भालचन्द्र जोशी की कहानी 'पिशाच'


भाल चन्द्र जोशी

भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है देश की अर्थव्यवस्था आज भी बहुत हद तक खेती किसानी पर अवलम्बित है लेकिन उदारवाद और पूँजीवाद ने किसानों को दिनोंदिन दिवालिया बनाने का ही काम किया है समाज में आज भी सामंत और साहूकार हैं जो किसानों की लाचारी का फायदा उठाने से नहीं चूकते राजनीतिज्ञ किसानों की भलाई की तमाम घोनाएँ करते हैं लेकिन नतीजा वही ढांक के तीन पात। एक समय में किसानी को उत्तम व्यवसाय माने जाने वाले देश में ही आज परिस्थितियाँ इतनी विकट हो गयीं हैं कि किसान आत्महत्या करने के लिए विवश है नाटक आत्महत्या के बाद भी चलता रहता है। राजनीतिज्ञों के इशारे पर नौकरशाही किसानों की आत्महत्या को दूसरी शक्ल दे कर अपने को बचाने के लिए उद्यत रहती है मीडिया भी अब पिछलग्गू की भूमिका निभाने लगी है इन्हीं परिप्रेक्ष्यों को ले कर भालचन्द्र जोशी की कहानी की एक उम्दा कहानी आयी है 'पिशाच'। कथादेश के हालिया अंक में छपी यह कहानी पढ़ कर किसानों की दारुण स्थिति के बारे में हमें पता चल जाता है आइए पढ़ते हैं भालचन्द्र जोशी की कहानी 'पिशाच'  
 

पिशाच


भालचन्द्र जोशी


-‘‘दिन बुढ़ने को आया, घर चलें?’’ 

वे दोनों खेत की जिस मेड़ पर बैठे हैं, वह बाएँ जा कर पीछे दक्षिण दिशा में मुड़ गई थी। जिस जगह से मेड़ के पीछे पलटी थी, वहीं कोने पर आम का एक किशोर पेड़ है। वे दोनों जहाँ बैठे हैं, वहाँ नीम का घना पेड़ है। आम का पेड़ भी है लेकिन हट कर। नीम की छाया से परहेज पालता हुआ, थोड़ी दूर। खेत की मेड़ खेत से थोड़ी ऊँचाई पर है। कुएँ की खुदाई में निकले पत्थरों को खेत की मेड़ पर लम्बी दूरी तक दीवार की तरह जमा दिया है।

उसने सिर पर से गमछा उतार कर कंधे पर डाल लिया। एक धूसर रोशनी हरे खेत में जाने की जल्दी में फिसल रही है। उसने एक गहरी साँस लेकर रोशनी की हड़बड़ी को महसूसा। फिर दोनों हाथ पीछे मेड़ पर टिका दिए। पत्नी ने उसकी हताशा और दुःख को ठेलने की नाकाम कोशिश में कहा, -‘‘दिन बुढ़ने को आया, घर चलें?’’ उसने गरदन घुमा कर पत्नी की ओर देखा, वह कातर भाव से उसे देख रही है। वह इस बात से बेपरवाह है कि खुद उसका चेहरा भी दुःख से सना है। वह बोला कुछ नहीं, एक लम्बी और गहरी साँस छोड़ी जैसे उस पर साँस का भारी वजन हो जो साँस छोड़ते ही हल्का महसूस करेगा।

वह धीरे से उठ खड़ा हुआ। पलटने से पहले उसने एक बार फिर खेत की ओर देखा। पौधे खासे बड़े हो गए हैं। पूरा खेत गहरे और हरे पौधों से भरा-भरा लग रहा है लेकिन वह जानता है कि यह घनी और भरी-भरी हरियाली कितनी डरावनी है!

वह पलटने को हुआ तो देखा, कुछेक लड़के-लड़कियाँ खेत की दूसरी मेड़ से आ रहे हैं। वह जानता है, कालेज के लड़के-लड़कियाँ हैं। कालेज की ओर से श्रमदान करने गाँव आए हैं। शाम को घूमने निकले हैं।

तभी पीछे चल रहा लड़का दौड़ कर आगे आया और आगे चल रही लड़की से कैमरा ले कर उन दोनों के पास आ गया और चहक बोला, -‘‘आप किसान हो?’’ उसके प्रश्न में किसी अद्भुत के हासिल की दबी खुशी थी। गहरी हताशा के बावजूद वह मुस्करा दिया। बोला, - ‘‘हाँ!’’ लड़का खुश हो गया, उसने कहा, -‘‘मैं आपका फोटो खींच लूँ।’’

-‘‘क्या करोगे ?’’ उसने मुस्करा कर पूछा।

-‘‘फेसबुक पर डाल दूँगा। अ रीअल फार्मर इन रीअल फार्म! अ लवली फार्म विथ ग्रेट ग्रीनरी....!’’ लड़का उत्साह में बोला, -‘‘देखना, दर्जनों कमेंट्स आएँगे। सैकड़ों लाइक क्लिक करेंगे !’’

वह कुछ नहीं समझा इसलिए बोला भी कुछ नहीं। लड़का भी उसकी नासमझी को समझ गया और बोला, -‘‘कम्प्यूटर में आपका फोटो डालूँगा। दुनिया भर के लोग देखेंगे। यू नो... मेरी एफबी फ्रेण्डलिस्ट कितनी बड़ी है? सेवन हण्डरेट .... सात सौ....! सात सौ दोस्त हैं मेरे।’’ अपने कहे पर वह खुश हो कर थिरकने लगा।

उसे अचरज हुआ। शादी-ब्याह या दुःख-सुख में तो इसका घर भर जाता होगा। खुशनसीब है छोरा... खुशी में शामिल होने के लिए कितने दोस्त? दुःख में सहारा देने के लिए इतने दोस्त ... ! अपने अचरज को लड़के पर प्रकट किया तो लड़का खुश होने के बजाए हकबका गया।

-‘‘अरे, नहीं... नहीं। ये सारे दोस्त सुख-दुःख में मिलते-जुलते नहीं है। सिर्फ कम्प्यूटर पर दोस्ती है।’’ लड़के ने समझाया।

उसे सुन कर अजीब-सा लगा। परिचितों का इतना बड़ा संसार, दोस्तों की इतनी बड़ी बिरादरी लेकिन सिर्फ छाया। लगभग ढपोलशंख जैसी! जो है लेकिन दिखाई नहीं देता। जो कहता है लेकिन करता नहीं। सिर्फ बातें और बातें....!

लड़का और वह लड़की उन दोनों की फोटो खींचते रहे। पत्नी उसे अचरज और थकान से देखती रही। फोटो खींच कर लड़के और लड़कियाँ जाने लगे तभी वह लड़का फिर पलट कर आया, -‘‘यह आपकी पत्नी है?’’

उसने अपनी पत्नी परमा की ओर संकेत करके पूछा। उसके हाँ कहने पर बोला, -‘‘ये क्या करती है?’’
-‘‘घर के सारे कामकाज और खेत पर काम भी करती है। यह भी किसान है।’’ उसने कहा तो लड़का मजाक समझा।
-‘‘औरत किसान कैसे हो सकती है? मर्द ही किसान होता है।’’ लड़के ने उसके कथन को मजाक समझने पर उसकी स्वीकृति चाही।

-‘‘ऐसा किसने कहा ? कोई नियम-कायदा बन गया है, ऐसा क्या?’’ उसने पूछा तो लड़का सोच में पड़ गया। फिर सिर झटक कर बोला, -‘‘ऐसा कहीं लिखा तो नहीं है। पर ऐसा ही माना जाता है।’’ लड़का कुछ देर उसके जवाब की प्रतीक्षा करता रहा फिर उसे चुप देख कर वह असमंजस से देखने लगा।

-‘‘आपका नाम क्या है किसान?’’ लड़के ने बहुत विनम्रता से कहा, - ‘‘मुझे एफ.बी. पर आपका नाम भी डालना पड़ेगा।’’
वह दूर खेत में दूसरी मेड़ पर आम के पेड़ को घूरने लगा जैसे नाम वहीं कहीं हो और बहुत शक्ति के साथ उसे लाना पड़ेगा। 

-‘‘गोकुल...!’’ उसने कहा तो उसे खुद अपना नाम अजनबी लगा। लड़का कुछ देर तक चुप रहा फिर थोड़े संकोच से बोला, - ‘‘कोई प्राब्लम? मतलब कोई दिक्कत? शानदार बड़े और घने पौधों की फसल है। फिर भी उदास हो?’’
गोकुल उस लड़के को चुपचाप देखता रहा। एक तो शहरी लड़का! फिर ज्यादा पढ़ा-लिखा...!

-‘‘तुम खेती बाड़ी के बारे में कितना जानते हो?’’ उसने लड़के से कहा तो न चाहते हुए भी स्वर में खिन्नता चली आई। फिर लड़के के बोलने से पहले कहा, -‘‘इस फसल में तुम्हें क्या शानदार दिखा?’’

-‘‘घने और बड़े-बड़े पौधे हैं... पूरा खेत हरा-भरा है।’’ लड़के ने उसकी उदासी पर अचरज प्रकट किया।

-‘‘पहले तो तुम्हें यह बता दूँ, जो कि तुम जानते नहीं हो कि यह कपास की फसल है। और ये पौधे बड़े और घने हैं तो भी इसमे कपास के घेटे नहीं लगे हैं। फूल नहीं आए हैं। अरे, इसमें कपास नहीं लग पाया। बगैर कपास के पौधे किस काम के?’’ कहते-कहते वह लड़के की नादानी का बहाना लेकर अपनी लाचारी पर मुस्करा दिया। उसकी मुस्कान कुछ ऐसी थी कि पत्नी के अलावा वह लड़की भी थोड़ा डर गई। लड़का कुछ देर हतप्रभ खड़ा रहा। उसने मुँह से सिर्फ इतना निकला, - ‘‘ओह!’’ लड़की ने लड़के का हाथ इतने धीरे सी खींचा कि जैसे अनचाने किसी अपराध में शामिल हो गए हों और अब भागने में भलाई समझी! लड़का और लड़की दोनों धीरे से पलटे और चल दिए।

गोकुल ने पत्नी का हाथ पकड़ा और घर की ओर चल दिया। घर हल्के अँधेरे में खिसक गया है। घर पहुँचे तो देखा, छोटी बेटी चूल्हा जलाने की कोशिश में तवे पर जल रही रोटी को भूल चुकी है। घर में धुआँ भर चुका है। परमा ने चारे का गट्ठर आँगन में फेंका और बेटी की मदद के लिए दौड़ पड़ी। लोहे की फूँकनी से जोर से फूँक मारी तो भक्क से चूल्हा जल गया। तब बेटी को भी तवे पर जल रही रोटी का खयाल आया। उसने खिसिया कर माँ की ओर देखा। माँ ने उसे आँखों से आश्वस्त किया।

-‘‘मैं रोटी बना दूँ?’’ माँ ने पूछा। 

-‘‘नहीं माँ, मैं बना लूँगी। वो तो बस चूल्हा नहीं जल रहा था।’’ उसने माँ को आश्वस्त किया। परमा पलट गई। बेटी बारह साल की हो गई है। अभी खाना बनाना नहीं सीखेगी तो फिर कब? साल-दो-साल में ब्याह हो जाएगा। पराए घर जाएगी तो मैके की नाक कट जाएगी। छोरी को रसोई का काम नहीं आता है। सोचते हुए वह घर के आँगन से चारे का गट्ठर उठाकर पीछे बँधे जानवरों को चारा देने चली गई।


गोकुल आँगन में खटिया पर लेट गया। उसके अकेले के खेत की दशा ऐसी नहीं थी। गाँव के बारह किसान और भी थे जिनके खेत ऐसे ही बर्बाद हो गए हैं।

कृषि विभाग के अफसर के बहकावे में आ कर उन्होंने खराब बीज ले लिया था। अफसर ने गोकुल सहित तेरह किसानों को समझाया था। आम फसल से तीन गुना कपास पैदा होने की बात बताई। अखबार में छपी धार जिले की कोई खबर भी दिखाई। खबर में एक किसान हँसता हुआ खेत में खड़ा था। खेत में कपास की ऐसी फसल थी, जिसमें सफेद कपास की बहार आई हुई थी। बीज महँगे थे। इन बीजों के लिए, इस फसल के लिए अलग से खाद की जरूरत थी। इतना पैसा कहाँ से आएगा? उसका हल भी अफसर के पास था। अगले दिन वह एक बैंक के अफसर के साथ आया। उसने बताया कि सरकार अब किसानों को कम ब्याज पर कर्जा दे रही है। तुम भी ले लो। पैसा फसल आने पर चुका देना।

-‘‘गोकुल भाई, ये कपास नहीं, समझो पैसे की नहर खोद रहे हो। कलदार का पेड़ लगा रहे हो। इस बीज की फसल इतनी आएगी कि घर की दशा बदल जाएगी।’’ अफसर ने उसे अग्रिम बधाई देते हुए एक सपना भी दे दिया।

उसे बदले में क्या करना था? सिर्फ कर्जे के कागजों पर अपना फोटू और अँगूठा लगाना था। उसमें क्या जाता है? कोई धन तो माँगता नहीं है। क्या देना पड़ा? उसने सोचा था, खेत और घर के कागज और बस नीली स्याही में अँगूठा। अँगूठे का निशान। आसान काम था। उसने कर दिया। उसके साथी किसानों ने भी कर दिया।

उस समय बैंक अफसर ने जिस विनम्रता, आदर और प्रेम से समझाया था तो उसे लगा कि कोई उसका सगे वाला उसका भला करने के लिए मिल गया है। बैंक अफसर की वाणी बहुत मीठी थी। उसकी बातों में ऐसा जादू था और उसने भविष्य का इतना खूबसूरत सपना दिखाया कि उसे लगा था, इस फसल के बाद वह अपनी दोनों बेटियों के हाथ पीले कर देगा। माँ-बाप को तीरथ करा लाएगा। हर बरसात में गिर जाने वाली कच्ची दीवार को पक्की दीवार बना लेगा। एक बैल अब बूढ़ा हो गया है। दम भरता है। उसकी जगह इसी मेले में दूसरा बैल खरीद लेगा। गाँव के बनिए का कर्ज पिछले पाँच साल से बाकी है, इस साल चुका देगा। दो साल से ज्यादा हो गए, परमा के लिए एक लुगड़ा तक नहीं खरीदा है, इस बार एक अच्छा लुगड़ा खरीद कर देगा। खुद भी एक नई कमीज खरीद लेगा। कईं साल हुए बच्चों के पास जूते-चप्पल नहीं है, वह भी खरीदेगा। सपनों में ऐसी कईं बातें शामिल थीं। बिल्कुल छोटी-छोटी जो सुनने पर किसी को मामूली और अजीब लग सकती हैं लेकिन वे उसके सपनों में शामिल हैं।

उसने गहरी साँस ली। कितनी खबर भेजी, खुद कितनी बार कृषि विभाग गया, वो अफसर कभी मिला नहीं। एक बार मिला तो ऐसे अचरज से उसकी बात सुनी जैसे उसने कोई नामुमकिन बात कह दी हो। बोला, - ‘‘बीज तो नम्बर एक है। ऐसा कैसे हो गया? मैं खुद गाँव आऊँगा। कल ही आता हूँ।’’ लेकिन महीना गुजर गया आज तक नहीं आया।

करवट ले कर उसने आँगन की छोटी-सी दीवार के पार देखा, राम अवतार मिस्त्री का घर है। लगभग खण्डहर हो चुका घर है। पत्नी मर गई है। बच्चे दूसरे शहरों में चले गए हैं। बड़े से घर में अकेला रहता है। हर बारिश में घर की कोई एक दीवार या हिस्सा गिर जाता है। राम अवतार मलबा तक नहीं हटाता है। खण्डहर मे तब्दील होता घर बहुत डरावना लगने लगा तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि राम अवतार की घरवाली का प्रेत उस घर में घूमता रहता है। रात को आवाजें आती हैं। घर में घूमता हुआ प्रेत भी बहुत से लोगों ने देखा। घर के सामने रहने वाले गोकुल को कभी प्रेत तो नहीं दिखा लेकिन उसने यह जरूर देखा कि रात में कंदील लेकर राम अवतार घर में जाने क्या टटोलता रहता है। सामान उलटता-पलटता रहता है।

शाम के धुँधलके में रात का अँधेरा घुलने लगा है। गोकुल ने देखा, राम अवतार अपने घर के भीतर गिरे दीवार के मलबे पर बैठा जमीन में जाने क्या ध्यान से देख रहा है। उसे इस बात की परवाह नहीं कि गली में निकलते लोग उसे देख कर हँसते या फिर डर जाते हैं। रात को तो बच्चे घर के करीब नहीं जाते लेकिन दिन में रात अवतार को चिढ़ाते हैं। राम अवतार किसी बात पर ध्यान नहीं देता है। वह सोया रहता है या फिर मिट्टी खोदता रहता है। वह शहर जाकर गृहस्थी का सामान लाता है या किसी से बुलाता होगा क्योंकि गाँव मे किसी दुकान पर उसे किसी ने जाते हुए नहीं देखा। उसका खाना वह खुद बनाता है या कोई और बना कर देता है यह तक किसी को नहीं मालूम। सारा घर लगभग खुला हुआ था लेकिन जीवन ढँका-छिपा। रहस्यमय।

भीतर से बेटी ने आवाज दी तो वह समझ गया, रोटी बन गई होगी। वह उठ कर आँगन के कोने में रखे बर्तन से पानी निकाल कर हाथ-मुँह धोने लगा। भीतर आ कर चुपचाप बैठ गया। बेटी ने थाली परोस कर दी तो वह चुपचाप खाने लगा। बेटी ज्वार के रोटे अच्छे बना लेती है। अमाड़ी की भाजी भी अच्छी बनाई है। एकदम तेज-तर्रार। छोरी जिस घर में जाएगी उसके भाग खुल जाएँगे। सोच कर मन को तसल्ली हुई। दिन भर की चिंताओं के बाद सुख का यह छोटा-सा टुकड़ा उसके पास आया।

खाना खा कर वह तमाखू मसलता हुआ बाहर आ गया। गली में अँधेरा था लेकिन उसे अँधेरे में चलने का अभ्यास था। चलता हुआ वह गौरीशंकर के घर तक आया। गौरीशंकर ने भी उसी अफसर के दिलाए हुए बीज खरीदे हैं। उसने सोचा, गौरीशंकर से पूछने पर पता चले कि परेशानी का कोई निकाल लगा या नहीं? कोई हल नहीं खोज पाएँगे तो दोनों साथ बैठ कर कलपेंगे। साथ बैठकर दुख मनाने से दुख कम तो नहीं होगा शायद हल्का हो जाए।

गौरीशंकर घर के बाहर ओटले पर बैठा था। चुपचाप बीड़ी पी रहा था। उसे देख कर थोड़ा परे सरक कर बोला, -‘‘आ बैठ !’’

गोकुल उसके पास जाकर बैठ गया। देर तक दोनों में बातें होती रहीं। बेनतीजा। गौरीशंकर ने बताया कि वह तो खेत पर नहीं जाता है। खेत देख कर कलेजा जलाओ, क्या मतलब?

गोकुल काफी देर बाद लौटा। आँगन में उसका बिस्तर लगा दिया था। चुपचाप सो गया। अगले दिन की सुबह उसके लिए सुखद अचरज भरी रही। कृषि विभाग का वह अफसर और बैंक मैनेजर दोनों उसके घर आए। उसे कहा कि वे उसका खेत देखना चाहते हैं।

‘‘चिंता मत करो। बीज में कोई खराबी नहीं है। चल कर देखते हैं। बीज खराब हुआ तो पूरा हर्जाना दिलाऊँगा।’’ अफसर उसे दिलासा देते हुए बोला। मन में फिर उम्मीद जाग गई। 



सभी लोग खेत पर आए। कृषि विभाग का अफसर और बैंक मैनेजर दोनों पूरे खेत में घूमते रहे। इतना बड़ा खेत। दोपहर हो गई। अंत में बहुत गंभीरता से बोला, -‘‘मैंने तो पहले ही कहा था। बीज में कोई खराबी नहीं है। छोटा कीड़ा लगा है, फूल नहीं बनने दे रहा है। दवाइयों का छिड़काव करना पड़ेगा।’’

-‘‘मुझे कीड़ा दिखाई नहीं दिया?’’ गोकुल ने डरते हुए कहा। वह अफसर की नजर और समझ पर एकाएक प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहता था।

-‘‘ऐसे बीजों की फसल पर ऐसे ही कीड़ा लगता है। कीड़ा नहीं दिखता लेकिन फसल के रंग को देख कर मैंने बताया।’’ अफसर उसे समझाने लगा, -‘‘फिर गौरीशंकर से पूछो, उसकी फसल पर तो कीड़े का असर साफ दिखाई दे रहा है। पत्ते मुरझा कर गिरने लगे हैं। पत्तों में छेद होने लगे हैं।’’ फिर वह गौरीशंकर की ओर पलटा जो उनके साथ ही आया था, -‘‘क्यों गौरीशंकर ठीक है ना?’’

-‘‘जी! ठीक है साबजी!’’ गौरीशंकर ने सहमति दी लेकिन गोकुल को उसकी सहमति में असमंजस दिखा। इतने साल हो गए उसे किसानी करते हुए, गोकुल ने सोचा। ऐसी कौन-सी बीमारी हे पौधों पर जो उसे दिखाई नहीं दी लेकिन अफसर को दिखाई दे गई ?

-‘‘बीमारी होती तो पौधा इतना बड़ा हो जाता?’’ उसने अपनी शंका प्रकट की।
-‘‘तुम्हें हम पर भरोसा नहीं? हम झूठ बोल रहे हैं क्या? तुम्हारी भलाई के लिए तुम्हारे बुलावे पर इतनी दूर आए हैं और तुम भरोसा नहीं करते हो?’’ अफसर भड़क कर बोला।
अफसर के गुस्से को देखकर गोकुल सहम गया।
-‘‘साब जी, मेरे मतलब यह नहीं था, मैं तो सिर्फ पूछ रहा था।’’ वह गिड़गिड़ाया।

अफसर तुरंत नरम पड़ गया, - ‘‘मैं भी तुम्हें समझा रहा हूँ मेरे भाई। सरकार ने खेती-किसानी का वैज्ञानिक बनाया है हमको। मुझे इतनी बड़ी नौकरी दी है। पाँच साल तक कालेज में पढ़ाई की और ट्रेनिंग ली है। अब बताओ, खेती के बारे में मैं ज्यादा जानता हूँ या तुम?’’ अफसर ने गोकुल के कंधे पर प्यार से हाथ धरा। गोकुल का मन गीला हो गया।

-‘‘खेती के बारे में तो आप ज्यादा जानते हैं। मैं तो अनपढ़ हूँ।’’ गोकुल भीगी आवाज में बोला।

-‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुनो! इन पर दवाइयाँ स्प्रे करना होंगी। दवाइयाँ थोड़ी महँगी हैं, लेकिन फसल ऐसी फलेगी कि दुनिया देखती रह जाएगी। कपास रखने की तुम्हारे घर में जगह कम पड़ जाएगी।’’ अफसर ने बहुत प्यार से समझाया।

गोकुल ने बताना चाहा कि दवाइयों के पैसे नहीं है लेकिन उसके बोलने से पहले ही बैंक मैनेजर बोल पड़ा, - ‘‘पैसे की तुम चिंता मत करो।’’ जैसे वह उसके मन की बात समझ गया हो। - ‘‘पैसा तो तुम्हें बैंक से फिर मिल जाएगा। तुम एक आवेदन भेज दो।’’ 

गोकुल को पछतावा होने लगा। व्यर्थ ही इन भले लोगों के बारे में वह गलत सोच रहा था। उसकी चिंता में इतनी दूर दौड़े चले आए। बस एक छोटा-सा कर्जा और कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। उसने अपने पश्चाताप को मिटाने के लिए दोनों अफसरों से आग्रह किया कि उसके घर खाना खा कर जाएँ।

उसने गाँव के बनिए से सामान खरीदा और परमा ने दाल-बाटी और लड्डू बनाए। घर में तो जैसा त्यौहार का दिन आ गया। मर चुकी उम्मीद को जैसे फिर से साँसें मिल गईं।

बैंक से फिर से कर्ज मिल गया। दवाइयाँ आ गईं। छिड़काव हो गया। फसल पकने की प्रतीक्षा शुरू हो गई। वह और शेष बारह किसान रोज एक दूसरे के खेतों में जाकर फसलों को ध्यान से देखते। फिर एक दूसरे को तसल्ली देते कि जल्दी ही फसल पक जाएगी। अभी कुछ दिन तो धीरज धरना पड़ेगा।

गाँव में कईं तरह की बातें होतीं। कुछ लोग उनसे ईष्र्या भी करते तो कुछ लोग उन पर हँसते भी थे। उनका कहना था कि वे कृषि विभाग के अफसर के चक्कर में फँस गए हैं। नम्बर एक का धूर्त है। उसने बैंक के कर्ज में किसानों को गाड़ कर खाद-बीज की दुकानों से लेकर दवाई दुकान वाले से भी कमीशन ले लिया है। बैंक को तो कर्ज पर ब्याज मिल रहा है। फँस गए हैं सब के सब। वे सुन कर डर भी जाते थे फिर एक दूसरे को तसल्ली भी देते थे।

एक दूसरे को दी हुई तसल्ली कब तक काम आती है? धीरज कब तक धरा रहता? समय गुजरता गया लेकिन फसल में फूल और फल नहीं आए। दिन के बाद जब महीने गुजर गए तो गोकुल की चिंता बढ़ी। वह शहर में कृषि विभाग के दफ्तर गया। पता चला कि अफसर का तबादला हो गया है। बैंक का अफसर छुट्टी पर था। उसकी पत्नी को बच्चा होने वाला था।

कृषि विभाग में उस अफसर की जगह आए दूसरे अफसर से उसने अपनी व्यथा कही। उसने तत्काल उसे पानी पिलाया। चपरासी को चाय के लिए बोला फिर दिलासा दिया, -‘‘तुम्हारे साथ बुरा हुआ। मैं गाँव में तुम्हारी फसल देखने आऊँगा। जल्दी ही, बल्कि कल ही।’’

सचमुच अफसर दूसरे ही दिन उसका खेत देखने आ गया। अफसर ने पूरे खेत का चक्कर लगाया। फिर मेड़ पर खड़ा होकर कुछ देर सोचता रहा।

-‘‘देखो भाई, यह फसल तो बेकाम है। बर्बाद हो गई है। एकदम साफ दिखाई दे रहा है कि नकली बीज था। राठौड़ तो बदमाश था, चूना लगा गया तुमको।’’ उसने पिछले अफसर को कोसा और गोकुल के पास आ कर खड़ा हो गया, -‘‘कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। बड़े नेताओं का हाथ था उस पर। सभी को हिस्सा देता था।’’

गोकुल की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। छले जाने की आशंका तो थी अब पुष्टि हो गई। वह धम्म से मेड़ पर बैठ गया। नया अफसर उसके निकट आया और बोला, -‘‘देखो, मैं तुमको अँधेरे में नहीं रखना चाहता हूँ। मेरी तो आदत है साफ बात करने की। गरीब को लूटा है सभी ने मिल कर।’’ फिर गोकुल का हाथ पकड़ कर उसे धीरे से खड़ा किया, -‘‘हिम्मत हारने से कुछ नहीं होगा। इस फसल को निकाल कर फेंको। मैं तुम्हें एकदम असली बीज दिलाता हूँ। एकदम बढ़िया। सौ टंच। पास के कुएँ से पानी खरीद लेना। महीने-दो-महीने में तो फसल शानदार तैयार!’’ 

गोकुल की आँखें डबडबा आईं। सिर्फ इनकार में सिर हिला।

‘‘मैं तो तुम्हारे भले के लिए कह रहा था। पैसा नहीं हो तो चिंता मत करो। सहकारी समिति से कर्जा दिला दूँगा।’’ अफसर ने सहानुभूति में उसके कंधे पर हाथ धर दिया, -‘‘देखो सरकार किसानों के लिए कितना करना चाहती है। तुम लोगों को फायदा उठाना चाहिए।’’

गोकुल ने धीरे से कंधे से अफसर का हाथ हटाया। वह चुपचाप वापस पलट गया। अफसर भी धीरे-धीरे उसके पीछे चल दिया। समझ गया कि अब नहीं मानेगा। गोकुल तो देख भी नहीं पाया कि अफसर उसके पीछे-पीछे घर तक नहीं आया। थोड़ी दूर के बाद वह शहर लौट गया।

गोकुल घर आकर नंगी खटिया पर लेट गया। शाम भी नहीं हुई थी लेकिन उसे लगा, घना अँधेरा हो गया है। उसे इस नए अफसर की बेशर्मी पर अचरज हुआ। एक बार धोखा देने के बाद यह भी एक नई भाषा में, नई सहानुभूति की तह चिपका कर फिर से और गहरी खाई में धकेलने की कोशिश कर रहा था। वह गले तक कर्ज में धँसा है। सरकारी अमला उसे और कितना नीचे धकेलना चाहता है? क्या इस तरह की सरकारी नौकरियों में छल और बेशर्मी की विषेषज्ञता के बगैर, कोई काम नहीं होता? कहते हैं ये लोग ऊपर तक हिस्सा देते हैं।

अब उसे गाँव के सरपंच की बात पर भरोसा होने लगा कि बड़े नेताओ को हिस्सा दिए बगैर अफसर इतने बेलगाम और निर्दय नहीं हो सकते हैं। निर्दयता का क्रम कितना बड़ा और कितना लम्बा होता जा रहा है। नेताओं की बदमाशी और निर्दयता की बातें वह सुनता था तो इन्हें किस्से समझता था लेकिन अब वह खुद इसी तरह का एक किस्सा हो गया है। 


पूरी दोपहर वह यूँ ही नंगी खटिया पर पड़ा रहा। परमा को लगा थका है, सो रहा है। शाम को उसने देखा तो गोकुल की देह बुखार में तप रही थी। परमा ने कहा, -‘‘डाकतर को दिखा दो। देह में ताप है।’’

-‘‘दिखा दूँगा।’’ कह कर वह चुपचाप दीवार को घूरने लगा। वह परमा को कैसे बताए, ताप देह में नहीं, मन में है। मन का ताप देह में फैल रहा है। परमा समझ गई, पति दुखी है। दुख का कारण भी उसे पता चल गया था। उसे लगा था कि समय बीतेगा और दिन भर सो लेने पर पति का दुख शाम तक कम हो जाएगा। वह नहीं जानती थी कि समय ऐसे दुखों से परास्त हो जाता है और दुख कम नहीं कर पाता खुद गुजर जाता है। समय लेकिन कैसे गुजर रहा है? कर्ज का कुँआ गहरा होता जा रहा है। दुखी की नदी चौड़ी होती जा रही है। दिन पिछले दिनों की सीढ़ियों पर पैर रखते आगे बढ़ते गए। खेत की फसल सूख गई तो काट कर घर ले आए। चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी काम आएगी, यह सोच कर। ऐसे ही बीतते समय में अगली बुआई का समय आ गया। इस बार उसने गाँव के बनिए से कर्ज लिया। बनिए ने जो खाद-बीज की दुकान बताई, वहीं से खाद बीज लाया। बीते दुख के दिन, पिछला कर्ज स्मृतियों की तह में उतरने लगा। लेकिन कहते हैं कि सरकार कुछ नहीं भूलती। उसकी याददाश्त बहुत अच्छी होती हैं कितने भी साल गुजर जाए, उसे सब याद रहता है।

एक दिन बैंक का नोटिस आया। कर्ज की मूल रकम और ब्याज मिला कर इतनी बड़ी राशि थी कि वह स्तब्ध रह गया। वह बैंक गया तो बैंक मैनेजर उसे पहचाना भी नहीं।

फसल बर्बाद हो गई तो बैंक क्या करे? नकली बीज कृषि विभाग ने दिया तो बैंक क्या करे? बैंक के पास ऐसे ढेरों सवाल थे जिनमें सिर्फ बैंक के लिए चिंता थी। गोकुल की परेशानी के लिए उनके पास समय था न फिक्र। ऐसे पचासों केस हैं, किस-किस के दुखड़े सुने और किस-किस की परेशानी देखे? बैंक मैनेजर का जवाब था।

नोटिस का जवाब गोकुल ने भेजा नहीं, एकाध महीना चैन से गुजरा कि एक दिन कहर टूटा। बैक की गाड़ी, बैंक वसूली के हट्टे-कट्टे आदमी। सभी एक साथ आए। वह कुछ कहता, टोकता तब तक तो वे लोग घर में घुस गए। गाय, बैल सभी को हाँक कर बाहर लाए और गाड़ी में चढ़ा दिया। हल, बक्खर, और खेती के दूसरे औजार इकट्ठा किए और गाड़ी में रख लिया। फिर सामान की लिस्ट बनाई, पंचनामा बनाया तथा एक और नोटिस उसको थमा कर चल दिए।

नोटिस घर खाली करने के लिए था। तीन दिन में। साथ ही खेत की फसल जब्त करने की सूचना थी। एकाएक जिस तेजी से आए थे, उतनी ही तेजी से चले गए। जैसे लुटेरों का गिरोह था। एकाएक आक्रमण किया, सब कुछ लूटा और चल दिए। बस फर्क इतना था कि ये लोग सब कुछ लूट कर भागे नहीं थे, इत्मीनान के साथ गए थे। गाँव वालों को यह सूचना दे कर, पंचनामा बना कर कि इतने समय से कर्जा नहीं चुकाया तो वसूली हमारी मजबूरी है।

लूट उनकी मजबूरी थी। सरकारी मजबूरी में कौन बोलता? फिर कर्जा लिया है तो चुकाना तो पड़ेगा। सरपंच के कहते ही सभी ने सहमति में सिर हिलाए थे।

परमा ने उसे दिलासा दिया। अच्छे दिन जीवन में नहीं है तो क्या हुआ, दुख के दिन भी नहीं रहेंगे। ऐसा कहीं होता है कि पूरा जीवन बीत जाए तो और सुख का एक दिन भी नसीब न हो। भगवान सब देखता है! पहली बार उसे सन्देह हुआ। भगवान यदि देखता है तो चुप क्यों है?

वह शाम को गौरीशंकर के यहाँ गया। वहाँ भी यही हाल था। उसने बताया कि मेरे पास
ज्यादा जानवर तो थे नहीं। दो बैल थे, ले गए। मकान की जब्ती भी आएगी। कर्जा लेने वाले सभी लोगों के यहाँ बैंक की गाड़ी जाएगी। ऊपर से यमदूत चल पड़े हैं, कोई नहीं बचेगा।

गौरीशंकर ने ही बताया कि बैंक की जब्ती की गाड़ी और आदमी चले गए हैं। बैंक मैनेजर गाँव में ही रुका है। कृषि विभाग का नया अफसर भी आ गया है। हरिदास बीज खाद के लिए बैंक से कर्जा ले रहा है। आज दोनों अफसरों को दारु-मुर्गे की दावत दे रहा है। पुराना अफसर दाल-बाटी और लड्डू का शौकीन था, यह दारु-मुर्गे का शौकीन है।

देर तक दोनों बातें करते रहे। फिर दोनों को पता नहीं चला किस बात पर और कैसे दोनों रोने लगे। देर तक रोते रहे। रात के अँधेरे में उनकी रोने की आवाज दूर तक नहीं जा रही थी। बस, दोनों एक दूसरे को सुन पा रहे थे।

काफी रात गए गोकुल उठा और घर की ओर चल दिया। गली में सन्नाटा फैला था। लोग कहते हैं, रोने से मन हल्का हो जाता है। उसका मन भारी हो गया था। भारी कदमों से अपने भारी मन को बोझ उठाए वह चुपचाप चल रहा था। राम अवतार के घर के आगे उसे अँधेरा कुछ ज्यादा लगा। उसने देखा, रामअवतार के घर के आँगन में खड़े नीम के पेड़ की सबसे ऊँची शाख से उतर कर एक पिशाच  हवा में तैरता हुआ नीचे आया। वह डर कर खड़ा हो गया। उसे लगा, उसका भ्रम है। फिर उसने देखा, पिशाच टूटी दीवार के पास खड़ा है। गोकुल का डर बढ़ने लगा। गाँव के लोग कहते हैं, उस पिशाच  की नजरें किसी पर पड़ गई या किसी ने उससे नजरें मिला लीं तो उसका बचना मुश्किल है। पिशाच कलेजा खा जाता है। खून पी जाता है। जिंदा नहीं छोड़ता है। एक-एक करके उसे सारी बातें याद आ गईं। इतने सालों से वह उसके पड़ोस में रहता है लेकिन पहली बार उसे पिशाच नजर आया।

तभी एक छोटी-सी चिंगारी चमकी। गोकुल भीतर तक लरज गया। पिशाच के मुँह से आग की एक लपट उठी। उसे लगा, आज जिंदगी का आखिरी दिन है। तभी उसने उस लपट को धीमे होते देखा, जलती हुई तीली थी। अब उसने ध्यान से देखा, दीवार से टेक लगाए कोई आदमी खड़ा होकर सिगरेट जला रहा है। जलती तीली की रोशनी में उसने देखा, बैंक मैनेजर है। बैंक मैनेजर नशे में हल्के-से डोल रहा था। शायद पेशाब करने के लिए इधर अँधेरे में निकल आया था।
तीली बुझने के बाद अँधेरे में बैंक मैनेजर किसी पिशाच की भाँति नजर आने लगा।

वह सिर झुकाए आगे बड़ा। उसने बैंक मैनेजर से नजरें नहीं मिलाई। उसे लगा, दो जलती हुई आँखें उसकी पीठ पर टिकी हैं। वह तेज कदमों से घर की ओर बढ़ने लगा। घर पहुँचा तो घर के भीतर दाखिल होते ही उसने घबराकर दरवाजा बंद कर लिया। भय और दुख के अतिरेक में वह हाँफ रहा था। कल या परसों... घर भी बैंक वाले जब्त कर लेंगे या नीलाम कर देंगे, पता नहीं क्या करेंगे। खेत की फसल भी बैंक वाले लेंगे। घर में क्या बचा रहेगा? घर ही कहाँ बचा रहेगा?

घर न खेत! रहने का ठिकाना न खाने का। बच्चों और बूढ़े-माँ बाप को लेकर वह कहाँ जाएगा? क्या ज्यादा फसल लेने की इच्छा अपराध है? उसने सोचा, अच्छे दिनों की कल्पना भी उसके लिए गलत है? उसके पुरखे भी खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करते रहे और कितना मिला? घर में दो रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता था। उसने अपने पुरखों से हट कर अच्छे दिनों के सपनें देख लिए। सपनें देखना इतना बड़ा अपराध हो गया कि वह सपनों से भी बेदखल हुआ और घर और खेत से भी। उसके पुरखे दो रोटी के सपने में खुश थे। उसने दो रोटी से थोड़ी बड़ी खुशी का सपना देख लिया। कितना बड़ा सपना? बेटियों के ब्याह कर सके। माँ-बाप तीरथ जा सके। पत्नी के लिए अच्छी साड़ी खरीद ले, बस। उसके सपनों की चहारदीवारी इतनी ही थी फिर भी सपने अपराध की सीमा में चले गए।
उसने आँगन के पार गवानमें देखा! एक भी जानवर नहीं है। पता नहीं कहाँ बँधे होंगे? क्या खाया होगा?

वह आँगन की दीवार के पास टिक कर बैठ गया। गली के पार अँधेरे में देखा, कुछ दिखाई नहीं दिया। गली में सन्नाटा था। परमा भीतर बच्चों के पास थी। फिर धीरे से उठ कर उसके पास आ गई। अब एक ही दुख के मलबे पर दोनों बैठ गए। बहुत देर तक परमा उसे दिलासा देती रही ऐसा दिलासा जिस पर खुद उसे भरोसा नहीं था। रात गए वह उठ कर बच्चों के पास चली गई।

सुबह अभी ठीक से हुई नहीं थी। अँधेरे की मोटी तह थोड़ी कम जरूर हो गई थी। जानवरों को चारा डालने और दूध निकालने की रोज की दिनचर्या में परमा की नींद खुल गई। उठ कर आँगन तक आई, तब उसे याद आया, जानवर तो बैंक वाले ले गए। मुँह पर पानी के छींटे मार कर वह आँगन में बैठ गई। तब उसने देखा, खटिया पर गोकुल नहीं है। उसने सोचा, लोटा लेकर जंगल की तरफ गया होगा। इस काम के लिए एक पुराना लोटा घर में गोकुल के लिए रख छोड़ा था। लोटा अपनी जगह पर था। फिर गोकुल कहाँ गया? घर कौन-सा बड़ा था? सभी दूर देखा, गोकुल कहीं नहीं था। अब उसे थोड़ी चिंता हुई। वह नंगे पैर अँधेरे में गौरीशंकर के घर गई। उसे उठाया और बताया तो वह भी चिंतित हो गया। आसपास के दो-चार घर में भी जाग हो गई। सभी खोजने लगे।
एकाएक परमा कुछ सोच कर चौक पड़ी। उसने गौरीशंकर बताया।
-‘‘जरूर खेत में गए होंगे!’’

सभी लोग खेत में पहुँचे। खेत की चारों मेड़ घूम गए। गोकुल कहीं नहीं था। परमा रूआँसी हो गई। खेत की मेड़ पर बैठ गई। सभी ने तसल्ली दी, मिल जाएगा। कहीं और गया होगा!
-‘‘कहाँ?’’

परमा के इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था। गोकुल के खेत की फसल कटी हुई थी। आसपास के खेतों में फसल थी। दूसरे लोग आसपास के खेतों में तलाशने लगे। कपास की फसल कोई इतनी बड़ी तो होती नहीं कि बैठा हुआ आदमी न दिखाई दे। खोज तो सिर्फ भय और आशंका को परास्त करने के लिए हो रही थी।

फिर गोकुल मिला। गौरीशंकर को दिखाई दिया। गोकुल के खेत से लगे सुंदरभाई के खेत के कुएँ में लेटा था। जल की सतह पर। मुर्दा। रात को किसी समय वह खेत में आया था, दुख और तनाव के अतिरेक में कुएँ में शरण खोज ली। दुख के अँधेरे से भाग कर कुएँ के अँधेरे जल में छिपी मृत्यु की शरण में मुक्ति खोज ली थी।
जरा-भी डर नहीं लगा। जरा भी नहीं सोचा? एक बार भी कलेजा नहीं काँपा कि उसके बाद इतने बड़े घर को मैं कैसे सम्भालूँगी? उसके बगैर कैसे जियूँगी? मरने से उसको तकलीफों से छुटकारा मिल जाएगा? परमा चीख-चीखकर विलाप करने लगी। गौरीशंकर ने उसे सहारा देकर कुएँ से दूर हटाया। दूसरे लोगों ने लाश कुएँ से निकाली।
गोकुल की लाश लेकर घर तक पहुँचे तो परमा बेहोष हो चुकी थी। लाश को आँगन में रखकर परमा को भीतर लिटाया। सुबह ठीक से नहीं हुई थी पर पूरे गाँव मे शोर हो गया। सभी गोकुल के घर के पास इकट्ठा होने लगे।

गौरीशंकर ने देखा, गोकुल की लाश का चेहरा पानी में धुलकर थोड़ा सफेद हो गया था। चेहरे पर अब रात का दुख और तनाव नहीं था। चेहरा एकदम शांत था। क्या सारे दुखों से छुटकारे के लिए यही एक आखिरी हल बचा है ? गौरीशंकर ने सोचा। इसके अलावा अब कोई रास्ता नहीं है? सरपंच आ गया था। उसने बताया पुलिस को खबर हो गई है। पुलिस आती ही होगी? यानी लाश का क्रिया-कर्म शाम तक होगा और यदि पोस्टमार्टम देर से हुआ तो कल ही आग नसीब होगी गोकुल की लाश को।

गौरीशंकर ने आँगन के पार गली की दूसरी तरफ देखा। राम अवतार का मकान अभी भी अँधेरे में डूबा है। उसे लगा इस मकान को दिन की रोशनी में भी अँधेरे से छुटकारा नहीं मिलता होगा। राम अवतार के घर की बाहरी टूटी दीवार के भीतर उनके बड़े से मलबानुमा कमरे में उसे दिखाई दिया। एक क्षण को लगा, वही पिशाच  है। फिर उसने ध्यान से देखा, रामअवतार था। मलबे पर बैठा नीचे मिट्टी में जाने क्या खोद रहा था।

सुबह अपने साथ गाँव के लिए नवीन और अचरज भरी सुबह ले कर आई। गाँव में पुलिस फोर्स आ गई। गाँव में कोने-कोने पर पुलिस का जवान तैनात हो गया। गोकुल के घर को पुलिस ने घेर लिया था। थानेदार से लेकर पुलिस का बड़ा अफसर तक मौजूद। पटवारी से लेकर कलेक्टर तक हलकान हो रहे थे। सरपंच ने गोकुल की आत्महत्या की खबर थाने पर की थी। पटवारी ने तहसीलदार को बताया था। तहसील ने कलेक्टर से। थानेदार ने एस. पी. को। पूरा प्रशासन हरकत में आ गया। कलेक्टर ने मुख्यमंत्री से बात की। प्रशासन को सख्त ताकीद की गई कि गाँव में मीडिया नहीं पहुँचने पाए। चुनाव सिर पर हैं। किसान की आत्महत्या की खबर आग की भाँति फैल जाएगी। किसानों के लिए की जा रही कर्जे की माफी की घोषणा या फिर शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज देने की लुभावनी घोषणा पर यह मुर्दा किसान अकेला सब पर भारी पड़ेगा। इस जिले का नहीं, प्रदेश के चुनाव पर असर डालेगा। एक गरीब, लाचार किसान की मृत्यु का भूत सारे राजनीतिज्ञों को डराने लगा। राजनीतिज्ञों ने जिला प्रशासन को धमकाया। डर की ऐसी लम्बी सिहरन बढ़ी कि पूरा गाँव दहशत में आ गया। भारी भीड़ के बावजूद गाँव में सन्नाटा था। पत्रकार या पत्रकार-सा लगने वाला आदमी गाँव से मीलों दूर रोक दिया गया।

गोकुल की विधवा को सुबह पाँच बजे रोने से रोक कर कलेक्टर ने बाहर आँगन में बुलाया। कलेक्टर के साथ दिक्कत यह थी कि उसे निमाड़ी बोली तो दूर हिन्दी भी ठीक से नहीं आती थी। कान्वेंटी स्कूलों की चमकीली और अंग्रेजी से लिथड़ी हुई क्लाससे तालीम पाए कलेक्टर ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसी अपरिचित और दुत्कार में पली बोली को पुचकारना पड़ेगा। गोकुल की विधवा रोए जा रही थी। वह जोर-जोर से बैंक के अफसर और कृषि विभाग के अफसर को गालियाँ दे रही थी। गालियाँ किसी बोली, किसी भाषा के अधीन नहीं होती है। वह सारी बोलियों और भावनाओं में एक जैसे आदर और स्वीकार के साथ मौजूद होती है। कलेक्टर गालियों को समझ रहा था लेकिन उसका सन्दर्भ नहीं पकड़ पा रहा था। वह परमा के दुःख को पहचान रहा था लेकिन दुर्भाग्य यह था कि उसके गुस्से को नहीं समझ पा रहा था।



कलेक्टर ने पटवारी से कहा। पटवारी ने परमा को समझाया। परमा क्षण भर के लिए स्तब्ध रह गई। पटवारी थोड़ा परे सरक गया। परमा उस पर झपटने वाली थी। उसके गुस्से में पटवारी की हरकत भी जुड़ गई। पटवारी के बाद तहसीलदार आया। उसने भी आत्मीयता की ऐसी भाषा में जो जुबान से बाहर आते ही बनावटीपन के कारण अशालीन लग रही थी। उसने परमा को समझाया कि, - ‘‘इसे गोकुल की आत्महत्या मत कहो। अभी कुछ देर बाद शहर से पत्रकार आएँगे। तुम उन्हें बता देना कि गोकुल पागल था। बीमार था। पागलपन में उसने कई बार पहले भी मरने की कोशिश की थी। पागलपन बढ़ गया तो उसने फंदा लगा लिया।‘‘

परमा को लगा, सामने रामअवतार के घर रात में फिरने वाला पिशाच उसके सामने कई रूपों में आकर बैठा है। उसने कोई सख्त बात करने के लिए मुँह खोला तो तहसीलदार उसकी भंगिमा देख कर तुरन्त बोला, -‘‘पागल मत बनो। गुस्सा मत करो। समझने की कोशिश करो। तुम्हे गाँव में रहना है। घर, खेत सभी कुछ कर्जे में दबा है। मरने वाला तो चला गया। तुम अपने घर-परिवार की फिकर पालो।‘‘ तहसीलदार की भाषा में एक ऐसी कोमलता थी जो प्रलोभन के प्रकाश में भविष्य के अंधकार को विकराल करके बता रही थी। कलेक्टर एक कोने में खड़ा बेचैनी से सारी कार्रवाई को देख रहा था। परमा धाड़ मार कर जोर से रोने लगी तो कलेक्टर समझ गया कि यह गँवारू औरत नहीं मानेगी वह बेचैनी और गुस्से में होंठ चबाने लगा। फिर उसने आँगन से बाहर जा कर थानेदार को संकेत से पास बुलाया। थानेदार दौड़ा आया। कलेक्टर ने बहुत धीमी आवाज में उसे कुछ समझाया। तब तक एस. पी. के कदम भी उन तक पहुँच गए थे। इसी बीच क्षेत्र का विधायक भी पहुँच गया। आती ही उसने कलेक्टर और एस. पी. से कहा, - ‘‘आप चिंता मत करो। मैं समझाऊँगा तो औरत मान जाएगी।‘‘

थानेदार ने आश्वस्ति देने वाली मुद्रा में सिर हिलाया और घर के भीतर दाखिल हुआ। उसके पीछे कलेक्टर, एस.पी. और विधायक भी दाखिल हुए। अब आँगन में तहसीलदार थानेदार, एस. पी., कलेक्टर और विधायक परमा के आसपास खड़े थे। परमा दीवार से पीठ टिकाए बैठी अपमान और दुःख से भरी रो रही थी। बेटी डरी सहमी भीतर के दरवाजे पर खड़ी थी। गोकुल के बूढ़े माँ-बाप भीतर के कमरे में लगभग बंद कर दिए गए थे। जहाँ से कभी-कभी माँ की चीख की शक्ल में रुलाई का कोई टुकड़ा बाहर आ जाता है। अपाहिज बाप लगभग गूँगा हो चुका था।

थानेदार, तहसीलदार और विधायक परमा के पास उकड़ू होकर बैठ गए। दोनों ने अलग-अलग मोर्चा नए हथियारों के साथ सँभाला। तहसीलदार के पास प्रलोभन और आत्मीयता की भाषा की कोशिश थी जिसमें उसे खासी कठिनाई आ रही थी क्योंकि इतने बरसों की अफसरी में उसे कभी किसी से इतनी कोमलता से बात करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। थानेदार के पास धमकी, डर और आतंक की परिचित और मनपसंद भाषा थी जिसमें वह दक्ष था। उसने कहा, - ‘‘देख बाई, कल को किसी ने कह दिया कि गोकुल ने कर्जे के मारे आत्महत्या नहीं की। उसकी तो हत्या की गई है, तब? तब क्या करेगी? कहने वाले की जबान पकड़ेंगे क्या? कहने वाले तो यह भी कह सकते हैं कि तूने ही गोकुल को निबटा दिया। चक्कर था तेरा किसी के साथ। देख लिया उसने। ये बाहर खड़ा है, क्या नाम उसका? रात भर से वो लाश के पास बैठा है .... गौरी शंकर .... उसी ने फंदा कस दिया ....।‘‘

शर्म, दुःख और आतंक से परमा की आँखें बंद हो गई। -‘‘दरोगा, नरक जाएगा तू। हाथ.... हाथ भर के कीड़े पड़ेंगे तुझे।‘‘

-‘‘वो मैं निबट लूँगा। कीड़ों से भी और नरक की तकलीफों से भी।‘‘ थानेदार ने लापरवाही से उसकी घृणा को दुत्कारा, -‘‘तू अपनी सोच। तुझे जेल हो गई तो तेरे बच्चों का क्या होगा? मरने वाले के बूढ़े माँ-बाप गलियों में भीख माँगेंगे। और देखता हूँ कौन भीख देगा?‘‘ कहते-कहते थानेदार के स्वर में गुर्राहट उतर आई।

आँखों से बहते आँसूओं के बीच परमा की पूरी देह पसीने से नहा गई। उसने देखा, थानेदार बहुत अर्थपूर्ण नजरों से उसकी बेटी को घूर रहा था।

-‘‘मालूम है ना, अनाथ लड़कियाँ कहाँ जाकर बैठती हैं? कहाँ गायब होती हैं, कहाँ बिकती हैं? थानेदार ने एक ऐसी क्रूर आवाज में कहा जो अदेखे चाकू-सी उसकी छाती में उतरती चली गई। एकाएक दृश्य में तहसीलदार प्रकट हुआ। जैसे यहीं से उसका रोल शुरु होता हो।

-‘‘कैसी बात कर रहे हो थानेदार साहब! ये इज्जतदार लोग हैं। अपनी इज्जत के लिए जान देने वाले। गोकुल ने इज्जत के वास्ते ही तो जान दी। आप इसे डराओ मत। ऐसा कुछ नहीं होगा।‘‘ कहकर उसने एक कमीनी सहानुभूति के साथ परमा को सान्त्वना दी। जिसमें ऐसा कुछ हो जाने की संभावना की पुष्टि थी।

परमा डर और दुःख के मारे काँपने लगी। वह कोशिश कर रही थी अपने भय की थरथराहट पर काबू पाने की लेकिन नाकाम हो रही थी। कलेक्टर को उसका भय देखकर अब थोड़ी उम्मीद बँधी कि शायद यह बेवकूफ औरत मान जाएगी।

तभी विधायक ने पुचकार के स्वर में कहा, -‘‘और तुम कर्जे की चिन्ता मत करो। बैंक को बोल देंगे। कर्जा माफ हो जाएगा। कृषि विभाग और बैंक दोनों जगह से तुम्हारी कर्जे की वसूली रोक देंगे। दो दिनों में तो तुम्हे सारे कर्जे से छुटकारा मिल जाएगा।‘‘ फिर परमा की ओर उम्मीद से देखते हुए बोला, - ‘‘और तूझे दो बोल बोलना है। इसमें किस बात का दुःख और क्यों? मरने वाला कौन सुनने बैठा है कि तूने उसे पागल कहा है।‘‘

इधर थानेदार और तहसीलदार परमा को समझा रहे थे तभी कुशल प्रशासन का बेस्ट अवार्ड ले चुके कलेक्टर को एक और उपाय सूझा। उसने पटवारी और एक सिपाही को भीतर कमरे में गोकुल के माँ-बाप के पास भेजा।

थानेदार और तहसीलदार के संवादों का दुहराव भीतर कमरे में होने लगा। सुबह से दोपहर हो गई। भीतर के कमरे से गोकुल के माँ-बाप ने आकर परमा को समझाया।

डर, दुःख और आतंक ने आखिरकार परमा को तोड़ दिया। उसे टूटते देख कर एस. पी. ने मन ही मन अपनी पीठ थपथपाई। कलेक्टर के चेहरे पर एक लुच्ची खुशी प्रकट हुई। परमा ने थानेदार की ओर देखा, - ‘‘दरोगा, यह तो आज मुझे मालूम हो गया कि भगवान इस दुनिया में नहीं है।‘‘ कह कर उसने अपनी बेटी की ओर संकेत किया और बोली, -‘‘तू इस बच्ची की माँ की हाय से डरना। तू मरने वाले की विधवा के शाप से डरना।‘‘

थानेदार कुछ बोलने वाला ही था कि उसे परमा ने रोक दिया, -‘‘अभी नहीं, घर जा कर सोचना। तू इंसान होगा तो तुझे डर लगेगा।‘‘

कलेक्टर ने अपनी खुशी को बहुत प्रयास करके दबाया और थानेदार को संकेत किया कि इसे बोलने दो। वह जानता है, दुःख में आदमी गलत-सलत बोलता है। खास बात तो यह है कि हमारा काम हो जाएगा।

परमा फिर तहसीलदार की ओर पलटी, - ‘‘तुम्हारी जबान बहुत मीठी है साहबजी !‘‘ तहसीलदार अपनी इस प्रशंसा से थोड़ा मुस्कराया तभी परमा ने कहा, - ‘‘पर इस जुबान से ऐसा मीठा मत बोलो। इससे तो गूँ खाना अच्छा।‘‘

तहसीलदार के चेहरे से खुशी उड़ गई। वह तिलमिलाया, - ‘‘पागल हो गई है क्या? कुछ भी बक रही है।‘‘ वह गुस्से में उबलने लगा। तभी कलेक्टर ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ धरा और धीमे लेकिन सख्त स्वर में बोला, - ‘‘उस औरत को बार-बार पागल मत कहो। कोई सुन लेगा। हमें मीडिया के सामने उसका बयान चाहिए। एक स्वस्थ और होशो हवास में खड़ी औरत का बयान। समझे! तुम गुस्से में या भूल में भी उसे पागल मत कहो। पागल औरत का बयान दो कौड़ी का। सारी मेहनत बेकार जाएगी।‘‘ तहसीलदार ने सहमति में सिर हिलाया और वापस परमा को समझाने लगा। परमा कलेक्टर की बातें सुन रही थीं लेकिन उसके लिए इन बातों का एकाएक कोई अर्थ नहीं था।

-‘‘और ये कर्जे की माफी वाली बात इस गाँव में दुबारा मत करना।‘‘ परमा ने विधायक के गुस्से की परवाह किए बगैर उसे कहा, - ‘‘ऐसे में तो गाँव के दूसरे किसान भी कर्जे से छुटकारा पाने के लिए फाँसी पर चढ़ने लगेंगे। उन लोगों को कर्जे से छुटकारे के लिए ये आसान लगेगा। गाँव में कर्जे में डूबे और भी किसान हैं। मेरे कर्जे की चिन्ता तुम मत करो। घर-खेत बिक जाएँगे तो मजदूरी करूँगी। नहीं तो दरोगा ने दूसरी राह बता दी है। खुद बिक जाऊँगी और घर को पाल लूँगी। पर तुम्हारी दी हुई कर्जे की माफी नहीं लूँगी।‘‘

विधायक चुप रहा। तहसीलदार और थानेदार भी चुप हो गए। एस. पी. ने इशारा किया। थानेदार बाहर दौड़ा। तुरंत गाँव की काकड़ पर रोके गए मीडिया के लोगों को गाँव में प्रवेश दिया। एक बड़ी भीड़ गोकुल के घर के सामने आ गई। दर्जनों कैमरे और माइक लिए वे परमा को घेर कर खड़े हो गए।

लाश आँगन के कोने में रखी थी। परमा ने सिर्फ वो वाक्य बोले जो उसे बताए थे।
-‘‘मेरा पति पागल था। पागलपन में उसने आत्महत्या कर ली।‘‘ उसके बाद वह जोर से रोने लगी तो कलेक्टर को अवसर मिल गया।

-‘‘देखिये, वह गहरे दुःख में है। बाकी बातें फिर। अभी मरने वाले की विधवा को दुःख में ज्यादा परेशान नहीं करना है।‘‘ कह कर कलेक्टर ने तहसीलदार को इशारा किया। तहसीलदार पत्रकारों को घर से चलने के लिए मनुहार करने लगा। गाँव के लोग भी इकट्ठा हो गए थे। पत्रकारों के पीछे भीड़ खड़ी थी। बच्चे भी कौतुहल से पत्रकारों को देख रहे थे।

गौरीशंकर जो इतनी देर से घर के बाहर था, भीतर आ गया था। वह कलेक्टर के पास आ कर खड़ा हो गया।

-‘‘साहब, आप लोगों की डूटी पूरी हो गई हो, आप लोगों का काम हो गया हो तो हम मिट्टी को मसान ले जाने की तैयारी करें।‘‘  गौरीशंकर ने लाश की ओर संकेत करके कलेक्टर से कहा।

-‘‘बिल्कुल..... बिल्कुल......! हमारे लायक भी कोई काम हो तो बताओ !‘‘ कलेक्टर के स्वर में मिश्री घुल गई।
-‘‘बस साहब, घर और आँगन से भीड़ हट जाए। आप लोग आँगन से बाहर हो जाएँ तो हम लोग यह आँगन गंगाजल छिड़क कर पवित्र कर लें। फिर इस जमीन पर अर्थी तैयार करेंगे ।‘‘ गौरीशंकर ने हाथ जोड़ कर कहा।

कलेक्टर ने गौरीशंकर को ध्यान से देखा। उसे लगा वह आँगन पवित्र करने की बात उसकी उपस्थिति से जोड़ कर व्यंग्य में कह रहा है। लेकिन गौरीशंकर का चेहरा भावहीन था। वहाँ सिर्फ दुःख था। कलेक्टर को जिससे कोई मतलब नहीं था। उसने पटवारी को संकेत किया। पटवारी परमा को भीतर ले जाने लगा। भीतर जाते जाते परमा विधायक के पास रुक गई। सारे कैमरे उसकी ओर पलट गए। विधायक तस्वीर खिंचाने के लिए अपनी स्थायी मुस्कान के साथ खड़ा रहा। तभी परमा ने पूरी शक्ति से विधायक के मुँह पर थूका। विधायक का पूरा मुँह थूक से भर गया। सारे कैमरे हरकत में थे। कलेक्टर हक्का-बक्का रह गया। वह आगे बढ़ा तो परमा ने जोर से खखारा और मुँह में थूक इकट्ठा किया और कलेक्टर के मुँह पर थूका। कलेक्टर का चेहरा भी थूक से भर गया और थूक का रेला बह कर उसकी उजली टाई और कमीज पर गिरने लगा। गाँव के बच्चे जो इस बीच वहाँ भीड़ देख कर इकट्ठा हो गए थे हँसने लगे फिर जाने क्या सोच कर जोर जोर से ताली बजा कर कूदने लगे।

परमा ने भी कलेक्टर के पास जाकर धीमे लेकिन सख्त स्वर में कहा, -‘‘अब पागल बोल कर देख मुझे। बोल पागल .....।‘‘

जो सचमुच उसे गुस्से में पागल बोलने ही वाला था कि मन मसोस कर चुप रह गया। जेब से रूमाल निकाल कर चेहरे पर गिरा थूक पोंछने लगा। विधायक अपने कुर्ते से थूक पोछ चुका था। बच्चे अभी भी कूद रहे थे और तालियाँ बजा रहे थे।

                            
सम्पर्क-



13, एच.आई.जी. 
ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कालोनी,  
जैतापुर खरगोन 451001 
(म.प्र.)

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)



मोबाइल नम्बर - 08989432087

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-07-2016) को "हास्य रिश्तों को मजबूत करता है" (चर्चा अंक-2418) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'