अजय कुमार पाण्डेय द्वारा संपादित कविता-संग्रह पर रामजी तिवारी की समीक्षा




बाल-साहित्य के बारे में प्रख्यात गीतकार और शायर गुलज़ार ने एक बार कहीं यह कहा था कि, ‘अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसका आनंद बच्‍चे से ले कर बड़े तक ले सकें। बाल साहित्य की यह वह परिभाषा है जो उसे अब तलक बनाए गए खांचों से स्वतन्त्र करती है हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में लगभग दो हजार साल पहले प्‍लेटो द्वारा कही गयी बात को भी हमें अच्छी तरह ध्यान में रखना होगा कि, ‘बच्‍चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है। जैसे किसी विदेशी से जिसकी भाषा आपको न आती हो जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा। और जब वह बोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम उसकी पूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान-प्रदान होता है वह आधा-अधूरा होता है।हमें बच्‍चे को भी इस तथ्‍य को ध्‍यान में रख कर देखना और समझना चाहिए। कवि अजय कुमार पाण्डेय ने इधर बाल-कविताओं का एक उम्दा संकलन तैयार किया है जिसे साहित्य भण्डार, इलाहाबाद ने बेहतर कलेवर और साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किया है इस संकलन में सम्पादक ने उन कुछ कविताओं को शामिल किया है जिसके केन्द्र या परिदृश्य में बच्चे हैं इस महत्वपूर्ण संकलन के लिए अजय कुमार पाण्डेय को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस संकलन पर कवि-यायावर रामजी तिवारी द्वारा लिखी गयी यह समीक्षा   



बेहतर दुनिया की तलाश में             


रामजी तिवारी 


आधुनिक सभ्यता ने मानव जाति को एक अजीब दोराहे पर खड़ा कर दिया है। एक तरफ हम दुनिया के साथ आगे बढ़ने की दौड़ में शामिल हैं और चाहते हैं कि अपने बच्चों के लिए सब कुछ संजो कर जाएँ। वहीं दूसरी तरफ इस सब कुछ को जुटा लेने की अंधी दौड़ के कारण हमारी पृथ्वी का जो दोहन हो रहा है, उसके चलते हमारी दुनिया का भविष्य ही प्रश्नों के दायरे में आ गया है। यानि कि हम जिस दुनिया में अपने सात पीढ़ियों के लिए भौतिक व्यवस्था जुटाने के लिए मर-कट रहे हैं, वही दुनिया हमारे इस जुटाने की हवस के कारण हमारी ही पीढ़ी के सामने अपने अस्तित्व के लिए कराह रही है। मसलन पर्यावरण का उदहारण ले लीजिए। हम सब जानते हैं कि मनुष्य की भौतिक सम्पदाएँ सीमित हैं। और साथ में यह भी कि यह पृथ्वी हमारी जरूरतों को तो पूरा कर सकती है, लेकिन हमारी इच्छाओं को नहीं। बावजूद इसके हम अपनी पृथ्वी के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो वह हमारी सारी इच्छाओं को अनंत काल पूरा करती रहेगी। हम भौतिक संसाधनों के साथ इस तरह से पेश आते हैं, गोया वे अनंत काल तक बने रहेंगे।

यह कितना बड़ा विरोधभास है कि एक तरफ तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को तमाम भौतिक सुख-सुविधाएँ दे कर जाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए हम इस बात को भूल ही जाते हैं कि हमने उन पीढ़ियों के लिए रहने लायक परिस्थिति ही नहीं छोड़ी है। दुखद यह कि ‘पर्यावरण की इस कहानी’ को आप ‘बच्चों की कहानी’ पर भी लागू कर सकते हैं। एक तरफ हम अपने बच्चों से इतना सारा प्यार करते हैं। उन्हें दुनिया की हर ख़ुशी देना चाहते हैं। उनके सामने भौतिक संसाधनों का अम्बार लगा देना चाहते हैं। उनके लिए संपत्ति और धन का सारा संकेन्द्रण कर देना चाहते हैं। और इस कथित प्यार को देने के लिए दुनिया भर में मार काट मचाते हैं, युद्ध लड़ते हैं, दंगे करते हैं। नैतिक-अनैतिक हर तरह का व्यवहार करते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि जब इस दुनिया में मानवीय सम्बन्ध ही रहने लायक नहीं बचेंगे, तो हमारे आने वाले बच्चों का भविष्य क्या होगा। बिना दुनिया को रहने लायक छोड़ते हुए हम अपने ही बच्चों को आखिर कौन सी ख़ुशी सौंप सकते हैं...? अंततः हमारे बच्चे भी तो इसी दुनिया में रहेंगे।

इस पूरे सवाल के मद्देनजर जब हम दुनिया के भविष्य की तरफ नजर दौडाते हैं, तो हमें आशा और निराशा दोनों साथ-साथ मिलती है। आशा इसलिए कि दुनिया इस सवाल को बखूबी समझ रही है कि यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुख-समृद्धि सौंपना चाहते हैं तो हमें उन्हें एक बेहतर दुनिया भी सौपनी होगी। और निराशा इसलिए कि इस समझ के बावजूद हमारा व्यवहार अभी भी दुनिया को बेहतर नहीं बना रहा है। 

मसलन हम यह जानते हैं कि दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली नियोजित हिंसा का सबसे अधिक प्रभाव समाज के कमजोर वर्गों पर ही पड़ता है। और इसी कमजोर वर्ग में दुनिया भर के बच्चे भी आते हैं। आधुनिक दुनिया में लड़े गए विश्व युद्धों की बात हो, दो देशों के बीच की लड़ी जाने वाली लड़ाईयां हों, समाज के आपसी झगडे हों, कबीलाई संघर्ष हों, दंगे-फसाद की त्रासदी हो, या फिर घर और समाज के कोने अतरों में पलने वाली जाले हो, इन सबमे दुनिया भर के मासूम बच्चे शिकार बनते हैं। ऐसे निरपराध बच्चे, जो यह जानते तक नहीं कि उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों किया जा रहा है।

तो ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि जिन्हें हम दुनिया का भविष्य समझते हैं और जो सिर्फ प्यार और मुहब्बत की भाषा जानते हैं, उन पर यह अत्याचार क्यों....? इसी सवाल को रेखांकित करते हुए कवि अजय कुमार पाण्डेय ने कविता की एक किताब सम्पादित की है। जिसका शीर्षक है– “बच्चों से अदब से बात करो”। साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली इस किताब में लगभग चालीस कवियों की कविताएँ संकलित हैं। इनमें हमारी भाषा के वरिष्ठ कवि भी शामिल हैं, और नवोदित भी। ये सभी कविताएँ बच्चों पर होने वाले विभिन्न अपराधों और अत्याचारों को केंद्र में रख कर लिखी गयी है।

इस संग्रह से गुजरते हुए आप यह जान पाते हैं कि हमारी अपनी भाषा में कविताओं की रेंज क्या है। बाज दफा यह आरोप लगाया जाता है कि आजकल के कवि या हमारी भाषा के कवि बहुत आत्मकेन्द्रित हो गए हैं। वे देश और दुनिया से कट गए हैं। उनके विमर्श कुल मिला कर मध्य वर्गीय और शहराती हो गए हैं। दुनिया के सामने पैदा होने वाले महत्वपूर्ण सवालों से वे अनजान हैं। लेकिन ख़ुशी की बात है कि यह संग्रह इन जैसे कई और आरोपों का मुकम्मल जबाब देता है।

बेशक कि इस संग्रह की अपनी सीमा है। और इस नाते वह इस विषय पर लिखी जाने सभी कविताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। लेकिन इससे यह पता तो चलता ही है कि सिर्फ एक विषय पर हमारी अपनी भाषा में इतनी सारी अच्छी कविताएँ लिखी जा रही हैं। यह संग्रह एक बानगी दिखाता है कि हिन्दी के कवि भी देश और दुनिया के बारे में सोचते हैं। उसी गंभीरता से कविताएँ लिखते हैं, जैसा कि उनसे अपेक्षा की जाती है।



मसलन संग्रह की पहली वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की है। इस कविता में वे ईराक युद्ध में एक घायल बच्चे को टेलीविजन पर देखकर व्यथित होते हुए लिखते हैं कि

“बंद कर दो टी. वी.
अगर जला न सको
इनकार करता हूँ कि मैं कवि हूँ
और देख रहा हूँ इन्ही आँखों से
एक शिशु-आँख हवा में झूलती हुई .....”।

इसी तरह संग्रह की तीसरी कविता में नाजी कैम्पों में मानवता के साथ किये गए जघन्य कृत्यों की दास्तान दर्ज है। यह एक ऐसा विषय है, जिस पर दुनिया भर की भाषाओँ में कलम चलायी गयी है। तमाम देशों की फिल्मों ने उन्हें सेल्युलाइड पर उतारा है। उन्हें केंद्र में रख कर दुनिया को उसका अपना ही चेहरा दिखाया है। गर्व की बात यह है कि हिन्दी कविता में भी यह प्रयास हुआ है। उसकी एक बानगी इस संग्रह में संकलित वरिष्ठ कवि सोम दत्त की कविता में देखी जा सकती है। कविता का शीर्षक है ‘क्रागुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा’। यह अद्भुत कविता है। इतनी संवेदनशील और मार्मिक कि हम इसे पढ़ना भी चाहते हैं, और पढ़ भी नहीं पाते। यह कविता हर पाठक को भीतर से झकझोरती है, रुलाती है। यह इतनी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कविता है कि इस अकेली कविता के लिए भी यह संग्रह खरीदा जा सकता है। साधारण भाषा और साधारण बिम्बों के सहारे सोमदत्त ने वह दृश्य रचा है, जो आपको यह सोचने के लिए मजबूर कर दे कि युद्धों ने हमारी दुनिया से कितना कुछ छीना है। आपके भीतर यह प्रेरणा भर दे कि दुनिया के किसी भी कोने में यह दृश्य दुबारा पैदा न हो।

अजय कुमार पाण्डेय

क्रागुएवात्स के इस कैम्प में नाजी सेना ने आठ सौ बच्चों को मौत के घात उतार दिया था। जब इस कुकृत्य के बाद जर्मनों ने उस कैम्प को छोड़ा, तो उस गाँव के बचे-खुचे लोग वहाँ पहुँचे। उन गाँव वालों को वहाँ सामूहिक कब्रें मिलीं, जिनके आसपास सूखे खून से सनी मिट्टी के बीच कुछ चिन्दियाँ बिखरी पड़ी थीं। कागज़ की वे चिन्दियाँ चिट्ठियां थी, जिनमें बच्चों ने, शिक्षकों और शिक्षिकाओं ने संदेश लिखे थे। अपने प्रिय जनों को संबोधित आखिरी संदेशे। सोमदत्त ने उन्हीं में से एक संदेसे को दर्ज करते हुए वह ‘मास्टरपीस’ कविता लिखी है।

“ममा
आठवीं क्लास वाली सिस्टर विनिच
हमारी क्लास में दौड़ती हुई आईं
बोली
“बच्चों! मेरे फूलों!”
उसने ‘मेरे फूलों’ क्यों कहा ममा?
हम कोई फूल हैं...?
बोली –“बच्चों...!
यह हमारा नया स्कूल है”
जंगल में टीन से घिरा कोई स्कूल होता है ममा...?
“कल सुबह हमारी परीक्षा होगी
तड़के शुरू हो जायेगी
हरेक की होगी
बच्चों की, टीचरों की, प्रिंसिपल की
पानी पिलाने वाली बूढी आया की
स्कूल के चौकीदार सूपिच की
घंटी बजाने वाले को भी छुट्टी नहीं मिलेगी
सब एक लाइन में खड़े किये जायेंगे
फिर एक-एक से सवाल होगा
सवाल बन्दूक पूछेगी
और हमें मुँह से नहीं
अपने सीने से जबाब देने होंगे
सिर्फ एक सवाल किया जाएगा एक से
परचा जर्मनी से आया है
कोई हिटलर है
उसने बनाया है
..................................”

यह कविता हर संवेदनशील पाठक को रुलाती है, व्यथित करती है और सोचने के लिए मजबूर भी कि हमें कैसी दुनिया चाहिए।

अभी सीरियाई शरणार्थियों की त्रासदी में मानव जाति की दयनीयता के दृश्य दुनिया ने देखे हैं। और दुनिया ने यह भी देखा है कि पेशावर के स्कूल में कैसे निर्दोष बच्चों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। इस संग्रह में इस विषय पर वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय और युवा कवि संतोष चतुर्वेदी की दो कविताएँ दर्ज हैं।

वरिष्ठ कवि लाल्टू की हिरोशिमा को याद करती कविता भी आप इसमें पढ़ सकते हैं। साथ ही साथ इसमें दंगों को लेकर दो अत्यंत संवेदनशील कविताएँ भी संकलित हैं। पहली कविता वरिष्ठ कवि विष्णु खरे की ‘शिविर में शिशु’ है। और दूसरी कविता युवा कवि अरविन्द की ‘दंगों में मारे गए बच्चे’ है, जिसमें वे कहते हैं-

“दंगों में मारे गए बच्चे
इतने कोमल और मासूम थे कि
अगर वे दंगों के दिन नहीं होते
तो किसी भी संप्रदाय के लोग
उनको चूमने
प्यार करने की असीम इच्छा रखते
............................................”

बाकि इस संग्रह में देश और दुनिया में बच्चों के विरुद्ध होने वाले तमाम प्रकार के दुर्व्यवहारों को केंद्र में रख कर कई अन्य महत्वपूर्ण कविताएँ भी दर्ज हैं। इनमें वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविता ‘अच्छे बच्चे’, ज्ञानेंद्रपति की कविता ‘खून का रिश्ता’, अशोक वाजपेयी की कविता ‘बर्बर और बचपन’, राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे है’ और चंद्रकांत देवताले की कविता ‘थोड़े से बच्चे और बाकि बच्चे’ शामिल है। तो वहीं युवा कवियों में शैलजा पाठक की कविता ‘उसके चेहरे से मिला लेती हूँ अपना बेटा’, कमलजीत चौधरी की कविता ‘तालियाँ बजाता नन्हा बिम्ब’ और अनुज लुगुन की कविता ‘तुम्हारी गति और समय का अंतराल’ भी दर्ज हैं। संग्रह की अंतिम कविता इसके संपादक अजय पाण्डेय की है। जिसमें वे कहते हैं कि ....

“कल दो बच्चों ने
खेलते हुए लड़ाई कर ली
आज फिर खेल रहे हैं
क्यों न यह दुनिया
इनके हवाले कर दें ।”

बिलकुल ..... हमारी दुनिया में मतभेद स्वाभाविक हैं। लड़ाई और झगड़े भी स्वाभाविक हैं। लेकिन उसमें इतनी गुंजाईश भी जरुर बची रहनी चाहिए कि हम फिर से दोस्ती की राह पर वापसी कर सकें। और यह गुंजाइश तभी बची रह सकती है, जब हमारे मतभेद सैद्धांतिक स्तर के हों। वे घृणा के स्तर पर न पहुँचे। जाहिर है, ऐसे में दुनिया को बेहतर बनाने का सपना बचा रह सकता है। और जब दुनिया के बेहतर होने का सपना बचा रह सकता है, तो उस दुनिया का भविष्य भी बचा रह सकता है। सलामत रह सकता है। आप चाहें तो इस बात को उलट कर भी पढ़ और समझ सकते हैं कि जिस दुनिया में बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार होगा, उस दुनिया का वर्तमान भी अच्छा होगा और भविष्य भी।

दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयास के रूप में इस पुस्तक का स्वागत किया जाना चाहिए।

पुस्तक का नाम – बच्चों से अदब से बात करों
कविता संकलन
संपादक – अजय कुमार पाण्डेय
प्रकाशक – साहित्य भंडार, इलाहाबाद
 

रामजी तिवारी







समीक्षक 

रामजी तिवारी
बलिया, उ.प्र.

मो.न. – 9450546312 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'