बाल कृष्ण पाण्डेय की पाँच गज़लें

बालकृष्ण पाण्डेय



बाल कृष्ण पाण्डेय की पाँच गज़लें

बालकृष्ण पाण्डेय एक सजग-सचेत रचनाकार हैं। शोरोगुल से दूर रह कर बराबर रचनाशील रहते हैं। आलोचनात्मक गद्य के अलावा इन्होंने कुछ कहानियाँ, कविताएँ और गज़लें लिखी हैं। आज हम इनकी ताजातरीन ग़ज़लों से आपको रु–ब–रु करा रहे हैं। तो आइए पढ़ते हैं बाल कृष्ण पाण्डेय की गज़लें।          

एक              

बिखर डाल से फूल गया है।
सब उसके प्रतिकूल गया है।।
सूख चुके हैं आम बाग के।
उगता द्वार बबूल गया है।
गंगा मंदिर सत्य अहिंसा
उसके लिए फिजूल गया है।
खुशियों में भी रोते-रोते,
जो हँसना भी भूल गया है।
खादी-खद्दर की साजिश में,
झूठा जुर्म कबूल गया है।
बेमौसम बारिश में फँस कर,
वह फंदे पर झूल गया है।

दो

वही घिसा पैमाना फिर से।
सारा ताना बाना फिर से।।
पाँच साल तक रहे गुमशुदा।
चालू आना जाना फिर से।।
आँख चढ़ाये रहे फेर मुँह।
हिला हाथ मुसकाना फिर से।।
अकड़ हुई गुम पाँव गाँव में।
बने हुए बुतखाना फिर से।।
ले बीबी बच्चों को पैदल।
गढ़ने लगे बहाना फिर से।।
कसमें सपने यादें वादे।
मिसरी सा घुल जाना फिर से।।
मंदिर मस्जिद जाति रवायत।
उकसाना उलझाना फिर से।।
दिखा दिया मैदान मार के।
देखो आँख दिखाना फिर से।।

तीन

साधो उनकी जात निराली
उनकी तो हर बात निराली
सब के दिन कटते न काटे
उनकी तो हर रात निराली
हर घर में सूखा पसरा है
उनके घर बरसात निराली
जिसको खा सुध-बुध सब भूलें
बँटती है खैरात निराली
जन-जन को बग्घी में नाधे
राजा की औकात निराली
विदा कराने निकल पड़ी अब
गूँगों की बारात निराली

चार

अपना नहीं ठिकाना घर में
गैरों का मैखाना घर में
नर तो दर-दर खाक छानते
केवल बचे जनाना घर में
पेट गृहस्थी का न भरता
रहता रोना-गाना घर में
हर कोने में मार कुण्डली
डर बैठा अनजाना घर में
मजबूरी में कला सध गयी
हर दुःख-दर्द पचाना घर में
कोई नहीं उजाड़ सकेगा
जब तक आबोदाना घर में
अपने ही रहने के खातिर
देते हैं हर्जाना घर में।

पाँच

बादल प्रलय बने हैं ऐसे।
कैसे काम चलेगा ऐसे।।
मुजरा हुआ अकाल साल में।
अपनी जेब हुई बिन पैसे।।
बच्चों ने ओले भर झोल।
माँ से बोले छेने जैसे।।
सजी रात सेठों की महफिल।
सोहर गाते जनखे जैसे।।
फिर से लगे जनाजे उठने।
गाँव-गली वैसे के वैसे।।
कारोबार चल पड़े देखो।
बाल किशन जैसे के तैसे।।


सम्पर्क-
मोबाईल- 09450945041
ई-मेल : bkpandey1990@gmail.com 
  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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