अरुणाकर पाण्डेय का ललित निबन्ध 'हमारा सौन्दर्य बोध'


अरुणाकर पाण्डेय


दो वर्ष हो गए उस वीभत्स घटना को घटे जिसने समूचे भारतीय जनमानस को हिला कर रख दिया था। उस घटना को हम ‘निर्भया काण्ड’ के नाम से जानते हैं। लेकिन अफ़सोस आज भी हम जहाँ के तहाँ खड़े हैं। राजधानी दिल्ली तक में स्त्रियाँ जब सुरक्षित नहीं हैं तो और जगह तो उनकी स्थिति की कल्पना कर के ही सिहरन होती है। इसी को केन्द्रित कर युवा कवि अरुणाकर पाण्डेय ने एक ललित निबन्ध लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। सचमुच ऐसा लगता है कि कुल मिला कर मामला हमारे सौन्दर्य-बोध का ही है। जब तक हमारे इस मानस में परिवर्तन नहीं आता स्थितियों में बदलाव की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। तो आइए पढ़ते हैं अरुणाकर का ललित निबन्ध 'हमारा सौन्दर्य बोध' जिसमें आप काव्यात्मक प्रवाह सहज ही महसूस कर सकते हैं।      




हमारा सौन्दर्य बोध

अरुणाकर पाण्डेय

निर्भया एक लगातार कुरूप होते समाज की पहचान है। यदि किसी समाज या सभ्यता के सौन्दर्य अथवा कुरूपता को जानना-समझना हो तो कैसे विचार किया जा सकता है। अगर वह समाज सौन्दर्य का अर्थ समझता है तो वह स्वयं भी सुंदर होगा अन्यथा विकास में चौंधियाते हुए भी वह मनुष्यताहीन मापकों में घिरा हुआ खोखली हँसी हँसता रहेगा। बाहर से तो वह सशक्त और निर्माता दिखेगा लेकिन भीतर से वह संवेदनाशून्य हृदयहीन पशुत्व का उपासक मात्र बन  कर रह जाएगा। यह किसी भी सभ्यता के लिए इतनी बड़ी कीमत है जिसकी भरपाई अंततः स्वयं को देकर ही दी जा सकती है। यह सभ्यता सौन्दर्य बोध के अभाव में स्वयं को खो रही है।
 
जिन्होनें निर्भया को तार-तार किया वे कोई सम्राट, सेठ या सर्वसत्तावादी नहीं थे। वे हमारे बीच में से बने हुए साधारण जन थे। इसलिए मसला सभ्यताके सौन्दर्य बोध का है न कि किसी विशिष्ट इकाई का। बस चलाने वाला साधारण आदमी श्रम की उत्पत्ति होता है न कि अहंकार का बना हुआ ढाँचा। यहाँ याद आती है बाबा नागार्जुन की कविता गुलाबी चूड़ियाँ। इस कविता का चरित्र भी एक बस ड्राईवर ही है जो जो गीयर पर अपनी बच्ची के लिए खरीदी गयी गुलाबी चूड़ियाँ रखे हुए है। वह दिन भर यातायात से संघर्ष करता हुआ एक कठोर व्यक्तिव अर्जित करता है लेकिन जब भी उसकी दृष्टि उन चूड़ियों पर पड़ती है, उसके भीतर का मनुष्य और गहरा होता चला जाता है। यकीन मानिए यही वह स्पेस है जहाँ समूची सभ्यता अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है और बलिष्ठ चेष्टाओं पर विजय प्राप्त कर लेती है। लेकिन कविता में मौजूद वह ड्राईवर हमारे इस ड्राईवर से कैसे छूट गया? इसके कई उत्तर हो सकते हैं जिनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय यही हो सकता है कि कविता के भीतर का ड्राईवर एक यूटोपिया है, एक दिवास्वप्न है। इसका अर्थ यह होता है कि साहित्य, कला और सौन्दर्य-बोध वास्तव में कहने-समझने की बातें हैं और वे यथार्थ की भूमि पर नहीं टिकते। परन्तु ठहर कर सोचे तो बात दूसरी दिखेगी। जरा उनसे पूछिए जिन्होनें खोया है और फिर स्वयं को संतुलित किया है। उनका अनुभव व्यक्तिगत नहीं लगेगा बल्कि वह एक अनिवार्य अध्याय का रूप ले लेता है। वह ड्राईवर काल्पनिक हो सकता है लेकिन पिता के रूप में मनुष्य के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति और स्वयं कवि का अस्तित्व तो प्रामाणिक हैं। ये इस सीमा तक प्रामाणिक हैं की ये खत्म नहीं हो सकते लेकिन अनगिनत अन्य भाव-बोध के तले विस्मृत हो जाते हैं और सब कुछ अप्रासंगिक लगने लगता है। स्मृति का यह लोप उसकी वस्तु का निषेध करने का वातावरण बना देता है।

हमारे जीवन में सौन्दर्य के बहुतेरे प्रतीक बिखरे पड़े हैं जो बेहद साधारण हैं और हमारी सभ्यता को बचाने में सक्षम हैं। उनमें से एक पेड़ हैं। वे हमे यहाँ-वहाँ मिल जाते हैं लेकिन हमने उन्हें अपने जीवन से बाहर कर दिया है। जब चाहा विज्ञापन ठोक दिया, जब चाहा लकड़ी ले ली, जब चाहा उन्हें रास्ते का झमेला मान  कर काट दिया और विकास कर लिया, यहाँ तक की उनकी ओट में दूकान-खोखे तक चला लिए। लेकिन एक नज़र प्यार से उन्हें देखना तक भूल गए। आते-जाते कभी भी देखिये, वे भी कई चरित्रों की तरह स्थिर अपनी जगह पर मिलते हैं। कोई नौजवान की भाँति जोशीला दिखेगा, कोई एक सुन्दर नायिका की तरह मुस्कुराता और प्राकृतिक रूप से सजा-सँवरा दिखेगा, कोई बहुत चंचल सा और बाँका सा लगेगा तो कोई बड़ा खूँखार, कोई उदास और नितांत गंजा और कोई-कोई तो बिलकुल अपने किसी यार-दोस्त की तरह शरारती। लेकिन इस साधारण से जीवन्त आस्वादन को वे ही आँखें देख-समझ सकती हैं जिनकी दृष्टि समग्रता के भावन से उपजी हों। पन्द्रह साल पुराना सफेदे का एक पेड़ आज भी मेरी स्मृति को अपना घर बनाये हुए है, दो कारणों से। एक तो उसका बाहरी स्वरुप। साधारणतया सफेदे का पेड़ सीधा, छरहरा और ऊँचा होता है। लेकिन वह सफेदा बहुत मोटे तने और बहुत सी शाखाओं के साथ तिरछा खड़ा था, लगता था यदि जोर की आंधी आयी तो गिर जाएगा। बहुत विकट स्थिति में भी वह वैसा ही बना रहता था। उसका सौन्दर्य रात को और निखर आता था जब उसकी चमकीली छालों पर चाँदनी पड़ती थी। ऐसा लगता था कि साक्षात चाँदी का समूचा पेड़ सामने खड़ा है। ऐसा दिव्य दृश्य अब कहीं देखने को नहीं मिलता। दूसरी विशिष्टता यह थी कि उन दिनों एक लड़का गाँव से काम की तलाश में वहाँ नया-नया आया था। वह अक्सर उसकी किसी शाखा पर बैठ  कर बड़ी सुरीली आवाज़ में गीत गुनगुनाया करता था। पेड़ से लड़के की वह सुरीली ध्वनि कुछ ऐसे बहती थी की दोनों का अन्तर खत्म जान पड़ता था और यह भ्रम होने लगता था कि वह चाँदी का पेड़ ही वह धुन सुना रहा हो। आज वह पेड़ और वह श्रमिक दोनों ही नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृति की वजह से आज भी जो आत्मीयता बनी हुयी है, वह किसी भी पेड़ के कटने पर और गहराने लगती है। इसी तरह हर बारिश सिर्फ बारिश या हर रास्ता सिर्फ रास्ता नहीं हो सकता। बारिश और बारिश में अंतर होता है। हर एक की अपनी ध्वनि और भिंगाने की नीयत होती है। ध्यान लगा  कर सुनना होता है। हर रास्ता अपने में अलग कहानी होता है, ध्यान से समझना होता है। यदि निर्भय के हत्यारों और उनकर जैसे अनन्य लोगों में सौन्दर्य के इस बोध का बीज बोया गया होता तो स्थितियाँ इस सीमा तक नहीं बिगड़ सकती थीं। लेकिन धीरे-धीरे हमारी सभ्यता इस हालात में पहुँच गयी है तो यह निर्भया के हत्यारों का नहीं बल्कि हम सबका पतन है। संवेदना अब हमारे व्यवहार में बस कहीं-कहीं फँसी हुई  है।


निर्भया की पहचान सिर्फ एक लड़की या एक स्त्री तक सीमित नहीं की जा सकती। सही अर्थ में वह श्रम का प्रतीक है क्योंकि वह अपनी मेहनत से न केवल अपने जीवन को परिवर्तित करने वाली एक साधारण-जन थी बल्कि  समाज को आंशिक रूप से भविष्य की ओर अग्रसर करने वाली एक व्यक्तित्व थी। इसलिए जिसकी हत्या हुयी या आज भी होती है दरअसल वह इच्छाशक्ति की सामाजिक हत्या है। इच्छा-शक्ति रखना और प्रसन्नचित रहते हुए विपरीत स्थिति में भी निरंतर प्रयासरत रहना सच्चे अर्थों में रोमान्टिक होना होता है। सच पूछिए तो सार्थक परिवर्तन का आरम्भ रोमान्टिक होने से होता है। जीवन के सर्वाधिक कठिन क्षणों में निर्भया ने हार नहीं मानी, वह बलात्कार से, दुर्बल से, प्रहारों से, पशुत्व से और इन सबके बाद मृत्यु से निरंतर संघर्ष करती रही।  उन क्षणों में वह नही हारी, सदियों पुरानी अर्जित व्यवस्थाएँ फिर हार गयीं। वह नहीं हार सकती थी क्योंकि वह स्वभाव से श्रमिका थी। एक ऐसी श्रमिका जिसके पास सपने थे। जिनके भीतर श्रम और उसके साथ उपजने वाले स्वप्न और संघर्ष के प्रति सम्मान न हो वे सुंदर नहीं हो सकते और देखते ही देखते सभ्यता के संबल को कलंकित कर देते हैं। स्वप्न, संघर्ष और श्रम उनके पास नहीं हो सकते भले ही सारी व्यवस्थाएँ उनके संकेत-मात्र पर समर्पित हो जाती हों। ये तो साधारण-जन की कहानी के स्वर होते हैं। ऐसे में अक्सर एक ऐसी श्रमिका की स्मृति जीवन्त हो उठती है जो सब्जी बेचती है और अचानक ही कुछ वर्षों पहले उससे मिलना हुआ था। एक दिन अपनी मम्मी के साथ एक संबंधी के घर से लौट रहा था। काफी देर हो गयी थी और हम अगले दिन के लिए सब्जी नहीं ले पाए थे। देर होने की वजह से हमने यह सोचा कि सब्जी उसी इलाके से ले ली जाए। हम उस कॉलोनी के स्थानीय बाजार की तरफ गए तो देखा कि वहाँ पर सब्जी के दो-तीन ठेले वाले खड़े थे। बिना किसी कारण के स्वाभाविक रूप से हम उसी के पास चले गए। दिन भर काम करने के बावजूद उसके चेहरे पर एक स्थिर मुस्कान थी और उसकी बोली में एक ठेठ देसीपने का माधुर्य था। बातों-बातों में पता लगा की उसने यह काम हाल-फिलहाल शुरू किया था क्योंकि कुछ दिनों पहले ही एक दुर्घटना में उसके पति की मृत्यु हो गयी थी और अब वह उसी के ठेले से अपना संघर्ष कर रही थी। पास ही उसके दो बच्चे सुस्ता रहे थे लेकिन काम करने की उसकी ऊर्जा निरंतर बनी हुई थी। उसकी उम्र बहुत अधिक नहीं थी और न ही विधवा होना उसे तोड़ पा रहा था। लेकिन उस पर कुछ दबाव लगातार बने हुए थे। उनमें से एक तो यह था की अपने बाकी प्रतिस्पर्द्धियों से उसे लोहा लेना था और वह अपने उत्साह और श्रम से बनी हुई थी। वह व्यापार का रंग जमाए हुए थी। यही साधारण सौन्दर्य का बल है जो संघर्ष पर टिका हुआ है। दूसरी समस्या और गहन थी। उसे अबला समझ कुछ मनचले उस पर गिद्ध-दृष्टि डाले हुए थे लेकिन किसी भी सूरत में वे उसके आत्म-सम्मान के आगे टिक नहीं पाये थे जैसे साफ करने पर शीशे से धूल। कई दिनों तक उन्होंने उस पर हावी होने का प्रयास किया होगा लेकिन धीरे-धीरे उसने अपनी कर्मठता से उस स्थान पर अपनी अमिट उपस्थिति बना ली थी। उसे अपने और अपने बच्चों के लिए किसी रहनुमा की आवश्यकता नहीं थी, वह आकाश में प्राण-वायु से खेलता परिंदा थी जिसने बहेलियों की दृष्टि बदल दी थी। यहाँ मन के किसी कोने से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता भूखकी पंक्तियाँ उभरने लगती हैं

                                 “जब भी
                                  भूख से लड़ने
                                  कोई खड़ा हो जाता है
                                  सुन्दर दीखने लगता है।”

कुछ महीनों के बाद एक बाद फिर उधर जाना हुआ और सब्जी की आवश्यकता थी तो फिर एक रात वहाँ गया। इस बार पत्नी साथ थी। ठेले में इस बार सब्जियों में विविधता थी, बच्चे पहले से बेहतर और आस-पड़ोस कुछ सभ्य। कोई अतिरिक्त बात कहने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई और हाँ! उसकी वाणी का माधुर्य भी जस का तस। याद नहीं आ रहा क्या था, लेकिन कुछ विशेष खाने की इच्छा थी। बनाने की विधि पर कुछ मैंने कहा होगा तो शायद बैंगन देते हुए उसने कहा भैया जी हम बता देते हैं कि कैसे बनेगा।उसने पत्नी को कुछ बताया होगा, मुझे नहीं पता। लेकिन उस दिन अहसास हुआ कि पति के जाने के बाद वह अपने में कितनी सिमट गयी होगी और जब भी अन्य जोड़ों को देखती होगी तो न जाने उस पर क्या बीतती होगी। लेकिन वह सपने देखने वाली औरत थी जो अपने निर्णय करना स्वयं जानती थी। काश! निर्भया के हत्यारे उससे मिले होते तो वे निर्भया के साथ वैसा नहीं कर सकते थे। वे जानते कि जिसे वे अपना शिकार बनाये चले जा रहे है वास्तव में वह एक स्वप्नदृष्टा है, एक इच्छाशक्ति है। वह औरत और निर्भया एक दूसरे से परिचित न भी हों, लेकिन हैं दोनों एक ही। इस एकात्मता में हमारी सभ्यता का सौन्दर्य-बोध छिपा है, जिसे हमें तराशना है। उस सौन्दर्य-बोध से शिक्षित होने के बाद बलात्कृत करने की शक्ति कितनी भी हावी क्यों न हो, मन के भीतर उसकी कोई जगह नहीं बन सकती।

इस बोध से रहित, मदमस्ती पर सवार बहुत से लोग रातों में अपने वाहनों पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने अक्सर निकलते हैं और कई बार उनकी सुबह नहीं होती। ऐसे में वे अपने परिजनों को अपनी शक्ति की दुर्बलता का प्रथम और अंतिम  परिचय तो देते ही हैं परन्तु कभी-कभी फुटपाथों पर सोने वाले स्वप्नदृष्टा उनके द्वारा कुचले जाते हैं और सिद्ध हो सकने वाले सपनों को वे ऐसे तोड़ जाते हैं जैसे  कि व्यक्त होने तक का उन्हें कोई अधिकार ही न हो। वे ऐसी भूमि के दृश्य हो जो कहीं संभव ही न हो, उनका खिलना सातों रंगों से बहिष्कृत हो और केवल अपने काम भर के ईंधन हों। देखिये तो बलात्कार का यह सबसे बड़ा कैनवास है। कल्पना कीजिए निरंतर कुचले जाने वालों में से एक उस श्रमिका का पति हो (जो नहीं ही है।), बच्चे हों या स्वयं वह, उसकी कहानी समझने के बाद आप भी सिहर उठेंगे। एक नया स्थाई रंग आपको उभरता हुआ दिखने लगेगा और आपको निश्चित ही यह ज्ञात होगा की हम वास्तव में निरंतर कुरूप होते चले जा रहे लोग हैं।   
                     
सम्पर्क-
मोबाईल- 09910808735
ई-मेल - arunakarpandey@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग अपराजिता शर्मा की है)

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