अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह 'यही दुनिया है पर शशिभूषण मिश्र द्वारा लिखी गयी समीक्षा

अजय पाण्डेय

युवा कवि अजय कुमार पाण्डेय कुछ उन कवियों में से हैं जो चुपचाप अपना काम करने में विश्वास करते हैं। वे कविता के साथ-साथ जीवन में भी ईमानदारी बरते जाने के पक्षधर हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में सघनता और तरलता है। इन कविताओं में जो पैनापन है वह हमारा ध्यान अनायास ही अपनी तरफ खींचता है। अजय की अधिकाँश कविताएँ आकार में तो छोटी हैं, लेकिन उनका कैनवास बहुत बड़ा है। ये ‘देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’ की तरह हैं। पिछले वर्ष पुस्तक मेले के समय अजय कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ का विमोचन हुआ था। युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने अजय कुमार पाण्डेय के इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है जो ‘पूर्वग्रह’ के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। पहली बार के पाठकों के लिए इसे हम आज यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 
       
जीवन की संभावना तलाशती कविताएँ 

डॉ0 शशिभूषण मिश्र             

‘यही दुनिया है’ युवा कवि अजय कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह है। इस रचना में अपने समय के जागरूक और संवेदनशील कवि के रूप में वह मनुष्य-जीवन के बुनियादी सवालों से मुठभेड़ करते हैं। संग्रह की अधिकांश कविताएँ हमें न केवल इन सवालों से वाबस्ता कराती हैं अपितु अन्दर की ताकत से अपने पक्ष में खड़े होने की मांग भी करती हैं। लेखकीय तटस्थता और जनपक्षीय प्रतिबद्धता के अभाव में कोई भी रचना न तो समाज में अपना सार्थक हस्तक्षेप कर पाती है और न ही मनुष्य के संकट में उसका मार्गदर्शन कर पाती है। रचना की सार्थकता तभी है जब उसकी भावान्विति के संस्पर्श से पाठक अपने अन्दर बेचैनी महसूस कर सके और मनुष्य जीवन की गरिमा बचाए रखने की जद्दोजहद खुद को शामिल कर पाए। संग्रह में कुल 93 कविताएँ हैं जिनमें से ज्यादातर आकार में छोटी होते हुए भी संवाद बहुल हैं।

इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की यात्रा के आधे पड़ाव तक पहुंचने के बाद भी जब हम अपने समकाल पर नज़र दौड़ाने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि खरीदने-बेचने और अधिक से अधिक दिखाने की अंधी प्रतिस्पर्धा के कारण आपसी रिश्तों के बारीक रेशे छिन्न-भिन्न हो गए हैं। भूमंडलीकरण के पूंजीवादी केकड़ों ने अपने जहरीले पंजों से हमारी सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। ऐसे बेहद जटिल समय में कवि ने अपनी अभिकल्पना के सहारे परिवार को केंद्र में रख कर संबंधों के संसार को आत्मीय छुअन से पुनर्निर्मित करने की कोशिश की है। ये कविताएँ हमें जीवन के उन अनुभवों तक ले जाती हैं जिन्हें किताबी ज्ञान से नहीं अर्जित किया जा सकता। जीवन के गहरे प्रवाह में उतर कर मर्म को भेदती ऐसी ही एक महत्वपूर्ण कविता है – ‘माँ के लिए’। माँ अपने शिशु को जितनी मृदुता और आर्दतापूर्ण जतन से पालती है, उतनी ही सचेतता और सततता के साथ जीवन रूपी विकास के हर पड़ाव पर स्नेह की बूँदों की बारिश करती उदारता के रंग भरती है। वह खुद अन्दर ही अन्दर धीमी लौ की तरह जलते हुए भी जीवनपर्यंत हमारी दुनिया में वत्सलता का शीतल जल उड़ेलती रहती है। माँ की इस दुनिया के पीछे की एक और दुनिया है जिसमें उसकी आत्मा का रसायन छीज चुका है। उसकी आँखों के कोरों में अटकी उदासी को हम शायद ही कभी महसूस कर पातें हों, पर कवि इसे महसूसता है –

‘मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता
माँ के लिए
जो बचपन में नींद के लिए दी गई
उसकी थपकियों की मुलायमियत बताए
जो बताए लोरी की मिठास में मिश्री की मात्रा
और मेरे बचपन से गीले
उस आँचल को
अभी तक
कोई भी हवा
क्यों न सुखा सकी? ’ (पृष्ठ-13)

माँ पर कई कविताएँ हैं ; जिनमें, ‘माँ :एक नदी’, ‘वात्सल्य’, ‘असह्य दिनों में माँ’, ‘बँटवारा’ मुख्य रूप से हमारा ध्यान खींचती हैं। माँ के जीवन के उन तमाम अँधेरे कोनो तक धंस कर कवि ने उसके मन पर पड़ी उन उदासियों की तरल रक्तिम रेखाओं की निशानदेही की है जो प्रायः एक पुरुष पूरे जीवन नहीं कर पाता –

‘असह्य दिनों में
अपनी अनुपस्थिति में भी
और हमने जब भी देखा
और जहां देखा एक माँ को
यमराज से लड़ते देखा
कहीं कोई ईश्वर तो दिखा ही नहीं
फिर कैसे कहूं
बुरे वक्त में आता है वही काम?’ (पृष्ठ-82)

माँ पर लिखी इन कविताओं में कहीं भावनाओं का लहराता संसार है तो कहीं उसके वात्सल्य की स्निग्धता –

‘माँ की गोद में
उसके आँचल से ढका एक बच्चा
नींद में आँख बंद किए
दूध पी रहा है
और माँ
उसकी रगों में
नींद सी उतर रही है।’ (पृष्ठ-24)

कवि यहाँ अनकहे की बुनियाद रचने की कोशिश कर रहा है। माँ के व्यक्तित्वांकन की यह अन्यतम  कविता है। माँ जब भी उदास होती है या कठिन परिस्थितियों में असहज होती है तब उसकी बेटी सखी सहेली बन उसके साथ खड़ी होती है पर यह बेटी जब ब्याह कर विदा कर दी जाती है तो माँ जीवन में एक बार फिर अँधेरा गहराने लगता है। ऐसे घुप्प वर्तमान से भाग कर वह स्मृतियों के सहारे अपने भूत में लौटती है और कुछ समय के लिए ही सही अपने सारे कष्ट भूल जाती है –

‘एक माँ
इस समय
बेटी के ख्यालों में खोई है
एक खामोश नदी बह रही है।’ (पृष्ठ-49)

माँ का खामोश नदी के रूप में बहने का बिम्ब अत्यन्त प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।  

संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें स्त्री की जिन्दगी के अक्षांश-देशांतर की परिधियों तक प्रवेश करते हुए कवि उसके उलट –पुलट संसार की शिनाख्त करता है। अपने परिवार के खातिर वह कितने विराम चिन्हों को रौंदती जीती रहती है। यहाँ स्त्री के उलझे-अनमने जीवन का मर्म बिंधा है। कवि का अनुभव संसार स्त्री-जीवन के उजले-गंदले प्रवाह में धंस कर उस सत्य को समझ पाता है जहाँ स्त्री एक स्वप्न को पूर्ण करने में अपने कितने स्वप्नों को स्वाहा कर देती है। स्वप्नों के टूटने की पीड़ा का बोध कितना गाढ़ा होता है यहाँ यह समझ पाना मुश्किल नहीं है। एक स्त्री किस तरह पीड़ा के इस बोध को परिवार–समाज के पूरे होने वाले स्वप्न के स्वाद के साथ घुला –मिला कर एकमेक हो जाती है। ‘अच्छी औरतें’, ‘तुम्हारा होना’, ‘रिक्त मन बज उठा’, ‘कोठे पर’, ‘नई साजिश’, ‘बेटी आई है’, ‘वह औरत’, ‘मेरे भीतर तुम्हारी उपस्थिति का सबूत,’ ‘तुम’, ‘स्त्री और नदी’, जैसी कविताएँ स्त्री-जीवन की अनुभूतियों का दस्तावेज हैं। एक पुरुष द्वारा नारी मन के अंतर्द्वंदों का ऐसा सजीव चित्रण हमें नए सिरे से आश्वस्त करता है कि स्त्रियाँ ही स्त्रीवादी नहीं हो सकती हैं पुरुष भी हो सकते हैं। यहाँ हिंदी की प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर निर्मला जैन का वाक्यांश सहज ही याद आता है जिसमें उन्होंने कहा है कि मानव के वृहद अनुभवबोध को स्वानुभूति और सहानुभूति के दायरे में बांधना मुश्किल है। यहाँ स्त्री विमर्श नहीं, बल्कि घटनाओं, चरित्रों एवं संवेदनात्मक अनुभूतियों के माध्यम से रूपाकार ग्रहण करता एक स्त्रियोचित विवेक है –

‘जब भी गढ़ते हो
नारी सौन्दर्य का
कोई नया प्रतिमान
एक नई साजिश रच रहे होते हो
उनके खिलाफ।’ (पृष्ठ-74)
  

इन कविताओं में कहीं प्रेम का उजास है तो कहीं जीवन-सौंदर्य  -

‘चाँद कहीं घर में ही होता है
जब तुम होती हो घर में
अंट नहीं पाती चांदनी ।’ (पृष्ठ-19)

दरअसल जीवन में किसी को पाने की लालसा जहां ख़त्म होती है सौंदर्य वहीं से शुरू होता है। संबंधों का यह संसार बेहद सहज तरीके से हमें अपना बना लेता है और हम इससे इस कदर जुड़ते जाते हैं जैसे अपने ही जीवन का कोई हिस्सा रहा हो जो हमारी मुट्ठियों के सुराखों से रिस चुका है।
‘स्त्री और नदी’ अपनी विषयवस्तु और कहन दोनों ही आयामों में बहुत संश्लिष्ट और प्रभावी कविता है। नदी जो निरन्तर एक यात्रा में रहती है, कभी न ख़त्म होने वाली अनथक यात्रा। यह कहा जा सकता है कि सागर से मिल कर तो उसकी यह यात्रा पूरी हो जाती है! फिर वह कभी न ख़त्म होने वाली यात्रा कैसे? बाहरी तौर पर तो सागर से मिलने के बाद उसकी यात्रा का अंत हो जाता है पर उसकी यात्रा यहाँ भी ख़त्म नहीं होती। स्त्री की यात्रा भी कभी पूरी नहीं होती क्योंकि वह स्वयं जीवनदायिनी है, जीवन देने वाली शक्ति ही यदि रुक गई तो सृजन संभव ही नहीं हो पाएगा। कितने–कितने रूपों में वह अवतरित होती रहती है और मानवजाति को जीवन और आकार देती उसका पालन- पोषण करती है। इसीलिए कवि ने स्त्री और नदी को अभिन्न माना है  

‘जब कोई नदी सूखती है
उसे एक स्त्री में
बहते हुए पाता  हूँ
इसीलिए कह रहा हूँ
जब तक स्त्रियाँ हैं
दुनिया की तमाम नदियों के
सूखने की चिंता से बाहर हूँ मैं।’ (पृष्ठ-113)

संबंधों के इस वितान में माँ ही नहीं पिता भी हैं जिनका जिक्र बार –बार आता है। ‘पिता’, ‘पिता और पहाड़’, ‘बंटवारा’, ऐसी कविताएँ हैं जिनमें हम पिता के उस जीवन से परिचित होतें हैं जहां दरकते रिश्तों की संकटमयी  परिस्थितियों के बरक्श दुर्धर्षता और जीवटता का संकल्प पैबस्त है। ताउम्र परिवार की जिम्मेदारी ढोते हुए पिता अपने हिस्से का जीवन भी नहीं जी पाते, मानों उनका जीवन भी परिवार के सदस्यों की मानिंद कई हिस्सों में बंटा हो और इन्हीं हिस्सों से मिल कर ही उनका समूचा अस्तित्व बनता हो। परिवार को समेटने और एक करने में ही उनका जीवन गुजर जाता है और पिता का अस्तित्व कभी पूर्ण नहीं हो पाता  -

‘पहले उनके भाइयों ने उनको बांटा
बाद में हम भाइयों ने
ता-उम्र
और...सम्पूर्ण नहीं हो पाए पिता।’ (पृष्ठ-14)

‘पिता और पहाड़’ पूंजीभूत अनुभवों की कविता है। यह जीवनानुभव  वक्त की खुरदुरी पगडंडियों से गुजरते हुए ही मिलता है क्योंकि जीवन कोई सपाट रास्ता नहीं है। संग्रह में बच्चों पर कई अच्छी कविताएँ हैं जो हमें भविष्य की उम्मीदों तक ले जाती हैं, जिनमें- ‘बच्चे का खेल’, ‘बच्चा बड़ा हो गया है’, ‘बच्चे’, ‘बच्चे के दांत’, ‘सवाल’, ‘बड़ा होना’ प्रमुख हैं। 
      
आज मनुष्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है! इसका निर्धारण कर पाना मुश्किल है, ऐसा इसलिए भी कि चुनौतियां बहुआयामी हैं। मनुष्यता को बचाए रखने की संभावनाएं विरल हैं किन्तु कवि इस संभावना को जिलाए रखने में अहर्निश तत्पर है। संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता बड़ी आँखों से देखे सपने नहीं मरते अपनी अंतर्वस्तु संरचना, और शिल्प में बेजोड़ है। कवि यहाँ एक वृहत्तर जीवन की अर्थ-लय और गति को पकड़ने की कोशिश करता है  -

‘सरहद दो मुल्कों के बीच से नहीं
लोगों के सीने से गुजरती है
अपनी जमीन से दर-बदर लोग
लाख समेट लें सब कुछ वहाँ से
मगर बहुत कुछ छूट जाता है वहीं
...उनका अपना मौरूसी शहर
उनको याद करता है
जैसे किसी माँ का मन
परदेश गए बेटे को
लौट आने को कहता है
और गाँव पर पड़े पिता की बूढ़ी आँखें
नींद न आने तक
उसका रास्ता निहारती हैं।’

विस्थापन की इस पीड़ा के अवसाद से घिरे व्यक्ति के सामने मानो अंतिम शक्ति भी निफल हो चुकी हो। परिस्थितियों की विवशता समूचे परिवार को बेरहमी से विच्छिन्न कर देती है। ऐसे में कवि जीवन में एक नवीन संभावना का विधान रचता है –

‘तुम्हारे पस्त पड़े
मकान की देहरी पर
स्कूलों के हजारों बच्चे
हरी –हरी दूब पर
हँस रहे हैं
लड़ रहे हैं
गिलहरियों सा कुलाँच रहे हैं
अगर आ सको
तो आकर देखो
वर्षों पहले तुमने जो देखे थे सपने
उन्हें कागजों पर उकेरते हुए
और चटख रंग उनमें भरते हुए
यहाँ से विदा हो गए
वे आज जी उठे हैं
बड़े हो रहे हैं।’ (पृष्ठ-120 )।

समाज के समक्ष सकारात्मक और अग्रगामी विकल्प विकसित किये जाने में ऐसी कविता की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह कविता अपने रूप गठन और अभिव्यक्ति में कुछ ऐसी है कि जहां यह इति ग्रहण करती है वहीं से एक नई शुरुआत होती है। लगता है अपने ठाँव से एक लम्बी यात्रा में मिले अनुभव यहाँ आकर पूंजीभूत हो गए हों

‘बड़ी आँखों से देखे सपने नहीं मरते
व्यक्ति की मौत सपनो की मौत नहीं होती
मरने के बाद भी
वे जवान होते हैं
आकार लेते हैं।’ (पृष्ठ-120)

इस कविता के सन्देश को  इस काव्य संग्रह का प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। जीवन की नवीन संभावनाओं के उपस्थापन में इस कविता का अपना अलग ही महत्व है।
भूमंडलीकरण ने हमारी जीवन –शैली में इस कदर परिवर्तन किया है कि हम अपने आसपास की दुनिया से, उस दुनिया में उपस्थित छोटी-छोटी चीजों से कट गए हैं। बाजारीकरण की अंधी दौड़ ने ऐसी तमाम चीजों को जीवन से ख़ारिज कर दिया है जो हमारे सामूहिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं –

‘उन दिनों
नोन –मिर्चे की चटनी संग
खेत में मटर और चने का साग खाने
और अंगुलियाँ चाटने में
अद्भुत स्वाद था
यह तब की बात है जब लोगों का
अंकल चिप्स और रिलायंस से
परिचय नहीं हुआ था
और
‘तोर बरफी से मीठ हमार लावाही मितवा’
सारा गाँव गाता था।’ (पृष्ठ-78)

यहाँ एक–एक शब्द सजग कर्म में नियोजित है। ‘जुगाली’, ‘जो जितना बड़ा है’, ‘वैश्वीकरण’, ‘चुप्पी’, ‘त्रासदी’ जैसी कविताओं में आज व्यक्ति के अन्दर पैदा हो चुकी आत्मनिर्वासन की प्रवृत्ति को समकालीन सन्दर्भों के साथ उभारा गया है।

संकलन की कई कविताएँ विषय के क्षैतिज फैलाव को तो व्यक्त करती हैं पर उसके ऊर्ध्वगामी विस्तार का पूरा आकलन नहीं कर पातीं। दरअसल कविता से जीवन की उक्तियाँ पुनर्परिभाषित होंने लगें तो यह उसकी सफलता है, किन्तु यदि उक्तियों से कविता ही परिभाषित होने लगे तो ऐसी  कविता जीवन की अर्थवत्ता को प्रमाणिक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो पाती। कविता ही उक्ति को सार्थक बनाते हुए उसे नयी परिस्थितियों की गहन सम्बद्धता में व्याख्यायित करे जिससे जीवन की ठस सोच और तमाम अंतर्विरोध अनावृत्त हो सकें। संग्रह की ज्यादातर कविताएँ अपने गहरे आशय के बीच सहज, सजग और आत्मीय पठनीयता से लैस हैं। 

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------
‘यही दुनिया है’ (काव्य संग्रह), लेखक, अजय कुमार पाण्डेय, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2015, पृष्ठ-120, मूल्य- 300 रुपए








समीक्षक- डॉ० शशिभूषण मिश्र, 
सहायक प्रोफेसर- हिंदी, 
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बाँदा (उ.प्र.)
मो. - 9457815024,
ई-मेल - sbmishradu@gmail.com                                                       

टिप्पणियाँ

  1. अलग अंदाज़ समेटे हैं कवितायेँ

    जवाब देंहटाएं
  2. अजय और उनकी कविताएँ दोनों अतुलनीय हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. ShashiBhooshn Ji aur Ajay Kumar Ji ko haardik Shubhkaamnayen!! Bahut achchhi sameeksha likhi hai. Ise Padhkar Sangrha ko padhne ka man ho gya... Yun chhitput kavitain to pahle bhi padhi hain. Bhai Santosh Ji dhanyavaad!!
    - Kamal Jeet Choudhary

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'