राजकिशोर राजन की कविताएँ



युवा कवि राजकिशोर राजन का एक नया कविता संग्रह 'कुशीनारा से गुजरते' हाल ही में बोधि प्रकाशन से आया है।  हम इस संग्रह की कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। इन कविताओं के साथ कवि की अपनी बातें इस संग्रह और कविताओं के बारे में हैं। तो आइए रु-ब-रु होते हैं राजकिशोर राजन की कविताओं से।

अपनी बात के बहाने कुछ बात

किसी कविता संग्रह में ‘दो शब्द’ या ‘अपनी बात’ लिखना या पढ़ना मुझे प्रिय नहीं है चूँकि कविता ही अंततः ‘अपनी बात’ होती है। कविता स्वयं सब कुछ का भेद खोल देती है। परन्तु इस संग्रह की बात कुछ भिन्न है। विद्यार्थी जीवन में मैथिली शरण गुप्त की ‘यशोधरा’ कोर्स में था। उसे पढ़ कर महीनों बेचैन रहा था। ‘जायें सिद्धि वे पावें सुख से .............’ जैसी पंक्तियों से सीने में दर्द उभर जाता था। सिद्धार्थ के प्रति जहाँ रोष जनमता था वहीं यशोधरा के प्रति रह-रह भक्ति भाव उमड़ जाता था। अकसर सोचा करता कि कम से कम कह कर तो जाते। नहीं कहना था, नहीं सुनना था तो फिर विवाह ही क्यो किया? परन्तु जैसे-जैसे उम्र होती गयी और बौद्ध साहित्य पढ़ता रहा वैसे-वैसे पश्चाताप से घिरने लगा। यहाँ तो बात ही उल्टी निकली। सिद्धार्थ ने चोरी-छिपे नहीं अपितु यशोधरा की जानकारी में ही गृहत्याग किया था। इसके अलावा दोस्तो, पत्र-पत्रिकाओं आदि के माध्यम से भी समय-समय पर जो बुद्ध के संबंध में जानकारी मिलती गई उससे मेरी धारणा दृढ़ होती गयी कि अपने यहाँ बुद्ध और बौद्धधर्म की समझ यथार्थ के धरातल पर नहीं, बनी-बनाई धारणाओं पर आधारित है और यही कारण है कि बुद्ध की कर्मभूमि, भारत बुद्ध से दूर है। बुद्ध, मृत्यु आदि अथवा भोग से उब कर भिक्खु नहीं बने थे। उनके समय शाक्य तथा कोलिय गणराज्यों के मध्य नदी जल के बँटवारे को ले अकसर तनातनी, युद्ध होता रहता था। सिद्धार्थ इस हिंसा के साथ मानव समाज में व्याप्त हिंसा का सदा के लिये अंत चाहते थे। इस तथ्य से भी मैं बहुत प्रभावित हुआ कि आज साहित्य में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जो अब स्वतंत्र रूप ग्रहण कर आगे की राह चल पड़ा है का पथ बुद्ध के धम्म ने ही प्रशस्त किया है । बुद्ध धर्म की जो बात सबसे ज्यादा हमारा ध्यान आकृष्ट करती है वह यह कि अज्ञात को लेकर जितनी भी मान्यताएं हैं वह उन सभी की उपेक्षा करता है और जो दैनन्दिन की घटनाएं हैं उन्हीं को विचारणीय ठहराता  है। बौद्ध धर्म का आदर्श न स्वर्ग है और न किसी परमात्मा या ब्रह्म में लीन होना। तात्पर्य यह कि बुद्ध का धम्म विश्वास पर नहीं, तर्क पर खड़ा है। चूँकि यह विश्वास करने की चेतना पहले अपने आप को धोखा देने और बाद में दूसरों को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बौद्ध धर्म का मानना है कि वास्तविक धर्म सत्य की खोज है। धर्म का आधार मिथ्या विश्वास, परंपरा, विश्वास करने की चेतना व्यवहारिक उपयोगिता न होकर यथार्थ बुद्धिवाद होना चाहिए। तथागत चाहते थे कि हर आदमी संदेह से प्रारंभ करे, पूछे और इससे पहले कि वह उनके बताये हुए पथ पर चले, पूरी तरह अपना समाधान कर ले। इसलिए शाक्यमुनि यथार्थ और मिथ्या का निर्णय करने के लिए किसी शब्द-प्रमाण, किसी इलहाम को आधार न मान, कागज की नाव मानते थे। उनके अनुसार यदि कोई व्यक्ति श्रद्धामात्र से ही किसी सत्य को स्वीकार कर लिया हो, तो वह ऐसा ही है जैसे कि किसी चम्मच में शहद हो, किन्तु चम्मच उस शहद की मिठास से सर्वथा अपरिचित  हो। इस धर्म में कोई भी बात गोपनीय अथवा रहस्यमय नहीं है । कोई भी महान उपदेशक इतने ईश्वर सदृश नहीं हुए जितने बुद्ध और कोई भी महान उपदेशक इतने मनुष्य सदृश नहीं हुए जितने बुद्ध। बौद्ध धर्म की भीतरी भावना समाजवादी है। यह सामाजिक उद्धेश्य की सिद्धि के लिये मिल जुल कर काम करने की शिक्षा देता है इसलिए यह उस औद्योगीकरण का सख्त विरोधी है जिसने अबाध, दुर्गंधपूर्ण, अनैतिक और करूणारहित धनार्जन के लिए किए जाने वाले संघर्ष को ही मानवजीवन का परमादर्श बना रखा है । आज की व्यापारिक सभ्यता केवल स्वार्थसिद्धि पढ़ाती है, स्वार्थसिद्धि सिखाती, रटाती है और उसी को प्रेय और श्रेय मानती है। ऐसे में, बहुतों की तरह मुझे भी लगता है कि आज बुद्ध की सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

        जो बौद्धधर्म पर अक्रियावादी होने का आरोप मढ़ते हैं वे बौद्धमत को नहीं जानते या जानबूझकर उसे बदनाम करते है। । धम्मपद कहता है - ‘आलसी और अनुधोगी के सौ वर्षो के जीवन से दृढ़ उद्योग करने वाले के जीवन का एक दिन श्रेष्ठ है ।’ यह बौद्ध धर्म ही ऐलान कर सकता है कि व्यक्ति खुद अपना स्वामी है ! दूसरा कौन हो सकता है  (अत्तवग्गो) । बुद्ध स्वयं का स्वामी होने को कहते हैं - यह सीधी-सादी बात नहीं  है अपितु मनुष्य की सर्वोच्चता का जयघोष है । बुद्ध, मनुष्य को अपना पसंदीदा रंग चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं । किसी खास रंग को चुनने का आग्रह वे नहीं करते, न इसके लिए वे ईश्वर या स्वर्ग-नर्क का भय दिखाते हैं । उन्हें मनुष्य की स्वतंत्रता, ईश्वर से भी श्रेष्ठ महसूस होती  है । महापरिनिब्बान के समय भी वे आनंद की अपनी विरासत ‘अप्पदीपो भव’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो ही दिया । कोई सपना, कोई मिथ्या अवलंबन नहीं दिया जिस पर मनुष्य सर्वाधिक भरोसा करता   है । बोधि धर्म केवल वैचारिक रूप से ही क्रांतिकारी नहीं अपितु प्राणियों के बीच समानता, करूणा का तथा समाज में नये यथार्थ और अनुभव के धरातल पर खड़ा भविष्य का धर्म है । यह माक्र्सवाद और समाजवाद का पूर्वज है वहीं विश्व में मानववाद की स्थापना का आधार भी है । संसार जब जाति, समुदाय रंग, देश, भाषा आदि तमाम संकीर्णताओं से उबर जायेगा, बुद्ध का धर्म स्वाभाविक रूप से सभी का दीपक बनेगा । ‘सब दुखमय है - जब बुद्ध ऐसा कहते हैं तो हमारा ध्यान जीवन की ओर खींच रहे होते हैं, यथार्थ की ओर खींच रहे होते हैं । और हम उन्हें दुखवादी मान लेते हैं । वास्तव में, जीवन जो पानी के बुलबुले के समान है उसे भय के कारण देखने को हम आज तक तैयार नहीं हैं।

   संसार के लोग इतने प्रबल रूप से संस्कारग्रस्त और सुविधावादी हैं कि उन्होंने बुद्ध के धम्म को पढ़ा, किन्तु समझा नहीं, यदि वे बुद्ध को समझ लेते तो बुद्ध धर्म पैदा ही नहीं होता। बुद्ध ने हमें जो कुछ कहा वो हमें बौद्ध बनाने के लिये नहीं कहा, बल्कि बुद्ध होने के लिये कहा । बुद्ध मूर्तिभंजक थे परन्तु दुनियादारी का खेल देखिए कि आज संसार में सर्वाधिक प्रतिमाएं उन्हीं की है । संसार का अपना अलिखित संविधान है, उसने राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा आदि को अपना तारणहार, पथप्रदर्शक माना परन्तु उसकी चाल अपनी, चलन अपनी और चरित्र अपना है । सब कुछ को उसने अपनी सुविधानुसार ढाल लिया।

        भारत में वशिष्ठ के जनविरोधी ब्राह्मणवाद और विश्वामित्र के जनपक्षधर संस्कृति के बीच वैदिक युग से प्रारंभ हुआ संघर्ष इतिहास के विभिन्न चरणों में क्रमशः विकसित होता रहा, जिसका पूर्ण परिपाक बुद्ध की विचारधारा में हुआ।

        ऐसे समय में जब विश्व युद्धोन्माद, आतंक, भय, अंधविश्वास, मिथ्याचार से अशांत है, ऐसा लगता है मानो भरोसे की अकालमृत्यु हो गयी, ऐसे में बुद्ध और अधिक याद आ रहे हैं । बुद्ध को जानना एक प्रकार से अपनी परंपरा और प्रतिरोध के इतिहास को जानना भी है वहीं दूसरी ओर उम्मीद को नाउम्मीद नहीं होने देने का जतन भी है । मैंने भी जानने का प्रयत्न किया और उसी क्रम में बुद्ध, उनसे जुड़े प्रसंगों, घटनाओं, पात्रों आदि के ऊपर एक काव्य संग्रह लाने की साध बढ़ती गई । यह संग्रह उसी साध को धीरज बँधाने का उपक्रम मात्र है । सुधीजनों, काव्यप्रेमियों और मित्रो का आभारी हूँ जिनके प्रेम से मेरी काव्य-यात्रा में यह पड़ाव आया

राजकिशोर राजन की कविताएँ

कला और बुद्ध

सौन्दर्य तो पात-पात में
क्या देखना पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण
ऊपर-नीचे
वह नित परिवर्तित सौन्दर्य
है कण-कण में विद्यमान
वही सत्य का आधार
जिसका, न आर - न पार
जो कर लेता
अपने हृदय में
उस अप्रतिम सौन्दर्य का संधान
कला करती उसी का अभिषेक
करती उसी का सम्मान

जब तक, इसका नहीं ज्ञान
तब तक, सकल मान-अभिमान।



कंतक

क्यों कंतक !

पहले अश्व थे शायद तुम
जिसके समक्ष एक राजकुमार
बन रहा था भिक्खु कुमार

युद्ध और योद्धाओं के साथ
रहने वाली जाति तुम्हारी
तुम्हारे माध्यम से की होगी
यह विरल साक्षात्कार
कि जो लड़ा नहीं युद्ध
देखा नहीं रक्त की नदी, चित्कार, हाहाकार
नहीं समझ पायेगा
प्रेम का अर्थ
उसके लिए क्षमा, शांति, अहिंसा व्यर्थ

एक तुम ही थे
जिसने देखा
युद्ध के विरूद्ध
एक राजकुमार का सम्यक् संकल्प

जब लौटे होगे तुम
सदा के लिए
अपनी पीठ से उतार कर सिद्धार्थ को
तुम्हारे भी अश्रु
गिरे होंगे अवश्य
उस दिन, उस क्षण
तुमने लिख दी होगी
कैसी तो अद्भुत कविता
क्यों कतक !

तुम नहीं हो
पर, तुम्हें देख रहा हूँ मैं
तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ मैं
और मुश्किल से ही
पढ़ रहा हूँ वह कविता

तुम्हें धन्यवाद कंतक !

नोटः- कंतक- सिद्धार्थ का प्रिय अश्व जिस पर बैठ वे कपिलवस्तु की सीमा से बाहर आये थे ।


  राग

अकस्मात् ही हुआ होगा
कभी दबे पैर आया होगा
ईर्ष्या-द्वेष
घृणा-बैर आदि के साथ
जीवन में राग

फिर न पूछिए!
क्या हुआ ...................
कुछ भी नहीं बचा
बेदाग।


सारिपुत्त की स्वीकारोक्ति

तथागत ! मैंने नहीं देखा विस्तृत नभ को
देखा पृथ्वी को
और हो गया पृथ्वी ही

देखा जल की ओर
और हो गया जल ही

गुरूवर ! देखा अग्नि को प्रज्जवलित
और हो गया अग्नि ही

देखा मंद-मंद बहते वायु को
और हो गया वायु ही

नहीं देखा कभी अपनी ओर
द्रष्टा बन अपनी ही काया को

पृथ्वी की भाँति
मुझे ज्ञात, मात्र स्वीकार
प्रवाहमय मैं जल की भाँति
अनासक्त भाव से
ग्रहण किया संसार

शुभ-अशुभ, असुंदर-सुंदर सभी
हो जाते मुझमें निमग्न
दुर्गंध हो या सुगंध सबको ले चलता
वायु समान

तथागत, मैं हूँ ही नहीं
और सभी में
मैं विद्यमान
जैसी आपकी देशना
जैसा आपका ज्ञान

सारिपुत्र की यह स्वीकारोक्ति
एक न एक दिन हो
हमारी स्वीकारोक्ति ।

नोटः-    सारिपुत्त- बुद्ध के प्रमुख शिष्य



कमल सरोवर

जिनके लिए निर्मित
अलग-अलग ऋतुओं के लिए
सुन्दर, सुसज्जित प्रासाद
और सामने कमलसरोवर

उस सरोवर में शोभित
श्वेत-नील, कमल दल
पर उन्हें उसी से हुई प्रतीति
जब संसार ही असार
कमल सरोवर में क्या सार ?

जिन्हें  ढूँढ़ना है
असार में सार
उन्हें जाना ही पड़ता
कमल सरोवर के पार

अन्वेषकों को नहीं लुभाता
सांसारिकों के ही मन भाता
कमल सरोवर

और यह सरोवर
ले जाता नहीं पार
पहुँचता है वही
जहाँ से कोई करता प्रस्थान
संसार का यही व्यापार

नोटः- कहा जाता है कि सिद्धार्थ के लिए कमल सरोवर का निर्माण कराया गया  था ।



स्वास्ति

तुम-सा बड़भागी कौन ?
जिसे शिष्य बनाने गुरू
स्वयं पहुँचे द्वार

सच ! स्वास्ति
वह शिष्य क्या
जो गुरू को ढूँढ़े
शिष्य वह
जिसे गुरू खोजे
नगर-नगर, पर्वत-पर्वत, गाँव-गाँव

तुम-सा बड़भागी कौन ?
दरिद्रता में डूबे
स्वजन-परिजन तुम्हारे
हर्षोल्लास से विदा किए तुम्हें
जाओं सिद्धार्थ के संग
उनके अश्रुपूरित नेत्रों में
तुम चमकते रहे
सुबह के सूर्य की मानिंद

तुम सा बड़भागी कौन ?
अनाथ स्वास्ति !
जो बालपन से भैंस चराते, चारा काटते
उन्हें धोते, खिलाते
प्राप्त हो गये बुद्ध को, धम्म को, संघ को

सच ! स्वास्ति
तुमने किया प्रतिमान स्थापित
जिसने स्वयं को छोड़ा
हुआ मुक्त
कर सकता वही
पृथ्वी को श्रीयुक्त

उरूबेला की सुजाता
उसी गाँव के तुम
जीवित है सुजाता
जीवित हो तुम

आज रहते तुम तो देखते
हम मुट्ठि में लेना चाहते संसार
ठीक उस शिशु की भाँति
जो गेंद पा, पा जाता संसार
हमारे ज्ञान-विज्ञान पर
तुम कितने हँसते स्वास्तिि !

सुन रहे हो स्वास्ति !

नोट - स्वास्ति उरूबेला नामक गाँव में रहने वाला एक निर्धन, अशिक्षित युवक


दंगश्री

पृथ्वी से ऊपर नहीं
पृथ्वी पर ही
है संभावना
मुक्ति, आनंद की
प्रेय और श्रेय की

दंगश्री पर्वत की ओर
उँगली उठा
बुद्ध ने कहा था
आकाश को

और सदा से
आकाश की ओर टकटकी लगाए
मनुष्य को कहा
लौटने को पृथ्वी पर

दंगश्री, दंग है
अब तक ।

नोट- दंगश्री एक पर्वत का नाम है ।



जेतवन

लाभ-लोभ की धुरी पर
खड़ा पहाड़ ढह गया होगा
पृथ्वी को टुकुर-टुकुर ताकता
परलोक का भय
मर गया होगा

जो जहाँ होगा
निमिष-मात्र के लिए
ठहर गया होगा
जब जेतवन में कहा होगा गौतम ने
कि दुब्प्रज्ञ, एकाग्रतारहित, अनूद्योगी
सद्धर्म से दूर
सदा रहते, निर्वाण के पथ से अनजान

और उन अनजानों के
सैकड़ों जीवन से उत्तम
एक जन्म में सद्धर्म का ज्ञान

डस दिन जेतवन
जीतवन हुआ होगा
सभी अट्टालिकाओं राजप्रासाद
भव्य महलों, गढ़ों से ऊँचा
खड़ा हुआ होगा

पात्रता कैसे मिलती है किसी को
इस संसार में
जेतवन से बेहतर
कौन जानता होगा ।



कुचक्र

कुश की नोंक से
कोई करे भोजन
पर मन रमे सदैव भोजन में

ध्यानस्थ रहें कहीं अरण्य में
पर मन रहे संसार में
जीवन बीते त्यागमय
पर तृप्त हो मन भोग में
हो दृष्टि सदैव सन्मार्ग पर
पर मन घुट जाए किसी गह्वर में

जितनी ही अधिक होगा ज्ञान
उतना ही होगा अनर्थ
प्रज्ञाहीन जीवन में

कुचक्र उस मन का
जो रहता कहीं तन में
पर विचरता हर कहीं
सभी ज्ञात-अज्ञात देश में
न जाने किस-किस वेश में

सदा से चलता रहा चक्र
सदा से कुचक्र।


भिक्खुनी महाप्रजापति

आप ने बताया
जन्म देने मात्र से
कोई स्त्री
नहीं होती माता

और आप तो ऐसी माता
जो बन जाए
उस पुत्र की शिष्या

कितना अद्भुत
कैसा अपूर्व
आपने स्थापित किया
मधुर प्रतिमान
जहाँ मौन हो जाते
सकल ज्ञान, अभिमान

अब तक तो
पुत्र ही करते रहे
माता का अनुगमन
आपने पुत्र का कर अनुगमन
बढ़ाया पुत्रों का मान

पुत्र वह धन्य था
धन्य थीं आप माता

पुत्र हो या अन्य कोई
श्रेष्ठता को मानना
है श्रेष्ठता का पाना।


नवारंभ

अनगिन बरसों से
हम तमाम जल्पना-कल्पना करते रहे
नाना मत, नाना दर्शन, नाना सिद्धांत
गढ़ते रहे
पर कहाँ जान पाये कभी!
मृत्यु के अनुभव को

बस, उस अज्ञात से भयातुर
त्राण पाने हेतु
भाँति-भाँति के उपाय करते रहे
क्या अद्भुत! हमारा अन्वेषण
कि अमरता, क्षणभंगुरता की गोद में बैठ
ढूँढ़ते रहे

एक फूल, एक पत्ते से भी
नहीं जान पाये हम
कि मृत्यु अंत नहीं
होता नवारंभ
अब तक रेत-कण गिनते रहे
स्वर्ग, अमृत, मुक्ति की बाट
जोहते रहे।   



क्षण

क्षण भर में
दुनिया बदल जाती
क्षण भर की यात्रा में
हम नाप लेते संसार

क्षण भर में
रोम-रोम से श्रवण कर
जो हो जाता एकाकार
मिट जाती भ्रांतियाँ
स्फटिक-सा पारदर्शी लगता संसार
खुल जाता भेद
भेद कर आर-पार
इस संसार में जो कुछ घटता महान
क्षणों में घटता
कुहासा, पल में हटता

ऋषिपत्तन के मृगदाय में
बुद्ध का धर्म-चक्र-प्रवर्तन
और श्रवण मात्र से संबोधि को प्राप्त
कोंडन्न के लिए खुल गया द्वार।

कोंडन्न- गौतम बुद्ध के समकालीन और कालांतर में शिष्य


राजकिशोर राजन








सम्पर्क - 
मोबाईल -09771425667

टिप्पणियाँ

  1. Priy agraj aur mitra Rajkishor Raajan ji ke is sangrha Ka intzaar tha. Ab aa gya . Yah sangrha Hindi kavita mein nitaant alg jgha banaayega. Jahan tak janta hun buddh par aadhaarit Hindi mein yah phla sangrha hai. Jitni achchhi kavitain hain vaktvya bhi utna Hi saaf aur spasht. Apne priya Sathi ko meri ashesh Shubhkaamnayen aur haardik badhai!! Santosh Bhai ji aapka Dil se aabhaar!!

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-01-2016) को "मैं क्यों कवि बन बैठा" (चर्चा अंक-2232) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'