दीपेन्द्र सिवाच का आलेख 'विदा सहवाग, खेल के मैदान से अलविदा

वीरेन्द्र सहवाग
भारत में क्रिकेट का खेल अत्यन्त लोकप्रिय है। क्रिकेट के खिलाड़ियों को यहाँ पर लोग अत्यन्त सम्मान के साथ देखते मानते हैं। हमारे यहाँ क्रिकेट खिलाड़ियों की लोकप्रियता से फ़िल्मी सितारे और राजनेता तक रश्क करते हैं वीरेन्द्र सहवाग ऐसे ही खिलाड़ियों में से एक हैं जिन्हें क्रिकेटप्रेमी जनता में बेशुमार प्यार किया। वीरेन्द्र सहवाग की आक्रामक बल्लेबाजी के सभी कायल रहे हैं। वीरेन्द्र सहवाग किसी किताबी या शास्त्रीय शाट से इतर हमेशा अपना स्वाभाविक शाट लगाते थे और इसे क्रिकेट के पण्डित 'हैण्ड-आई को-ओर्डिनेशन' का नाम देते थे। अपने स्वाभाविक खेल के दम पर ही उन्होंने दुनिया के श्रेष्ठ गेंदबाजों की धुनाई की और बडी-बड़ी पालियां खेलीं। हाल ही में वीरेन्द्र सहवाग ने सबको अचंभित करते हुए क्रिकेट के खेल को अलविदा कह दिया दीपेन्द्र सिवाच ने वीरेन्द्र सहवाग के खेल और उनके पूरे कैरियर पर अपनी एक नजर डाली है। आइए पढ़ते हैं दीपेन्द्र का यह आलेख 'विदा सहवाग, खेल के मैदान से अलविदा।'           


विदा सहवाग, खेल के मैदान से अलविदा

दीपेन्द्र सिवाच
  
एक ऐसे समय में जब विद्वान श्री कालबुर्गी की हत्या और व्यक्ति के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर हमले के विरोध में तमाम बुद्धिजीवी सडकों पर उतरे हों और सांप्रदायिक असहिष्णुता और महंगाई के मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हो, इन महत्वपूर्ण मुद्दों से हट कर किसी और विषय पर बात करना थोड़ा अश्लील हो सकता है। इस समय इन गंभीर मुद्दों पर बड़े-बड़े विद्वान और प्रबुद्ध वर्ग आंदोलित है,अपने अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं लेकिन आम आदमी अपने लिए शायद महंगाई को छोड़ कर बाकी मुद्दे उतने प्रासंगिक नहीं ही पाता है। वो तो अपनी रोज़मर्रा की कठिनाईयों से दो चार होता रहता है और उनसे दो चार होता हुआ उन्हें हल करने में  लगा रहता है और कई बार उनसे भागने की जुगत में भी लगा रहता है। अपनी कठिनाइयों से पलायन करने के उसके प्रिय और सुलभ साधन हैं सेक्स, शराब और सिनेमा।  इस सूची में अब क्रिकेट को भी जोड़ा जा सकता है। गंभीर मुद्दों के बीच आम आदमी के लिए ये चीजें भी उतनी ही महत्वपूर्ण बनी रहती हैं। यही ज़िंदगी है और ऐसे ही चलती रहती है। तो चलिए गंभीर मुद्दों से हट कर हम भी क्रिकेट की कुछ बात कर लेते हैं।
                        
पिछली बीस अक्टूबर को विस्फोटक बल्लेबाज़ वीरेंदर सहवाग ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लेने की घोषणा कर के लोगों को थोड़ा सा चकित कर दियाखासकर अपने समर्थकों को जो अब भी उनकी वापसी की उम्मीद लगाए बैठे थे। ये घोषणा उनकी अपनी बेटिंग की शैली जैसी थी आश्चर्य में डालने वाली जिसके बारे में कोई भी सही सही कुछ भी नहीं कह सकता था। उनके जाने से जो खालीपन क्रिकेट में पसरा है उसे जल्द नहीं भरा जा सकेगा। वे एक शानदार खिलाड़ी थे। वे केवल बड़े खिलाड़ी ही नहीं बल्कि एक बड़े एंटरटेनर भी थे और इसी वजह से वे अपने साथ के अन्य खिलाड़ियों से अलग मुकाम पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। जिस समय वे भारतीय क्रिकेट में अपना मुकाम बना रहे थे उस समय इंडिया टीम में सचिन, सौरव, द्रविड़ और लक्ष्मण 'फबुलस फोर' का जलवा था और इनकी छाया से निकल कर उन्ही के समकक्ष जगह बनाना और टीम में उतना ही महत्वपूर्ण सदस्य वो ही बन सकता था जिसमें 'कुछ बात' हो और सहवाग में वो काबिलियत और सलाहियत थी। अपने दमदार खेल की बदौलत वे उन चारों के साथ टीम के लिए उनके जितने ही महत्वपूर्ण बने रहे। ये बात उन्हें महान खिलाड़ियों में शामिल करने के लिए पर्याप्त है। जब वे राष्ट्रीय परिदृश्य उभरे तो वे मैदान में सचिन की छाया लगते थे, कद काठी में  ही नहीं बल्कि हाव भाव और खेलने तरीके में भी। लेकिन ये सहवाग में माद्दा था कि वे उससे बाहर आए  और अपनी अलग पहचान बनाई।


उनके खेल की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि वे बहुत ही आक्रामक खिलाड़ी थे। वे अपने आक्रामक खेल से बड़े से बड़े बॉलर को अदना साबित देते थे। उनके ऑफ साइड के कट्स उनके सबसे शानदार शॉट्स थे। उनकी खेल शैली एक दिवसीय क्रिकेट के लिए ज़्यादा मुफ़ीद थी पर वे टेस्ट क्रिकेट में ज़्यादा सफल रहे। वे अपने समय के सबसे बड़े मैच विनर थे। उनके रिकॉर्ड बताते हैं कि वे कितने बड़े खिलाड़ी थे। सहवाग ने 104 टेस्ट मैचों में  49.34 की औसत और 82.23 की स्ट्राइक रेट से 8586 रन और 251 एक दिवसीय मैचों में 104.33 की स्ट्राइक रेट से 8273 रन बनाए। किसी भी भारतीय खिलाड़ी द्वारा टेस्ट मैच में किए गए तीन सबसे बड़े स्कोर सहवाग ने ही बनाए हैं- 319, 309 और 293 रन। क्रिकेट इतिहास में दो तिहरे शतक बनाने वाले डॉन ब्रैडमैन और ब्रायन लारा के बाद सहवाग तीसरे खिलाड़ी थे। बाद में ये कारनामा क्रिस गेल  ने किया। एक दिवसीय मैचों में भी उन्होंने दोहरा शतक (219) बनाया।

स्वभाव से सीधे सरल सहवाग बल्ले के हाथ में आते ही आक्रामक हो उठते थे। आक्रामक उनका सहज और स्वाभाविक खेल था। 'बॉल देखो और मारो उनके खेल का मूल मंत्र था। आक्रमण उनके खेल का स्वाभाविक भाव था।' 2010 में दक्षिण अफ्रिका की टीम भारतीय दौरे पर थी और डेल स्टेन अपनी 150 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से आग उगल रहे थे। उस समय क्रिकेट इतिहासकार बोरिया मजूमदार ने जब सहवाग से पूछा आप स्टेन का सामना कैसे करेंगे तो सहवाग ने कहा "आप हो या स्टेन क्या फ़र्क़ पड़ता है। बॉलर का काम गेंद डालना और मेरा काम मारना। वो डालेगा मैं मारूंगा।" दरअसल उनका माइंड सेट ही ऐसा था। इनिंग की पहली गेंद पर भी सिक्स लगा सकते थे और 300 रन भी सिक्स लगा कर पूरे कर सकते थे। एक दिवसीय मैचों का किसी भी भारतीय द्वारा सबसे तेज शतक (60 गेंद) उन्होंने ही लगाया है. टेस्ट मैचों में सबसे तेज तिहरा शतक और सबसे तेज 250 रन भी उन्होंने बनाए।' बात 2004 की है चेन्नई टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया की टीम चौथे दिन का खेल समाप्त होने से कुछ ही समय पहले आल आउट हो गयी। भारत को तीन ओवर खेलने थे सहवाग और युवराज बैटिंग करने गए। ऐसी स्थिति में कोई भी बल्लेबाज़ खेलना पसंद नहीं करता अगर खेलना भी पड़े तो किसी तरह विकेट बचा कर अगले दिन नए सिरे से अपनी पारी शुरू करना चाहेगा। लेकिन सहवाग ने इस दौरान तीन ज़बरदस्त चौके लगाए। शाम को जब आकाश चोपड़ा ने उनसे पूछा अब आप काफी राहत महसूस कर रहे होंगे तो आकाश की आशा के विपरीत सहवाग का जवाब था काश कुछ और देर खेल होता तो मुझे कुछ और स्कोर करने का मौक़ा मिलता।'

अक्सर उनके आलोचक उनकी इस बात के लिए आलोचना करते है कि उनका फुटवर्क ठीक नही था। ये बात सही है। उनके खेलने की शैली पारम्परिक या शास्त्रीय नहीं थी। उनका हैंड-आई कोर्डिनेशन कमाल का था और रिफ्लेक्शन बहुत ही तेज। दरअसल उनकी जो खेल शैली थी वो वैसी ही हो सकती थी जो उनकी अपनी पृष्ठभूमि से उपजी थी।


1975 वो साल है जब हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी अपनी बुलंदियों पर था। उस साल भारत ने कुआलालम्पुर मलेशिया में संपन्न विश्व कप जीता था। उसके बाद की कहानी हॉकी के ढलान की कहानी है। 1980 में ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता ज़रूर था लेकिन उस मास्को ओलम्पिक का पश्चिमी देशों ने बहिष्कार किया था और हॉकी खेलने वाले सभी प्रमुख देश वहां से नदारद थे। ये वो समय था जब क्रिकेट देश में लगातार लोकप्रिय हो रहा था। कहना गलत नहीं होगा काफी कुछ हॉकी की कीमत पर। और तब 1983 का साल आया। कपिल देव के नेतृत्व में भारत ने क्रिकेट का पहली बार विश्व कप जीता। इसने भारत में क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने में ट्रिगर का काम किया। देखते ही देखते भारत में क्रिकेट बहुत ज्यादा लोकप्रिय हो गया। अब अघोषित रूप से देश का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट ही हो गया था। यही वो समय है जब क्रिकेट का चरित्र भी बदल रहा था। सामान्यतः क्रिकेट इलीट खेल माना जाता था जिसे पहले अंग्रेज और राजा महाराजा और राज परिवार के लोग ही अधिक खेलते थे। खेलने के तौर तरीकों और आभिजात्य के कारण ही इसे जेंटलमैन गेम कहा जाता था/है। अस्सी के दशक तक कमोवेश इस खेल का चरित्र यही बना रहा और संभ्रांत लोगों के बीच लोकप्रिय बना रहा। लेकिन हॉकी के पराभव और 1983 के क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत से इसकी लोकप्रियता बढ़ने से इसके चरित्र में भी अंतर आने लगा था। अब ये खेल जन साधारण के बीच भी जगह बनाने लगा। इस समय तक ये खेल मुख्यतः बड़े-बड़े शहरों और क्लबों तक सीमित था। भारतीय टीम के ज़्यादातर खिलाड़ी दिल्ली, मुंबई, बंगलोर जैसे बड़े-बड़े शहरों से होते थे। राष्ट्रीय प्रतियोगिता में मुंबई दिल्ली और कर्नाटक तीन टीमों का बोलबाला होता था। लेकिन 1983 की जीत ने सारा परिदृश्य बदल दिया। इस जीत ने क्रिकेट को बड़े-बड़े शहरों से निकाल कर छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचा दिया। अब ये खेल बड़े-बड़े क्लबों के मैदानों से निकल कर गली मोहल्लों तक पहुँच गया। जैसे जैसे लोगों की भागीदारी बढ़ रही थी वैसे-वैसे इसका चरित्र बदल रहा था। इलीट खेल अब जनसाधारण के खेल में तब्दील हो रहा था। खेलने के तौर-तरीके बदल रहे थे। मैदानों में पसरी नफासत संघर्ष में बदल रही थी। खिलाड़ियों की भक्क सफ़ेद पोशाकों पर मिटटी और घास के हरे दाग दिखाई देने लगे थे। पहले लोग शौकिया खेलते थे अब ये लोगों का लक्ष्य बन रहा था। अब क्षेत्र रक्षक गेंद को रोकने के लिए जी जान लगा देने लगे थे। अब पैर या हाथ की जगह पूरा शरीर इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं होता था। वे लम्बी-लम्बी डाइव लगा कर भी गेंद रोकना चाहते थे। बल्लेबाज अब बेसिक्स पर उस तरह से ध्यान नहीं देने लगे थे। उनके लिए रन बनाना अधिक महत्वपूर्ण हो गया था। बैटिंग में शास्त्रीयता की जगह नैसर्गिकता ने ले ली। मैदान में पसरे एक तरह के अलसायेपन की जगह फुर्ती ने ले ली। अब मैदान में अभिजात्य साधारणता में तब्दील हो रही था। और यही इसकी असाधारणता थी, असामान्यता थी। पांच दिनी क्रिकेट के मुक़ाबिल एकदिनी क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता इसका परिणाम भी है और कारण भी।

भारतीय क्रिकेट में अभिजात्य खेल के जनसाधारण के खेल में परिवर्तन के दो बिंदु स्पष्ट दिखाई देते हैं। ये दो बिंदु हैं भारतीय क्रिकेट के दो महानायक सुनील गावस्कर और कपिल देव। गावस्कर अपनी पृष्ठभूमि, अपने व्यक्तित्व, अपने खेल की शैली तीनों में क्रिकेट के अभिजात्य स्वरुप का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे मुंबई से थे, अंग्रेजीदां थे, उनकी बैटिंग शास्त्रीय शैली का उत्कृष्ट नमूना थी, मैदान में उनके खेल चाल-ढाल, व्यवहार सबमें एक खास किस्म की नफासत और अभिजात्य आप साफ़-साफ़ लक्षित कर सकते हैं। जिस समय गावस्कर ढलान पर थे उस समय क्रिकेट का नया सितारा उभार पर था और एक नया महानायक बन रहा था। ये कपिल देव थे। वे क्रिकेट  के उस नए स्वरुप का प्रतिनिधित्व कर रहे जो क्रिकेट को जनसाधारण की भागीदारी ने दिया था। वे हरियाणा से थे। ठेठ गँवई अंदाज़ था। ये अंदाज़ उनकी खेलने की शैली में भी परिलक्षित होता है। मदनलाल, मोहिन्दर अमरनाथ, एकनाथ सोलकर, रोज़र बिन्नी की नफासत भरी मध्यम तेज गति की गेंदबाज़ी के मुक़ाबिल कपिल देव की तूफानी गेंदबाज़ी पर ध्यान दें तो गावस्कर और कपिलदेव दोनों के खेलने की शैली में अंतर साफ़-साफ़ परिलक्षित होगा। भारतीय क्रिकेट के ये दो महानायक इलीट क्रिकेट से पॉपुलर क्रिकेट तक के सफर के दो प्रतीक माने जा सकते हैं तो इन दो खिलाडियों की दो परियां- गावस्कर की 1975 के वर्ल्ड कप  के इंग्लैंड के विरुद्ध पहले मैच की 60 ओवरों में नॉट आउट 36 रनों की पारी  (172 बॉल ) और 1983 वर्ल्ड कप में कपिलदेव की जिम्ब्बावे के विरुद्ध लाजवाब धुआंधार 175 रनों की पारी और फाइनल मैच में 30-35 गज़ पीछे भागकर लिया गया वो ऐतिहासिक कैच भारतीय क्रिकेट के इस सफर के दो प्रस्थान बिंदु।


सहवाग का जन्म 1978 में होता है। 1983 में भारत क्रिकेट विश्व कप जीतता है। उस समय सहवाग के हाथ में पहली बार बल्ला आता है। जब उनकी क्रिकेट की उनकी शिक्षा-दीक्षा हो रही थी उस समय क्रिकेट का चरित्र जनसाधारण के खेल के रूप में बदल रहा था। जिसमे शास्त्रीयता से अधिक संघर्ष का स्थान था और महत्त्व भी। सहवाग में वही आया। फिर जिस वर्ग से वे आते थे उससे इसी तरह के सहवाग का जन्म हो सकता था। उस वर्ग के आगे बढ़ने के लिए अभिजात्य तौर तरीके और नियम काम नहीं आते, उन्हें अपनी योग्यता और क्षमता के भरोसे आगे बढ़ना होता है। वे बाहरी दिल्ली की निम्न मध्यमवर्गीय बस्ती नज़फगढ़ के एक निम्न मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार से आते हैं जहां वे अपने 16 कज़िन्स के साथ रहते थे। क्रिकेट का ककहरा उन्होंने नज़फगढ़ की उन सँकरी  गलियों में ही सीखा जहाँ वे आड़ा बल्ला भी नहीं चला सकते थे। हालांकि उनके सबसे शानदार शॉट्स आड़े बल्ले से ही लगते थे। जिस समय और परिस्थितियों में सहवाग क्रिकेट सीख रहे थे उससे किसी 'क्लासिक सहवाग' का जन्म नहीं हो सकता था, बल्कि वही सहवाग बन सकता था जैसे सहवाग आज हैं।

दरअसल जो भी क्रिकेट जानकार उनका मूल्यांकन परम्परागत रूप से करते है वो गलती करते हैं। जिस तरह से नई कविता का मूल्यांकन आलोचना के शास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर नहीं किया जा सकता था उसके लिए नए प्रतिमान गढ़ने पड़े। उसी तरह सहवाग का और उनके जैसे तमाम खिलाड़ियों का आकलन किताबी शॉट्स के आधार पर नहीं किया जा सकता। उनके खेल में रागों की बंदिशे आप ढूढेंगे तो निश्चय ही निराशा हाथ लगेगी। उनके खेल में शास्त्रीयता का ठहराव, निबद्धता और गंभीरता नहीं ही मिलेगी। उनके खेल में आपको मिलेगा तो लोक संगीत का नैसर्गिक सौंदर्य मिलेगा, उसका ओज, उसकी सहजता और सरलता, उसका आवेग, उसकी मस्ती मिलेगी, उसका निर्द्वंद बहाव, लय और गति मिलेगी।

जिस समय सचिन ने संन्यास लिया तो ऐसा लगा था 'कि सचिन मैदान में नहीं होंगे तो उनके चाहने वालों के लिए क्रिकेट वैसा नहीं रहेगा जैसा उनके खेलने से हुआ करता था। लेकिन मैं शायद गलत था। उनके बाद भी सहवाग मैदान में थे वे क्रिकेट खेल रहे थे और क्रिकेट वैसा ही था, कुछ मायने में उससे भी शानदार, उससे अलग। हाँ अब सहवाग नहीं हैं।  क्रिकेट अब भी वैसे ही चलता रहेगा। भारत जीतता और हारता रहेगा। किसी के खेलने या ना खेलने से क्या फ़र्क़ पड़ता  है। फ़र्क़ पडेगा तो सिर्फ सहवाग के उन चाहने वालों पर जिनके लिए क्रिकेट सहवाग का पर्याय होती थी। उनके लिए क्रिकेट वो क्रिकेट नहीं होगी जो उनके खेलने पर होती थी। अब उनके लिए वे एक याद बन कर रहेंगे उनकी स्मृतियों में, उनके ज़ेहन में, उनके ख्वाबों में, उनके सपनों में। मेरे जैसे न जाने कितने लोग उनके खेल के प्यार में थे, हैं और रहेंगे। अगर चन्दन पाण्डेय के शब्द उधार लेकर कहूँ तो 'तुम्हारे खेल के प्यार में तो स्वयं समय भी पड़ गया था', फिर मेरी क्या बिसात। विदा सहवाग, खेल के मैदान से अलविदा।  

वीरेन्द्र सहवाग





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