राजकिशोर राजन की कविताएँ

राजकिशोर राजन



दुःख और पीड़ा जब तक इस पृथिवी पर है तब तक बुद्ध का नाम भी जिन्दा रहेगा। एक कवि भी हमेशा इस दुःख और पीड़ा से संघर्ष करता है और इस तरह उस आम जन के पक्ष में खड़ा होता है जिसके दम पर इस दुनिया की हस्ती है। राजकिशोर राजन हमारे समय के ऐसे ही महत्वपूर्ण युवा कवि हैं जिन्होंने इन सवालों से टकराने की जद्दोजहद की हैइसकी आहट प्रत्यक्ष रूप से उनकी कविताओं में सुनी जा सकती हैपहली बार पर हम राजन की इसी अंदाज की कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैंतो आइए पढ़ते हैं राज किशोर राजन की नयी कविताएँ
 
   
कुशीनारा से गुजरते
(बुद्ध की जीवनयात्रा पर आधारित कविताएं)


राजकिशोर राजन

राग

अकस्मात् ही हुआ होगा
कभी दबे पैर आया होगा

ईर्ष्या-द्वेष
घृणा-बैर आदि के साथ
जीवन में राग

फिर न पूछिए !
क्या हुआ ...................
कुछ भी नहीं बचा
बेदाग।

दंगश्री

पृथ्वी से ऊपर नहीं
पृथ्वी पर ही
है संभावना
मुक्ति, आनंद की
प्रेय और श्रेय की

दंगश्री पर्वत की ओर
उँगली उठा
बुद्ध ने कहा था
आकाश को

और सदा से
आकाश की ओर टकटकी लगाए
मनुष्य को कहा
लौटने को पृथ्वी पर

दंगश्री, दंग है
अब तक ।

(नोट- दंगश्री एक पर्वत का नाम है।)

नवारंभ


अनगिन बरसों से
हम तमाम जल्पना-कल्पना करते रहे
नाना मत, नाना दर्शन, नाना सिद्धांत
गढ़ते रहे
पर कहाँ जान पाये कभी!
मृत्यु के अनुभव को

बस, उस अज्ञात से भयातुर
त्राण पाने हेतु
भाँति-भाँति के उपाय करते रहे
क्या अद्भुत! हमारा अन्वेषण
कि अमरता, क्षणभंगुरता की गोद में बैठ
ढूँढ़ते रहे

एक फूल, एक पत्ते से भी
नहीं जान पाये हम
कि मृत्यु अंत नहीं
होता नवारंभ
अब तक रेत-कण गिनते रहे
स्वर्ग, अमृत, मुक्ति की बाट
जोहते रहे।   


कवि

आपकी एक-एक मुद्रा
आपकी छवि कविता

आपकी बोली
आपकी ठिठोली
आपकी हँसी
आपकी अनथक यात्रा
यहाँ तक कि सुस्ताना, कविता

आपके नयन जब निहारते
जब निःशब्द रोम-रोम से श्रवण करते आप
जब आप विचारते
हे कवि!
आपके लिए, यह संसार कविता
और संसार के लिए
आप कविता

जिसे तुच्छ माना सबने
उसे गले लगाया आपने
जिन्हें गिराया सबने
उन्हें उठाया आपने
अभाग्य के वन में
सौभाग्य का पुष्प खिलाया आपने
अद्भुत और विरले कवि आप
जिसने लिखी नहीं कविता
पर जिसके जीवन से कल-कल, छल-छल
सरिता की तरह
बहती कविता

ठीक ही कहा था आनंद ने
भले हों आप बुद्ध, गुरू मेरे
पर हैं आप कवि
जिसे निरखते ही
जनमती कविता

सबका दुख, आपका दुख
सबका सुख, आपका सुख
कविता यही तो लेकर
होती है कालयात्री

हे तथागत!
आप स्वयं कविता।

प्रथम बार
कहा आपने
न मेरे, न जाओ किसी अन्य की शरण में
जाओ अपने शरण में
वहीं होगा, तुम्हारा उद्धार

अपने सोचो, अपने समझो
अपने जागो, अपने विचारो
तभी उतरोगे पार
इस संसार में नहीं कर सकता
कोई, किसी दूसरे का उद्धार

नहीं तो सभी ने दी सीख
कि स्वयं को कर विस्मृत
लीन हो जाओ परमसत्ता के साथ
या शरणागत बन
आओ मेरे पास

आपने कहा
कहाँ-कहाँ भटकोगे तुम
कब से भटक रहे हो तुम
कहीं नहीं जाना
जिसे पाना, वह तुम्हारे पास

मान दिया मानव को
खड़ा किया उसे पृथ्वी पर
आपने प्रथम बार।

चाह

न सक्रिय
न निष्क्रिय

न हर्ष
न विषाद

न इच्छा
न अनिच्छा

न आसक्ति
न विरक्ति

बस, अवलोकन
मात्र अवलोकन

न चाह जीने की
न मृत्यु की
इसी में परमानंद पृथ्वी का

सारिपुत्त!
कैसा अद्भुत, अपूर्व चाह
आपके जीवन की

यह चाह कब होगी
हमारे जीवन की?


राजनीति

बीमार आदमी के
महत्वाकांक्षा का खेल
मगर यही नीति करती
सभी नीतियों पर राज

और इस राजनीति का भी क्या राज!
क्रूरता, बर्बरता
और असभ्य मनुष्य का
आदिम अहंकार!

क्षमा तथागत!

सौन्दर्य इतना मोहित करता मुझे
कि क्या कहूँ आजीवन इसी में
डूबता-उतराता रहा
और मोह है तो
मुझमें अभिमान भी भारी है

अपने चित्त की गहराई में
कई-कई बार उतरने की कोशिश की मैंने
और बार-बार लौट आया
किसी शिशु की तुतलाती बोली सुन कर
उसके माथे पर लगे
काजल के टीके को देख कर
हाँ, बार-बार लौटा
किसी अज्ञातयौवना रूपसी
किसी आसन्नप्रसवा स्त्री को देख कर

बार-बार लौट आया
शून्य में ताकते
किसी मरणासन्न वृद्ध को देख कर

सैकड़ों बार किया प्रण
प्राप्त करूँ भाव-बोध से मुक्ति
पर जितना किया प्रयास
भावविभोर होता गया मैं
भाव के भूखे इस संसार में

सुंदर से होता सम्मोहित
कुरूपता से विरक्त
राग भी मुझमें
द्वेष भी मुझमें
मन-अपमान का बोध भी मुझमें

न, कह सकता, न मान सकता
तुच्छ प्राणी भी स्वयं को
और सबसे बड़ी बात तो यह कि
यह जानते हुए भी कि प्रेम से
जन्म होता दुख का
मैं मृत्युपर्यंत चाहता हूँ
पड़े रहना प्रेम में

न मैं विचारक
न सिद्धयोगी
न वैरागी
जो करता वैतरणी पार
हिंदी का एक साधारण कवि हूँ

क्षमा तथागत!

सारिपुत्त
ज्ञान कैसे घुलता करूणा में
बुद्धि कैसे मिलती है प्रज्ञा में
कैसे लीन होती है नदियाँ सागर में
सारिपुत्र!
आपने बताया

महापंडित के पुत्र आप महापंडित
दर्शन, तर्क और पांडित्य के विग्रह
भटकते, ढूँढ़ते जा ही मिले
स्रोत से एक दिन
जो विहर रहा था,
निर्विकार, निर्विकल्प, समाधिस्थ हो जगत में

महापंडित के विस्मृत हो गये शब्द भी
कहाँ तो निकले थे
शास्त्रों का पहाड़ लाद
पराजित करने बुद्ध को
पर क्षण मात्र में गल गये शास्त्र
करूणा के जल में

जिसे जीतना ही नहीं
उसे कर सकता पराजित कौन?
शिष्य बन गया शास्त्र
उस दिन स्रोत का
वह स्रोत जिससे प्रेम, क्षमा, करूणा मिल कर
हो जाते एकाकार

और वह रहता सतत् प्रवहमान ।

पथ ही ऐसा

साथ-साथ पुण्य के
चलता पथ पर पाप भी

अगर तनिक धीमी हुई
पुण्य की गति
भर जाता घड़ा पाप का

पथ ही ऐसा संसार का ।

पूर्णता

एक मिट्टी की प्याली भी
नहीं हो सकती रिक्त कभी
उस पात्र में न हो जल
पर वायु तो भरा होगा
दरअसल, जो दिखता ऊपर-ऊपर रिक्त
कभी भी वो रहा नहीं खाली

न हो तो उस कुम्हार से पूछे कोई
जब उसने सानी थी मिट्टी
तो मिलाया था पानी
पेड़ की डालियों से
पकाने के लिये प्याली
जलायी थी आग
और वे सभी मिल गये
इस मिट्टी की प्याली में

जाओ आनंद, जाओ देखो
यहाँ नहीं कुछ रिक्त
तरूवर का एक पत्ता
मिट्टी की एक प्याली भी पूर्ण

तो मनुष्य !
कैसे हो सकता अपूर्ण
और जो नहीं अपूर्ण
उसे कर सकता कौन पूर्ण?

बस, जिसने खोजा स्वयं को
वह पूर्ण
जिसने नहीं खोजा
रह गया अपूर्ण।



तृष्णा और बुद्ध

घनीभूत पीड़ा में थे सिद्धार्थ
उत्तर सदैव से
क्यों युद्ध?

जो कारण, वह तो मात्र आवरण
मूल में तृष्णा का खेल
जिसकी अग्नि सदा प्रज्ज्वलित
होते रहे भष्म
नगर, ग्राम
सनी रही सदा, रक्त से पृथ्वी

और मनुष्य है तो तृष्णा भी
उसकी लीला अनंत
जैसे असीम व्योम है तो चाँद भी
नदी है तो जल भी
पृथ्वी, तो वनस्पतियाँ भी
धूप, तो छाँव भी
पुण्य, तो पाप भी
सत्य, तो असत्य भी
एक के बिना, दूसरे को ठौर नहीं

पथ एक ही शेष
हम रहें ऐसे, जैसे हम हों ही नहीं
न आसक्ति न विरक्ति
न राग रहे न द्वेष
तृष्णा का न बचे अवशेष ।

एक उदास मित्र के लिये
वह लट्टू नचाते बच्चों को देखता
तो बन जाता लट्टू ही
दोपहर की धूप में
हरे-भरे पेड़ों को देखता
तो समा जाता उनके हरापन में

गुलमोहर, अमलतास जब लद जाते फूलों से
वह भुला जाता सुध-बुध
कुछ देर के लिये
उसकी देह बढ़ जाती आगे
पर मन उन पेड़ों को फिर-फिर निहारता
और जुड़ा जाता

किसी बूढ़े को देखता ठहाका लगाते
और शामिल हो जाता ठहाके में

उसे प्यार था पृथ्वी से
मन मोर उसका नाचता आकाश देख कर

और जैसे-जैसे गाढ़ा होता गया
उसका संसार से प्रेम
वह होता गया उदास
इसकी असारता सोचते

भाईयो! इन दिनों
वह जब भी सड़क पर दिखता है
पहले की तरह
दुआ-सलाम नहीं होता
बस, हाथ हिला गुजर जाता है

उसके मुख पर हँसी आती है
पर, पीली धूप की तरह।

गोपा
आपने ही रखा था सिद्धार्थ के वस्त्र
शिरस्राण और पदत्राण
महायात्रा के लिये
आपको नींद कैसे आती !

आपने ही जाना सिद्धार्थ की पीड़ा
संसार से मोहमुक्त हो
सत्य को जानने का
उनका संकल्प

आपने ही कहा था चन्ना से
कि जाओ कंतक का साज कस कर
पुचकारो, मनाओ प्यार से
कि सिद्धार्थ के उस अतिप्रिय अश्व को
अपने ही प्रिय को छोड़ आना होगा
राज्य से बाहर

आपको कैसे पता नहीं होगा
सिद्धार्थ के अंतद्वंद, हाहाकार को
जो उन्हें मोमबत्ती की तरह
गलाये जा रही थी
और आपको निरंतर
जलाये जा रही थी

हाँ, उस रात आपने
दारूण अभिनय ही किया होगा
सीने से फूटते चीत्कार को
करवट बदलते सहा होगा
बड़ी मुश्किल से पलकें मूँद कर
दुख को बहने से रोका होगा

विदा की वेला में
इस तरह विदा करना कि
एक बूँद अश्रु न गिरे
यशोधरा !
यह आपने कैसे किया होगा

आपने रखा सिद्धार्थ का मान
मानिनी थीं आप
एक दिन किया था सिद्धार्थ को विदा
एक दिन बुद्ध ने किया
आपको संसार से विदा

अपने अग्रज कवि की कविता में
वियोगिनी के रूप में देखा था आपको
जहाँ आपकी आत्र्त पुकार सुन
हृदय से उठता था तुमुल कोलाहल कि
सखि ! वे मुझसे कह कर जाते

तब मैं बार-बार कोसता था सिद्धार्थ को
दुखी होता रहा
आपके दुख को अनुभव कर

अब मैं आपकी कथा
सुनाना चाहता अपने अग्रज कवि को
पर न आप हैं
न मेरे अग्रज कवि सशरीर
इस दुखमय संसार में।




सम्पर्क-
मोबाईल- 09905395614

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं
)

टिप्पणियाँ

  1. बहुत दमदार हैं सारी कवितायें

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  2. अच्छा प्रयास है, बुद्ध के विचारों से परिचित कराने का ...

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  3. बुद्ध और कुशीनगर पर लिखी गई कवितायें दूर तक ले जाती है.इन कविताओं में इतिहास और जीवन साथ साथ है.बुद्ध का जीवन और दर्शन हमे बहुत आकर्षित करता है.बचपन से अब तक न जाने कितनी बार मैं कुशीनगर गया हूं और वह जगह मुझे हर बार नई लगी है..आपने क्या क्या याद दिला दिया है.

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  4. राजकिशोर जी उन कवियों में से हैं जो चुपचाप काव्यकर्म करते हैं ... अपने इस प्रिय कवि के एक नए संसार से परिचित हुआ आज ... एक सांस में सब कविताएँ पढ़ गया . इसे फिर फिर पढूंगा . बहुत अच्छी प्रस्तुति के लिए पहली बार का हार्दिक आभार !! राजन जी के नए कविता संग्रह की प्रतीक्षा के साथ उनको शुभकामनाएँ !!
    - कमल जीत चौधरी .

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  5. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 11 नवम्बर 2017 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी रचना बहुत ही सराहनीय है ,शुभकामनायें ,आभार
    "एकलव्य"

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