बृजराज सिंह की लम्बी कविता 'वसंत'


बृजराज सिंह
'वसंत' बृजराज सिंह की ऐसी नयी लम्बी कविता है जिसका वितान व्यापक है. आज कमोवेश स्थितियाँ इतनी जटिल हो गयी हैं कि वसंत जैसा मौसम, जो मूलतः प्राकृतिक है, उस पर भी आम आदमी का कोई न तो हक़ है न ही कोई अधिकार. पूँजीवाद ने हवा से लेकर पानी तक सबको बिकाऊ बना दिया है. जमीन तो पहले ही उनकी हो चुकी है. ऐसे में एक बड़ा संकट है वसंत की खोज करना. तीस वर्ष का हो जाने पर भी कवि जब वसंत नहीं देख पाता तो वह उसकी तहकीकात करता है. लोगों से पूछता है, देखता है और जानने की कोशिश करता है. आज कट्टरता जिस तरह सब जगह अपने पाँव पसार रही है, वह अपने चरित्र में फासीवादी ही नहीं बल्कि   हर जगह से वह  उस लोकतन्त्र को गायब करती जा रही है जो दरअसल मनुष्यता का पर्याय माना जाता रहा  है. कवि ने इस कट्टरता के बढ़ने को देखा-महसूस किया है और कविता में भी यह सहज स्वाभाविक ढंग से आया है. बहरहाल आइए पढ़ते हैं बृजराज सिंह  की यह लम्बी कविता जिसके गहरे निहितार्थ हैं. 
          
बृजराज सिंह  की लम्बी कविता 'वसंत'

वसंत 

(1)

मैं अब तीस साल का हो गया हूँ
जीवन के तीस वसंत बीत गए
इस प्रकार कुल तीस वसंत मैंने देखे
पर एक की भी याद नहीं है
मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सुनी हो ‘प्रथम पिक पंचम’
हमारे समय में मुहावरे अपने अर्थ खोते जा रहे हैं
जैसे कि इसी को ले लें

अगर मैने तीस वसंत देखे हैं
तो एक की भी याद क्यों नहीं है
शायद तीस की उम्र में अल्जाइमर नहीं होता है
या होता भी हो (आज कल कुछ कह नहीं सकते)
हो सकता है की मुझे कोई दूसरी गंभीर बीमारी हो
बिमारियों का क्या है वे कभी भी कहीं भी बिना बताये आ सकती हैं
जैसे कि प्यार, जैसे कि आता है वसंत
‘प्यार एक बीमारी है’ यह भी तो एक मुहावरा है
तीस के तीस वसंत भूल गया मैं
पुरानों को छोड़ भी दें तो कम से कम
पचीस तो याद रहना चाहिए
कौन यकीं कर सकता है मेरा कि मैं सच बोल रहा हूँ
मेरे पास कोई सबूत भी तो नहीं है
वह भी तब जब भूलना एक आसान हथियार और गंभीर बीमार हो
स्मृतिलोप का ऐसा आक्रमण कि कुछ भी शेष न रहा

सोचने की बात यह है कि
बाकी सब तो मुझे अब भी याद है, बस वसंत की याद क्यों नहीं आती
याद है मुझे पांचवीं कक्षा की
जब सत्रह का पहाड़ा याद नहीं रहने पर विश्वगुरू ने पटक-पटक मारा था   
और उससे पहले की भी कुछ यादें हैं
स्लेट पर लिखा पहला प्रेम-पत्र.....वगैरह ....वगैरह
वसंत है कि तब का भी याद नहीं आता
वसंत में प्रवेश के नाम पर हर साल एक परीक्षा देते आए हैं
प्रवेश मिला नहीं अभी तक (ठीक-ठीक कह नहीं सकता)
प्रवेश मिला होता तो याद तो रहता ही
तीस में से कोई तो याद रहता

मैं भारत गणराज्य का नागरिक हूँ
याद है मुझे, बोध भी है, न्याय में विश्वास भी है
इसीलिए सोचता हूँ शिकायत करूँ
संविधान की किस धारा के तहत करूँ
कि वसंत के नाम पर मुझसे ली गयी है हर साल एक परीक्षा
उत्तीर्ण होने के बावजूद आज तक प्रवेश नहीं दिया गया
डर इस बात का है कि वे कह देंगे कि मुझे ‘डिमेंशिया’ है
वसंत के लक्षण भूल गया हूँ
या वे कह देंगे कि इसमें पड़ोसी मुल्क का हाथ है
या यह वायरस अटैक है और यह चीन से आया है
एक्सपर्ट की राय ली जाएगी और मुझसे कहा जायेगा कि शट-डाउन कर लूँ

(2)

खैर मैं इसे ऐसे ही कैसे जाने दे सकता हूँ
आखिर तीस-तीस वसंत का सवाल है
एक-दो का रहता तो जाने भी देता

कहते हैं पतझड़ के बाद आता है वसंत
हर साल आता है
सब कुछ नया-सा हो जाता है
इस नएपन से मेरा क्या?
मेरे तो बाल बस गिरते जाते हैं साल-दर-साल
इसका मतलब तो यही हुआ न कि
मेरे ऊपर से होकर वसंत की हवा नहीं गुजरी कभी
वैसे तो मेरी याददास्त भी ठीक-ठाक है
आज भी मुझे याद है प्लासी का युद्ध कब हुआ था
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम १८५७ में, चीन की लड़ाई १९६२ में
पाकिस्तान की लड़ाई १९७२
सत्तर में बंगाल की लड़ाई, बस्तर की लड़ाई, झारखण्ड की लड़ाई
आप कहेंगे की बस लड़ाई-लड़ाई ही याद है
तो मुझे याद है गाँधी की हत्या भी
अभी कुछ दिन पहले वाशिंगटन कि छपी खबर भी याद है मुझे
“भारत सरकार के प्रधानमंत्री घोटालेबाजों के मुखिया हैं”  
यह 2013 है महराज!
इसमें कमजोर याददास्त का आदमी जी नहीं सकता
बहरहाल अब यह तो पता चल ही गया होगा कि
याद रखने में मुझे कोई समस्या नहीं है
फिर यह वसंत याद क्यों नहीं आता?

अब कितना कुछ बताऊँ कि मुझे क्या-क्या याद है
क्या, मैं अपने पांच दोस्तों के नाम बताऊँ
तो उनसे पूछ कर ताकीद करना चाहते हैं कि
मैं झूठ तो नहीं बोल रहा हूँ
लीजिये अभी बता देता हूँ
लेकिन इससे क्या होगा?
सवाल मेरे वसंत का है
दोस्तों को इस अनुत्पादी मामले में घसीटना ठीक नहीं

(3)

सुना है मैंने
वसंत जब आता है तब पता चल जाता है
जज्बात काबू में नहीं रहते
कामदेव अपना शिकार खोजने निकलते हैं
उनसे बचा भी नहीं जा सकता, अनंग जो ठहरे
सुना है मन हवाई जहाज सा उड़ने लगता है
हवाई जहाज से याद आया
वहां भी तो वसंत नदारद था
जज्बात को भी उकसाया एक कवि ने
‘स्नेह को सौंदर्य का उपहार रस चुम्बन नहीं तो और क्या है’
पर वसंत इन सबमें कहाँ था, मुझे पता नहीं

सुना मैंने, लंका पर वसंत रोज उतरता है
लंका से अस्सी के बीच घूमता रहता है
काशीनाथ भी तो रोज आते हैं अस्सी
आखिर बनारस वसंत की राजधानी जो ठहरी
मैंने भी लगभग हर शाम लंका से अस्सी भ्रमण किया, करता रहा
इस बीच पान खाया, चाय भी पी, सिगरेट के सुट्टे भी लगाए
पर वह नहीं मिला तो नहीं मिला
शायद उसे नहीं ही मिलना था
मेरी तरह और भी कई आते हैं रोज-रोज लंका, अस्सी
खोजने अपने-अपने वसंत को

अब रंग बदल रहा है
अमलतास के पत्ते झड़ चुके हैं
पीले फूल निकल आए हैं
विश्वनाथ मंदिर का अशोक खिल चुका है
पता नहीं कौन सुंदरी अपने घुंघुरु मेलित पदों के
आघात से उसे फूलने को मजबूर कर देती है
लड़के लड़कियां पीले परिधान में दिख रहे हैं
तो क्या इस शहर में वसंत आ गया
अगर आ गया तो यह पहले पहल कहाँ आया
विश्वनाथ मंदिर, त्रिवेणी या लंका पर या फिर अस्सी या महिला महाविद्यालय
एक कवि ने लिखा है
इस शहर में वसंत सबसे पहले मंडुआडीह में आता है
वसंत कहीं भी उतरा हो इस बार देख लेना है
छात्रावास से निकला और लंका चल दिया
लंका हमारे जीवन की आवश्यक क्रिया है
कि तभी फोन की घंटी बज उठी
“हैलो! रूम नंबर 113 से हनुमान को बुला दीजिये”
“वे लंका गए हैं”
“क्या मजाक है, तुम कौन बोल रहे हो”
“मैं अंगद”
“बदतमीज”

उसी शाम कस्तूरबा में अपने ही दुपट्टे से झूल गयी लड़की
जब उसी की सहेलियां वसंत को खोजते आ गयीं थी अस्सी
वसंत फिर से लौट गया
मैं भी लौट आया खाली हाँथ

(4)

यह भी कोई जीवन है महराज
तीस पार कर गए किसी वसंत का दर्शन नहीं हुआ अब तक
तो क्या हुआ लंका तो देखा न- एक मित्र ने कहा
लंका एक संज्ञा है
‘स्थानवाची’ या ‘भाववाची’
लंकेटिंग एक क्रिया है
‘सकर्मक’ कि ‘अकर्मक’
लंकेटिंग तो सकर्मक क्रिया है
तभी एक लड़के ने कहा
ना सकर्मक ना अकर्मक, लंकेटिंग एक निरर्थक क्रिया है
तभी बगल से गुजरती घुंघुराले बालों वाली लड़की ने कहा
लंकेटिंग एक सार्थक क्रिया है और हमेशा रहेगी
मैंने सबको रोका और बताया कि लंकेटिंग हमारा मुद्दा नहीं है
हमारा मुद्दा वसंत है
आजकल के नौजवान किसी भी बात पर बहस करने लगते हैं

अब मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि
हो सकता है पिछले तीस वर्षों में वसंत आया ही न हो
एक लड़की ने बताया कि और की याद तो उसे भी नहीं
पर पिछले साल आया था
जब ठीक वसंत पंचमी के दिन उसके प्रेमी ने ढक दिया था उसे हरसिंगार के फूलों से
मैंने बहुत पूछा पर उसने इसके आगे कुछ नहीं बताया
बस बोली ‘ज्यौं मालकौस नव वीणा पर’

मैंने पूछा अपने छोटे भाई से जिसने अभी दाखिला लिया है बी.ए. में
और रोज लंका नियम से जाता है
लंका पर वसंत आता है तुमने देखा है
उसने कहा कौन वाली
मैंने कहा वाली नहीं वाला
वसंत पुलिंग है स्त्रीलिंग नहीं
उसने कहा
क्या फर्क पड़ता है
आप हिन्दी वाले बस लिंग पकड़ कर बैठ जाते हैं


(5)

छात्रावास में बहस जोरों पर थी
वसंत का रंग पीला होता है
एक ने कहा नहीं लाल होता है, पीला पुराने की निशानी है
‘सरसों के पीले फूलों में उतरता है वसंत’
‘नहीं, अशोक के लाल रंगों में उतरता है’
‘अमलतास देखा है-पीला होता है’
‘गुलमोहर देखा है-लाल होता है’
अब बहस इस पर जा पहुंची कि श्रेष्ठ रंग कौन-सा होता है
पीला या लाल
अब तक शांत बैठा घनी मूंछों वाला लड़का बोला
इतनी-सी बात समझ में नहीं आती कि विश्वविद्यालय में श्रेष्ठ रंग खाकी है
वह लड़की जो पिछले हफ्ते फंसरी लगा के झूल गयी थी
उसकी रस्सी का रंग लाल था और उसने पीले कपड़े पहन रखे थे
अब वह मेरी तरफ मुखातिब था
उसकी आँखों का रंग सुर्ख लाल था और मेरा चेहरा पीला पड़ रहा था
सब लोग चल दिए
तभी एक लड़के ने अपने साथ के बुजुर्गवार की ओर ईशारा करते हुए कहा कि मेरे पिता जी हैं
उसी घनी मूंछो वाले लड़के ने पूछा- ‘सगे हैं?’

वहां से हटने के बाद मैं सोचता रहा
उसने खाकी क्यों कहा
इतने रंगों में उसने खाकी को क्यों चुना
जब दीवारें लाल और पीली हैं तो खाकी क्यों?
हम मधुबन की तरफ बढ़ने लगे
बाहर सुरक्षाकर्मी खाकी लिबास में मुस्तैद थे
अन्दर शाखा लग रही थी
हमें रोक दिया गया क्यों कि सबके कपड़े में कहीं न कहीं लाल जरूर था
इससे माहौल बिगड़ने का खतरा था
आज विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस है
आज वृक्षारोपण होगा और शाखा लगायी जाएगी

विश्वविद्यालय में श्रेष्ठ रंग खाकी है
खाकी खौफ का रंग होता है

मंदिर की तरफ से आते दिखे सिन्नी गुरू
शून्य में उंगली करते हुए फुसफुसाकर बोले
कल क्रांति हो जाएगी
पत्रिका प्रेस में चली गयी है
कल विप्लव होगा, सब बदल जाएगा
तख्ता पलट हो जाएगा
दरोगा बने प्रोफ़ेसर को सूली पर लटका दिया जाएगा
अबकी वसंत ‘वसंती’ होगा
डाक साहब किसी को खबर न हो

प्रोफ़ेसर पाण्डेय ने चोर पाकेट से दस का नोट निकाला और सिन्नी गुरू को देते हुए कहा
रख लीजिए क्रांति में काम आएगा
सिन्नी गुरू अपने स्थायी भाव शून्य को उंगली करते चले गए
फिर हमसे बताया गोरख को भी वसंत बहुत प्यारा था

(6)
उस दिन मैं जीवन में सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित रह गया
जब मेरे एक मित्र ने कहा कि
आजकल उसकी शामें विपाशा वसु और सुबहें सनी लियोनी हो रही हैं
उसने बताया कि आज कल वह लगातार गिर रहा है ‘प्यार में’
उसकी प्रेमिका शादीशुदा तथा दो बच्चों की माँ है
मैंने कहा यह महापाप है
उसने कहा किसी को प्रेम देना महापुण्य है
माँ-बाप-पति-पत्नी-बच्चे के अलावा एक प्रेमी भी होना ही चाहिए
उम्र के तीन दशक बीत जाने के बाद उसके जीवन में वसंत अब उतर आया है
उसने कहा कि अब वह बता सकता है मुझे वसंत के बारे में कुछ-कुछ
वसंत एक्कम वसंत, वसंत दूनी विपाशा...वसंत दहा में सनी लियोनी

इस बीच मेरे वसंत के खोजने की शोधवृत्ति को लोग जान गए थे
कईयों ने समझाया छोड़ दो वसंत को
कुछ नहीं मिलने वाला
वसंत याद नहीं तो क्या हुआ और भी चीजें हैं याद करने को
एक मित्र ने कहा तुम्हे नहीं मालूम 
वसंत अब कुछ ही कालोनियों में उतरता है
टाटा, बिड़ला, अंबानी के घरों में हेलीकाफ्टर से उतरता है
अमिताभ और सचिन के घरों में आता है वसंत
अब उसकी आवाज तल्ख़ हो रही थी
वह अपनी उखड़ी सांसों के साथ बोल रहा था
फूलों में, वनों में, युवकों-युवतियों में अब वसंत नहीं आता
यह पुरानी बातें हो गयी हैं
वसंत आता है राहुल गाँधी के घर में
तुम झोपड़ियों के मुर्दाना माहौल में लाना चाहते हो वसंत
व्यर्थ है सारी कोशिशें, कुछ नहीं हो सकता
कुछ नहीं बदल सकता

मकबूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग 'रेप ऑफ़ इण्डिया'
 (7)
वसंत आता है शोध से, पीएच-डी पूरी हो जाने के बाद
अभी-अभी लौटा है मेरा एक दोस्त नौकरी का साक्षात्कार देकर
उसके माँ-बाप ने भी देखा था स्वप्न
अपने आंगन में वसंत के उतरने का

साक्षात्कार लेने बैठे थे विषय विशेषज्ञ शीर्ष पुरुष
अभ्यर्थियों की जमात में उनका एक अपना भी था
उससे पूछा उन्होंने
अपने पिता का नाम बताओ
अभ्यर्थी ने जवाब दिया श्रीमान जी मेरे पिता का नाम फलां है
शीर्ष पुरुष के चहरे पर तेज उतर आया
उन्होंने बाकी सदस्यों से आत्मविश्वास के साथ कहा
“देखा महोदय, लड़का कितना शिष्ट है, कितना संस्कारी है
आज के कठिन समय में जब बच्चे अपने माँ-बाप का नाम तक याद नहीं रखते
इसे याद है अपने बाप का नाम, और तो और श्री भी लगाता है
मूल्यों के ह्रास के समय में यह लड़का इस संस्थान को नयी उंचाईयों तक ले जाएगा”
इसके बाद जब मेरा दोस्त दाखिल हुआ तो
उन्हीं महोदय ने सवाल किया कि यहाँ बैठे सभी लोगों के पिताश्री के नाम बताओ
दोस्त ने कहा नहीं मालूम
उन्होंने कहा कि सूचनाओं के विस्फोट के समय में इतनी-सी सूचना नहीं है
तो आप बहुत पिछड़े हैं, जाइए
मैंने उसे समझाया, यह नया प्रश्न नहीं है
नाम पूछा था सत्यकाम ने जबाल से उसके बाप का

लंका पर उस दिन वसंत को भूल कर सबने इसी के बारे में बात की
मालवीय जी की मूर्ति के नीचे ‘दुम स्टडी सर्किल’ के लोगों द्वारा
‘मानव जीवन में दुम की उपयोगिता’ विषय पर सभा का आयोजन चल रहा था
एक क्रान्तिकारी छात्र नेता ने कहा कि
कुत्तों की वह नसल जो पूंछ हिलाना जानती है
उसे दूध-भात और नरम गोंद मिलती है बदले में
उसके जीवन में वसंत हमेशा बना रहता है
इतिहास गवाह है आजाद ख़याल नस्लें भूखों मरती हैं
आज के कुत्ता समय में मनुष्य को दुम की बेहद जरूरत है
मित्रों! हमें हमारी दुम वापस चाहिए
तभी पीछे से एक लड़के ने गिटार पर धुन छेड़ी
‘दुम मिले दिल खिले और जीने को क्या चाहिए’
इसी समय विश्वविद्यालय में एक प्रोफ़ेसर अपनी दुम के सहारे
शिक्षा और ज्ञान की नयी-नयी उचाईयों को छू रहा था

दुम हमारे समय की सबसे बड़ी बहस बन गयी है
दुम हमारे समय की सबसे बड़ी जरूरत बन गयी है

क्या दुम के रस्ते आ सकता है जीवन में वसंत
वह समय दूर नहीं जब हमारे समय का हर आदमी दुमदार होगा
लंका पर म्युनिस्पैलिटी की गाड़ी आई है
स्वतन्त्र कुत्तों को पकड़ कर ले जा रही है
एक लड़के ने धीरे से कहा अब लिखना पढ़ना सब दुम से होगा

(8)
एक दिन कक्षा में बहस जोरों पर थी
आधुनिक कौन है
जब पूछा गया एक लड़की से तो उसने कहा कि
आधुनिक माने फैशन
और तुम कवि हमेशा चिल्लाते रहए हो वसंत वसंत
तो सुन लो वसंत आता है फैशन से
हमारी लिपस्टिक से, नेल पालिश से, गागल्स से
बिना फैशन के दुनिया में वसंत नहीं आ सकता
यह समय है कागज में वसंत उतरने का
कागज में क्रांति का
किताब लिख किसान बनने का
मजदूर संग चाय पी उसे छलने का
वसंत का मौसम न होने पर भी वसंती दिखते रहने का

इतने दिनों में मुझे यह तो पता चल ही गया कि
वसंत होता है सबके हिस्से का
मेरा वाला वसंत
खोजना होगा
मांगना होगा
होगा, रखा होगा
किसी न किसी के पास, किसी ने हड़प लिया होगा
पर कहाँ, किसके पास?


(9)
विश्वास उठ रहा है लोगों का वसंत से
कविता से, समय से, लोकतंत्र से
झूठे हैं, झूठे हैं, झूठे हैं
तुम्हारे सारे के सारे ग्रन्थ
तुम्हारी कसमें, तुम्हारे वादे
झूठी हैं तुम्हारी बातें, तुम्हारी किताबें
झूठा है तुम्हारा इतिहास भी
झूठे हो तुम, झूठे हैं हम भी
झूठें हैं राम, झूठे हैं कृष्ण भी
झूठे हैं व्यास, झूठे हैं तुलसीदास भी
झूठा है गुस्सा, झूठा है प्यार भी
झूठी है सब सरकार
झूठा निकला वोट का अधिकार
झूठी हिंदी, झूठी उर्दू
झूठी शाम, झूठी सुबह
झूठी दरख्तों के झूठी शाखों से गिरते हैं झूठे पत्ते
इन्द्रधनुष के सारे रंग झूठे हैं
झूठा निकला वसंत, झूठा निकला वसंत
आत्मविश्वास झूठ है, स्वाभिमान झूठ है

जब झूठ अपने समय का सबसे बड़ा सच बन जाये
तब चुप्पी का हथियार बन जाना लाजिम है

अब कौवे और कोयल की पहचान कैसे हो
कौआ भी चुप और कोयल भी चुप
एक भले मानुष ने कहा
वसंत का इन्तजार करो
वसंत आने पर कोयल चुप नहीं बैठेगी
वह जरूर बोलेगी
कौवे उसकी आवाज दबा कर नहीं रख सकते
तभी कोयल और कौवे का भेद खुल सकेगा
वसंत का इन्तजार करो
इन्तजार करो!

(नोट: इसमें जिन कवियों/लेखकों की पंक्तियों का प्रयोग किया गया है या उनका प्रभाव दिखता है उन सबके प्रति आभार)

सम्पर्क-
मोबाईल- 09838709090
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं.)  

टिप्पणियाँ

  1. अद्भुत चकित कर देने वाली कविता

    जवाब देंहटाएं
  2. बृजराज को जितना मैं जानती हूँ और जबसे जानती हूँ उन्हें गंभीर ही देखा है, एक शांत व्यक्तित्व का एहसास हुआ उन्हें देखकर, तो निःसंदेह कविता बहुत हीं सार्थक है...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'