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अस्मुरारी नंदन मिश्र का आलेख 'ईदगाह : एक पुनःपाठ'

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    प्रेमचंद हमारे वे पुरोधा हैं जो बार-बार याद आते हैं. हिन्दी साहित्य को पढने वाला शायद ही कोई ऐसा होगा जो प्रमचंद से अपरिचित होगा. दरअसल हमारे आधुनिक कहानी-साहित्य की शुरुआत ही प्रेमचंद से होती है. आम जीवन के विविध प्रसंगों को जिस तरह उन्होंने अपनी कहानी का विषय बनाया है, वह हमें बरबस ही अपनी लगती हैं. होरी की मुसीबतें आज भी बढ़ी ही हैं. हामिद जैसा बच्चा जो गरीबी में जन्मा और पला-बढ़ा होता है, मेले से अपने लिए कोई खिलौना नहीं बल्कि अपनी दादी के लिए चिमटा लाता है. दरअसल वे परिस्थितियाँ ही होती हैं, जिनके अनुसार हम सोचने के विवश होते हैं. गरीबी का दंश झेल रहे बच्चे अपने जीने के लिए संघर्ष करते सड़कों किनारे चाय देते, खाना खिलाते या बर्तन साफ़ करते आज भी दिख जाएंगे. प्रेमचंद इसीलिए आज भी प्रासंगिक हैं कि वे परिस्थितियाँ कमोबेस आज भी जैसी की तैसी बनी हुई हैं, जो उनके समय में थीं और जिनको उन्होंने अपनी कहानी का आधार बनाया था. युवा कवि अस्मुरारी नंदन मिश्र, ने प्रेमचंद जयंती के अवसर पर पहली बार के लिए एक आलेख लिख भेजा है. प्रेमचंद को आज इकतीस जुलाई के दिन विशेष तौर पर याद करते ह

मदन कश्यप का आलेख 'कविता के पचास वर्ष'

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(चित्र : मदन कश्यप) हिन्दी के जाने-माने कवि मदन कश्यप का जन्म  बिहार के वैशाली जिले में 29 मई 1954 को हुआ ।   मदन जी की प्रमुख कृतियाँ हैं  - गूलर के फूल नहीं खिलते (1990), लेकिन उदास है पृथ्वी (1993),नीम रौशनी  में (2000), कुरुज, दूर  तक  चुप्पी वर्ष 2009 में इन्हें शमशेर सम्मान प्रदान किया गया ।     यह वर्ष मुक्तिबोध के निधन का पचासवां वर्ष है । मुक्तिबोध के निधन के वर्ष से लेकर आज तक हिन्दी कविता ने भी अपने प्रस्थान के पचास वर्ष पूरे कर लिए हैं। हिन्दी कविता के इस सफर का एक मूल्यांकन कर रहे हैं हमारे समय के महत्वपूर्ण और वरिष्ठ कवि मदन कश्यप । यद्यपि यह आलेख संशोधित प्रारूप में बया के अप्रैल-जून 2014 अंक में प्रकाशित हो चूका है । लेकिन पहली बार पर हम इसे उस सम्पूर्णता में प्रस्तुत कर रहे हैं जैसा कि मदन जी ने अपने मूल प्रारूप में लिखा था ।   कविता के पचास वर्ष मदन कश्यप 27 मई को भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के निधन के 50 वर्ष पूरे हो गए , इसी वर्ष 11 सितंबर को मुक्तिबोध के निधन के भी पचास वर्ष हो जाएँगे। पिछले पचास वर्ष की हिंदी क