आशीष नैथानी की कविताएँ


ज़माना चाहें जहाँ  जाए मनुष्यता कायम रहेगी। तभी तो इरोम शर्मिला लगभग चौदह वर्षों से अपने राज्य में 'ए एफ एस पी ए' क़ानून के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही कर रही हैं और हैदराबाद के  युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर आशीष नैथानी इरोम के समर्थन में कविताएँ लिख रहे हैं. स्त्रियों के खिलाफ हिंसा खासतौर पर एसिड फेंके जाने की घटनाओं के मद्देनजर आशीष की कविता 'अम्ल और क्षार' हमारा ध्यान हमारे ही  के दिमाग में सुरक्षित उस अम्ल की तरफ ले जाती है जो मुख्यतः सारी दिक्कतों की  वजह है. इस कविता में आशीष का ट्रीटमेंट हमें चकित करता है. तो आइए पढ़ते हैं कुछ इसी मिजाज  आशीष नैथानी की कविताएँ।   .  

माफ़ करना इरोम
(मणिपुर की लौह-महिला इरोम शर्मीला की १४ वर्ष लम्बी न्यायिक हिरासत समाप्त होने पर)

माफ़ करना इरोम
कि तुम ऐसे देश में पैदा हुई 
जहाँ अपने ही रक्षक 
अपनी गोलियों पर 
अपने लोगों के नाम लिए घूम सकते हैं 

जहाँ अधिकारों को मिली है विशेष होने की छूट 
जहाँ के नियम मजदूरों के खून के धब्बों से नहीं बदलते
किसानों की मौतें सिर्फ सुर्खियाँ रहती हैं

जहाँ सफेदपोशों की सुविधाओं का रखा जाता है पूरा ख़याल 

इरोम
तुम्हारा यह वनवास भी
हम कुछ दिन में भूल जाएँ तो हमें माफ़ करना, 
क्योंकि यहाँ याद रखना कोई उपलब्धि नहीं है 

तुमने ऐसे अमनपसन्द लोगों की लड़ाई लड़ी
जो ढोना चाहते थे शान्ति अपने कन्धों पर,
जो रक्षकों से रक्षा की नाजायज उम्मीद में थे 

तुम्हारा जुर्म यह भी कि
तुम अपने प्राण लेना चाहती थी
और तुम्हारे मृत प्राणों से उपजा तूफ़ान 
सरकार के प्राण सुखा सकता था 

माफ़ करना कि पूरा मुल्क देखता रहा तमाशा 
अख़बारों में खबर पढ़-पढ़ कर 
कुछ बेसुरी आवाजें निकालता रहा 
जबान तालू से सटा कर
साल दर साल गिनता रहा 
ग्यारह बारह तेरह और चौदह बरस तक 
क्योंकि यहाँ, वहाँ से हालात कभी न रहे 

इरोम 
तुम्हारी एक ही तस्वीर दीखती है हर जगह 
अखबार और टेलीविजन पर 
जिसमें लगी होती है एक नली नाक के ऊपर 
और पीछे एक पीली मुस्कुराती सूरत 
जिसकी आँखों के पास लुढ़कते हैं दो-एक आँसू 

इन आँखों के सपनों में क्या सिर्फ गोलियाँ आती होंगी?

जिस उम्र में स्वप्न चढ़ रहे होते हैं आकाश 
कदमों से नाप ली जाती है धरती,
ये क्या हठ लिए बैठ गयी तुम ?
   
‘मालोम’ ने भर दिया है तुम्हारी नसों में लोहा
जो धधकता है हर घडी
मजलूमों की पीड़ा की ज्वाला से 

तुम्हारा यह मौन संघर्ष
उन लाखों लोगों को सुकून की छाँव देता है 
हौसला देता है जीने का
लड़ने का विश्वास 
होने का लोकतान्त्रिक अहसास 

उन सभी की एक ही मुखर आवाज़ है 
‘इरोम चानू शर्मीला’ |




अम्ल और क्षार 

रसायन की कक्षा में पढ़ा था
अम्ल और क्षार के बारे में 
इनकी प्रकृतियों का अध्ययन किया 
जाना कि दोनों धुर विरोधी हैं

श्रीप्रकाश डिमरी जी जब रसायन पढ़ाते
तो पसीने से माथा तर-ब-तर हो जाता 
पसीने के अम्ल और क्षार की जानकारी हमें कभी नहीं मिली 

प्रयोगशाला में सभी अम्ल जलमिश्रित रहते
ताकि भावी वैज्ञानिक 
जोश में न कर दें कोई उलजुलूल प्रयोग,
कभी-कभी ये अम्ल कपड़ों पर गिरते 
और जले का दाग उत्पन्न कर देते 

अभी अभी...

टी वी पर चल रही है ब्रेकिंग न्यूज़
कि रेलवे स्टेशन पर एक असफल प्रेमी ने 
एक लड़की के चेहरे पर उड़ेल दिया कुछ अम्ल, 
लड़की अस्पताल में तड़प रही है 
वह मनचला फरार है 
पुलिस तलाश कर रही है
मैं सोच रहा हूँ दिमाग में बने इस अम्ल के बारे
बच्चे प्रयोगशाला में फिर से प्रयोग कर रहे हैं
जलमिश्रित अम्लों से अभी भी जले के दाग बन रहे हैं
सोशल मीडिया पर बहस तेज है
दुनिया में क्षारों की घोर कमी महसूस हो रही है
और 
डिमरी जी उसी मेहनत से रसायन पढ़ा रहे हैं |


शेष

नदियों में जल नहीं बचा
दरख्तों पर नहीं बचे फल-फूल   
फलों में स्वाद
फूलों में महक नहीं बची
धरा पर नहीं बचा धैर्य 

नहीं बची हाल पूछती गौरैया
जुगनू, तितलियाँ
पहाड़ों पर हिमनद
सुदूर बुग्यालों में नहीं बचे ब्रह्म-कमल 

न बचने की कगार पर है -
खेती योग्य जमीन
मृदा का उपजाऊपन
स्वच्छ हवा-जल और जीवन, 
मौसम की उँगलियों में संतुलन का चाबुक नहीं बचा 

शब्दकोषों में नहीं बचे रास आने वाले शब्द 
संसद से गैरहाजिर है संसदीय आचरण 

अब ऐसे में
जब प्रकृति स्वयं अप्राकृतिक हो जाय
मानव हो जाय मशीन
ख़त्म हो जाएँ भावनाएँ इन्सानियत और भाईचारे की,
आदमी के भीतर आदमी और
हिंदुस्तान के भीतर हिंदुस्तान बचे रहने की कल्पना
बेमानी नहीं तो और क्या है ?



असंवेदनशीलता 
उमस इतनी 
कि साँस भी न ली जाय 

आँखों में महसूस हो जलन
बदन भर थकन
कानों का रंग हो जाय लाल 

कटे-पिटे लोग
जहर लेने की कतार में खड़े लोग
जिनके हितैषी न रहे
न रही कोई खबर ही 

समाचार-पत्रों में सरकारी विज्ञापन
विज्ञापनों से पीछे से झाँकती अधूरी खबरें 

लिखने-कहने वालों के होंठों की चुप्पी,
ऐसे में कुछ लिखा जाय
या चुपचाप देखूँ मैं भी 
रंगमंच पर बदलता दृश्य
या अपनी सलामती की दुआ करूँ |

पहाड़ों पर सुबह


हल्की ठण्डी हवा चलती है जब
ओंस की बूँद 
गुलाब की पंखुड़ी पर अँगड़ाई लेती है 

कोयलों का कलरव भी हो जाता है शुरू

सुथरे नीले अम्बर पर
पहाड़ों के कन्धों से 
निकलता है सूरज सफर पर

पत्थरों की धमनियों में दौड़ने लगता है रक्त
माटी होने लगती है मुलायम
देवदार रगड़ता है हथेलियाँ

महीने की किताब का एक पन्ना पलट दिया जाता है
नया चटख पन्ना 

पहाड़ों पर हर सुबह बड़ी हसीन होती है |



सम्पर्क 

आशीष नैथानी
8 जुलाई,1988 पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
सम्प्रति - सॉफ्टवेयर इंजीनियर, हैदराबाद
संपर्क - 9666-060-273
ईमेल – ashish.naithani.salil@gmail.com


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)    

टिप्पणियाँ

  1. आशीष नैथानी जी का बहुत बहुत आभार
    निहायती ही खुबसुरत और जानदार रचनाएँ हैं।
    इरोम शर्मिला जी को भला आज कोन नहीं जनता....

    जवाब देंहटाएं
  2. सभी रचनाएँ निःशब्द कर देने वाली...

    जवाब देंहटाएं
  3. ह्रदयश्पर्शी व प्रेरक रचनाएं ..
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति .

    जवाब देंहटाएं
  4. waah, kya gazab likhte hain aap aashish ji..aapke likhne ka andaaz hi nayaab hai
    nih shabd du..kya kahu...puri tarah se man doob gya aapki in kavitao me, jaha itni gahrai hai, itne ehsaas aur itne sawal hai....ki bas itna hi kahna hai ki ye lazwab hai

    जवाब देंहटाएं
  5. आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया !
    संतोष जी का ह्रदय से आभार !! :)

    जवाब देंहटाएं
  6. Behad bhaav purn hai aapki samvedna on ka sansaar
    Asheesh evam shubh kaamnayen

    जवाब देंहटाएं
  7. शब्दों प्राण ।। अर्थी में अर्थ।। भरती कविता।। तुम्हें आशीष।। करते रहें संधान।।

    जवाब देंहटाएं

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