्रवासी मजदूर
खण्डहर की नजरें ठहर जाती हैं
सुदूर अतीत में।

वह आज भी महसूस करता है
रानियों के पाजेब की खनक
अश्वटापों, तुरही, नगाड़ों की आवाज
एवं नदी की स्वर लहरियों को।
                      
अपने  चेहरे पर  उभर  आयीं
मोटी झुर्रियों पर रात की स्याही पोत कर
नदी के नीरव जल से धोता है
यादों के आइने में
अपना चेहरा महसूस करता है
जिस पर वक्त के थपेड़ों ने
छोड़ रखा है गहरा निशान।

इतिहास से गुजरते हुए
पत्थर बन चुका खण्डहर
जब नदी के जल में झाँकता है
कंगूरों की हजारों दीपमालाएं
लहरा उठतीं हैं नदी के जल में
मानों कोई रानी उस पार से आती
बांसुरी की आवाज को सुनकर
अपनी सहेलियों के संग
अठखेलियां करते करते
ठहर गयी हो समय के साथ।

उन तरंगित दीपमालाओं में
अतीत के प्रश्नों को खोजता
खण्डहर सांस रोक कर खड़ा है
ठहरे वक्त की तरह अथवा
अशान्त झील की तरह, हतप्रभ।

जब चाँदनी रात में नानी को घेर कर
बैठ जाते है नन्हें-मुन्ने
आग्रह करते हैं किसी कहानी  की
बेताल की या राजा-रानी की
खण्डहर मुस्कराता है कि
कहानी चाहे जिसकी होगी
मुख्य पात्र वही होगा
इतिहास की दन्तकथाओं का
साक्ष्य एवं सूत्रधार वही होगा।

वर्तमान की उपेक्षा का शिकार खण्डहर
आज भी अपने घावों को धोता है
अपने अतीत को याद करते हुए
घुटनों में सर छिपा कर
हर रात रोता है
इतिहास के आँसू पीता है
खण्डहर अतीत में जीता है।

                  

5.  अपना  चेहरा
                 
अपनी खीझ निकालने
गालियाँ देने से अच्छा है
अपना चेहरा तलाशना
जो गिर पड़ा है भीड़ में
रौंदा जा रहा है
वक्त के सख्त खुरों से।

जंगल से गुजरते हुए
जब रास्ते का भ्रम हो
और कोई निशान
न छोड़े गये हों वृक्षों पर
ऐसी स्थिति में
विस्तृत जंगल के बीच
वृक्ष बन जाना बडी हार होगी
कोई बहाना नहीं चलेगा।

किन्तु आज समाज के
सबसे बड़े कारोबार
बहानों से चलते हैं
जहाँ हर बहाने के पीछे
एक प्रपंच है और
हर प्रपंच के पीछे
एक बड़ी भीड़ खड़ी है
स्वयं के चेहरे से अपरिचित एवं अनजान।

बहानों में जीना आसान होता है
फिर भी यह कह देना कि
समान जंगल बन चुका है
एक जल्दबाजी होगी
समाज को जंगल कहना
स्वयं को भी कटघरे में खड़ा करना है।

सच तो यह है कि
जब चारों ओर अंधेरा घिर जाय
अपनी झोपड़ी में एक दीप जला कर
अंधेरों में खोए स्वत्व को
पुनः पाने जैसा होगा।

यदि हर व्यक्ति दीप बन जाय
तो समाज रोशन हो जाएगा
यदि हर व्यक्ति
अपने हिस्से की सफाई कर दे
पूरा रास्ता साफ हो जाता है
हर व्यक्ति के पास आँख हो
तो दीवारे आइना बन जाती हैं
आसान हो जाता है
अपना चेहरा पहचान लेना
जो भीड़ में कभी गिर पड़ा है।



6 . कुरूक्षेत्र में हर बार

एक रक्तरंजित द्वंद्व के पश्चात
शान्त एवं सहज हो जाएगा परिवेष
विक्षोभ के समूचे साक्ष्यों को मिटा कर
सन्नाटा बुन रही होगी मकड़ी
तन्तुओं में पसरी शान्ति ऐसी होगी
मानों कुछ ही क्षण पहले
कुछ घटित नहीं हुआ था परिवेश में
अक्सर क्रान्ति घटित होते-होते
ठहर जाती है इस देश में।

फिर शुरू हो जाएगी
एक खोखली बहस
जिसकी धार भोथरी होती जाएगी
समय के साथ
शेष रह जाएगी एक देशज कहानी
एक था राजा एक भी रानी।

सच तो यह है कि
हरी नहीं हो सकती
पत्थर के नीचे दबी दूब
चाहे सींचती रहे नदी सदियों तक
दूब को प्रतीक्षा है

वक्त के रोशनदान से
उतरती रोशनी का
रोका गया है जिसका रास्ता
बाजू की बहुमंजिली इमारत से
अब हवा और पानी भी
कैद हो जाते हैं मुट्ठियों में
मुर्दों को पिलाया जाता है
देशप्रेम घुट्टियों में।

फिर वही होगा
जो सदियों से होता आया है
झाडि़यों के पीछे छिपा भेडि़या
करता रहेगा शिका मेमनों का
करता रहेगा अट्टहास असुरबल
छल-छद्म के सहारे
कांपता रहेगा इन्द्र
नपुंसत्व के कवच में दुबक कर
बिकता रहेगा हरिश्चन्द्र चौराहों पर
बन्द मुट्ठी हमेशा भारी पड़ेगी
हथेली पर।

सदियों से
नखदंत ही तय करते हैं कि
जंगल का राजा कौन होगा
कौन हँसेगा, कौन आँसू बहाएगा
जीवन के कुरूक्षेत्र में
हर बार अभिमन्यु ही मारा जाएगा।

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सम्पर्क -
मोबाईल - 09454257709
ई-मेल -singhravi.ald@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. आज के हालत में बहुत बढ़िया कविताएं हैं। खण्डहर, अपना चेहरा, कुरक्षेत्र में हर बार झकझोर देने वाली कविताएं हैं।
    चित्र भी बहुत बढ़िया हैं।
    शाहनाज़ इमरानी

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