लालबहादुर वर्मा से संज्ञा उपाध्याय की बातचीत




शब्दानुसंधान प्रकाशन, नयी दिल्ली से रमेश उपाध्याय और संज्ञा उपाध्याय के सम्पादन में 'आज के सवाल' शीर्षक से कई महत्वपूर्ण पुस्तिकाएं अत्यंत कम मूल्य में प्रकाशित की गयी हैं. इन पुस्तिकाओं में आज की अनेकानेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर महत्वपूर्ण आलेख और साक्षात्कार प्रकाशित किए गए हैं. इन पुस्तिकाओं में मेरी नजर 'आज के सवाल - 31 के अंतर्गत प्रकाशित 'इतिहास और भूमंडलीकरण' पुस्तिका पर पड़ी. इसमें शुरू में ही प्रख्यात इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है.  वर्मा जी से यह साक्षात्कार लिया है संज्ञा उपाध्याय ने. संज्ञा ने इस साक्षात्कार के क्रम में कई महत्वपूर्ण सवाल पूछे हैं जिसका वर्मा जी तर्कसंगत जवाब दिया है. हमने संज्ञा से यह साक्षात्कार उपलब्ध कराने का आग्रह किया. आज हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण साक्षात्कार.       

इतिहास ही मानव विवेक का आधार है

प्रसिद्ध जन-इतिहासकार लालबहादुर वर्मा से संज्ञा उपाध्याय की बातचीत



संज्ञा उपाध्याय : वर्मा जी, ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि भूमंडलीकरण एक नयी परिघटना है। वे इसका संबंध सोवियत संघ के विघटन से जोड़ते हैं, जिसे वे समाजवाद की पराजय और पूँजीवाद की विश्व विजय के रूप में देखते हैं। लेकिन इसके विपरीत अर्थशास्त्र, राजनीति, इतिहास और समाजशास्त्र के क्षेत्रों के अनेक विद्वान बताते हैं कि भूमंडलीकरण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जो प्राचीन काल से विभिन्न रूपों में चली आ रही है। आप इस प्रक्रिया का आरंभ और विकास किस रूप में देखते हैं? 


लालबहादुर वर्मा: देखिए, आपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं भूमंडलीकरण के बारे में फैले हुए दो विभ्रमों की बात कर लूँ। एक तो यह कि भूमंडलीकरण अपने में कोई बहुत खराब-सी चीज है और दूसरा यह कि इसको रोका जा सकता है। मैं यह कहूँगा कि भूमंडलीकरण अपने में कोई खराब चीज नहीं, बल्कि वांछित और जरूरी है। खराब वह इसलिए लगता है कि केवल पूँजी का और पूँजीवादी भूमंडलीकरण होने के कारण इसके दुष्परिणाम निकल रहे हैं। यदि यह श्रम का और समाजवादी भूमंडलीकरण होता, तो इसके परिणाम दूसरे होते और यह खराब न लगता। दूसरी बात: क्या इसको रोका जा सकता है? इस पर भी मुझे यह कहना है कि भूमंडलीकरण अनिवार्य है, अपरिहार्य है। यह तो हो कर ही रहेगा, जैसे कि इतिहास में पहले भी होता रहा है।

अब आपके प्रश्न के उत्तर में मैं यह कहूँगा कि वर्तमान भूमंडलीकरण क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद शुरू हुआ और इसके साथ-साथ इतिहास के अंत और दुनिया की एकध्रुवीयता की बातें की गयीं, इसलिए ऐसा लगा कि यह सोवियत संघ के विघटन के बाद की कोई नयी चीज है। लेकिन भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तो सभ्यता के शुरू होने के पहले से चली आ रही है। विज्ञान यह मानता है कि मानव विकसित हुआ अफ्रीका में और वहाँ से चलकर वह भारत होते हुए ऑस्टेªलिया और सारी दुनिया में गया। इस प्रकार भूमंडलीकरण वानर के मानव बनने के साथ ही शुरू हो गया था। दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में भी वह एक सदिच्छा के रूप में दिखायी पड़ता है। जैसे, भारत में एक बड़ी पुरानी कहावत है--‘‘वसुधैव कुटुंबकम्’’।

 

संज्ञा उपाध्याय : यानी आरंभ में वैश्विकता या भूमंडलीयता एक सदिच्छा थी, वास्तविकता नहीं? 


लालबहादुर वर्मा : हाँ, सदिच्छा ही थी, क्योंकि आरंभ में तो विश्व उतना ही होता था, जितना लोगों को ज्ञात होता था। आधुनिक काल में जब कोलंबस के साथ या ‘कोलंबियन स्पिरिट’ के साथ दुनिया की खोज शुरू हुई, तो उस भूगोल को जाना गया, जिसे हम विश्व कह रहे थे। दूसरी तरफ जब चीजों को उनकी संपूर्णता में जानने की कोशिश शुरू हुई, तो विश्व का यथार्थ उजागर हुआ और धीरे-धीरे एक भौगोलिक विश्व बना, एक वैज्ञानिक विश्व बना, और फिर धीरे-धीरे एक वैश्विक अर्थव्यवस्था बनी। उस वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि उपनिवेशवाद शुरू हुआ और औपनिवेशिक कारणों से विश्व एक हो गया, जैसे कहा जाता है कि इंग्लैंड के राज में सूरज नहीं डूबता था। यानी सभी देशांतरों पर उसका राज था। फिर बीसवीं सदी में एक वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था बनाने की कोशिश शुरू हुई, तो पहले लीग ऑफ नेशंस बनी, जो बहुत-से कारणों से नष्ट हो गयी। लेकिन उसके बाद फिर युनाइटेड नेशंस बना। इस प्रकार हम मानव सभ्यता के इतिहास पर नजर डालें, तो वैश्विकता या भूमंडलीयता का विकास एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारधारात्मक आदि विविध विश्लेषण हो सकते हैं। इसलिए भूमंडलीकरण को सोवियत संघ के विघटन के बाद की किसी नयी या समकालीन परिघटना के रूप में देखना मुनासिब नहीं होगा।






संज्ञा उपाध्याय: मतलब, यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। 


लालबहादुर वर्मा: हाँ, यह तो निश्चित ही है कि यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। आज जब हम भूमंडलीकरण की बात करते हैं, तो हमारा ज्यादा जोर विश्व की आर्थिक व्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों पर होता है। लेकिन वास्तव में उसका मर्म हम समझें, तो मानव मन में विस्तार की, व्यापकता की, विराटता की जो सदिच्छा है, उसका सूचक है भूमंडलीकरण। यह शब्द नया है, लेकिन यह प्रक्रिया बहुत पुरानी है और वह प्रायः सकारात्मक ही रही है। वैसे यह कभी-कभी जरूर होता है कि विस्तारवादी प्रवृत्तियों के चलते कोई अपने राज्य का, या अपने धर्म का या अपने संप्रदाय का विस्तार करने चलता है, तो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया नकारात्मक हो जाती है। लेकिन मूलतः वह सकारात्मक है। वह एक सदिच्छा है, एक सकारात्मक प्रयास है और मानवता का एक लक्ष्य भी है। 






संज्ञा उपाध्याय: भूमंडलीकरण की यह ऐतिहासिक प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है या इसमें समय-समय पर अंतराल या व्यवधान आते रहे हैं? उसका विकास किन चरणों या अवस्थाओं में हुआ है? 


लाल बहादुर वर्मा: मैं कहूँगा कि एक तरफ तो यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, जो चलती ही रहती है; लेकिन दूसरी तरफ यह भी है कि इसमें कई विकृतियाँ पैदा हुई हैं और कई व्यवधान भी आये हैं। उदाहरण के लिए, आधुनिक काल के आरंभ में पुनर्जागरण के बाद यूरोप में एक नयी परिघटना हुई कि राष्ट्र-राज्य बने। कारण यह था कि पूँजीवाद का जो आविर्भाव हुआ, उसके लिए जरूरी था कि राजसत्ता उसका समर्थन करे। इस जरूरत से राष्ट्र-राज्य बना, जो वास्तव में पहले की छोटी-छोटी सामंती इकाइयों का एक बड़ा रूप था। लेकिन वह एक प्रकार से ‘एक्सक्लूसिव’ (एकांतिक या अनन्य) भी था कि इतना क्षेत्र अपना है, बाकी पराया है; इतने लोग अपने हैं, बाकी पराये हैं। इस प्रकार राष्ट्र-राज्य भूमंडलीकरण की नैसर्गिक प्रक्रिया में एक अनिवार्य बुराई के रूप में विकसित हुआ। इसके बाद जब सारी दुनिया में उपनिवेश बन गये, तो उनके विरोध में राष्ट्रवाद का जन्म हुआ, जो सामंतवाद, पूँजीवाद और उपनिवेशवाद का विरोधी होने के कारण कुछ समय तक सकारात्मक रहा, लेकिन बाद में उसी राष्ट्रवादी या अतिराष्ट्रवादी प्रवृत्ति के कारण बाजारों के वितरण को लेकर इतनी अधिक राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विताएँ पैदा हुईं कि प्रथम विश्व युद्ध हुआ। उस युद्ध का ऐसा दुष्परिणाम निकला कि कुछ राष्ट्रों ने दूसरे राष्ट्रों को दबाना चाहा और उससे फासीवाद पैदा हुआ। फासीवाद ने दुनिया को दूसरे विश्व युद्ध में झोंक दिया, जिसमें समस्त विश्व का विध्वंस तो होते-होते रह गया, लेकिन फिर भी दुनिया का बहुत विनाश हुआ। इन चीजों से वैश्विकता का या भूमंडलीयता का जो नैसर्गिक विकास हो रहा था, उसमें व्यवधान आये और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया बाधित हुई, विकृत भी हुई।

 
संज्ञा उपाध्याय: तो इन व्यवधानों से उसका जो रूप बदला, उसे आप किस प्रकार देखते हैं? 

लाल बहादुर वर्मा : वर्तमान भूमंडलीकरण एक प्रकार से अनिवार्य था। इतिहास में हम देखते हैं कि जब सामंतवाद उत्पादन की प्रक्रियाओं में बाधा बन गया था, तो पूँजीवाद ने आकर सामंतवादी जकड़बंदी को तोड़ा। लेकिन पूँजीवाद अपने में एक बड़ा अंतर्विरोध समेटे हुए चलने वाली व्यवस्था है। एक तो पूँजीवाद की प्रकृति यह है कि वह राष्ट्रीय सीमाओं को पार करके सारी दुनिया को एक मुक्त बाजार के रूप में देखना चाहता है। दूसरे, वह एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में एक दूसरी वैश्विक व्यवस्था की ओर दुनिया को प्रेरित करता है, जिसे समाजवाद कहते हैं। समाजवाद की शुरुआत तो काल्पनिक समाजवाद के रूप में अठारहवीं सदी में ही हो गयी थी, लेकिन बीसवीं सदी में उसका जो विकास हुआ, उसके कारण यह लगने लगा कि दुनिया के पास दो तरह के विकल्प हैं--पूँजीवाद और समाजवाद--और दोनों ही विश्व व्यवस्थाएँ हैं, जिनमें भूमंडलीकरण निहित है। पूँजीवाद चाहता है कि पूरी दुनिया में पूँजीवादी राष्ट्रों का समन्वय हो, जबकि समाजवाद चाहता है कि विभिन्न प्रकार के गणतंत्रों का एक संगठन बने, जैसे सोवियत संघ में हुआ था और जिसका लक्ष्य था कि सारी दुनिया के सोवियत गणराज्यों का संघ बने। लेकिन दुनिया में दो विश्व व्यवस्थाएँ एक साथ कैसे चल सकती हैं? जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, वैसे ही दुनिया में दो विश्व व्यवस्थाएँ एक साथ नहीं चल सकतीं। दोनों में एक प्रकार की ‘इनकम्पैटिबिलिटी’ (असंयोज्यता) थी कि एक रहेगी, तो दूसरी नहीं रहेगी। इस कारण दोनों व्यवस्थाओं के बीच संघर्ष चला। खुलकर लड़ाइयाँ तो नहीं हुईं, लेकिन शीत युद्ध बहुत दिनों तक चला, जिसके दौरान दोनों ने एक-दूसरे को नष्ट करने की कोशिश की...



संज्ञा उपाध्याय: बीच में एक समय ऐसा भी रहा, जब यह माना गया कि दोनों का सहअस्तित्व संभव है...

लालबहादुर वर्मा: हाँ, लेकिन जब सोवियत संघ में ख्रुश्चेव इस नतीजे पर पहुँचे कि सह-अस्तित्व संभव है, तो वहाँ धीरे-धीरे पूँजीवाद की वापसी होने लगी और उसकी परिणति सोवियत संघ के विघटन के रूप में हुई। तब पूँजीवाद को लगा कि अब उसकी विश्व व्यवस्था में कोई व्यवधान नहीं रहा, समाजवाद पर उसकी विजय हो गयी, इतिहास का अंत हो गया, दुनिया एकध्रुवीय हो गयी, और अब सारी दुनिया में मुक्त बाजार वाली व्यवस्था निर्द्वंद्व होकर चलायी जा सकती है। इस प्रकार नव- उदारवादी पूँजीवाद ने मानो एक प्रकार से अश्वमेध का घोड़ा छोड़ दिया कि वह सारी दुनिया को जीतता हुआ चला जाये। लेकिन इसका जो अपना अंतर्विरोध है, वह यह कि आर्थिक भूमंडलीकरण को सँभालने के लिए जो राजनीतिक भूमंडलीकरण होना चाहिए, वह हो नहीं पा रहा है। जैसे राष्ट्र-राज्य बना था कि एक पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था को सपोर्ट करने वाली एक राज्य व्यवस्था हो, वैसे ही सारी दुनिया में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को सपोर्ट करने वाला कोई एकीकृत राज- नीतिक संगठन भी होना चाहिए। लेकिन वैसा कोई संगठन बन नहीं पा रहा। क्षेत्रीय स्तर पर यूरोपीय यूनियन बनी, वह यही सोचकर बनायी गयी कि पूँजीवाद को अच्छी तरह फलीभूत करने के लिए एक राष्ट्रेतर और राष्ट्रोपरि राजनीतिक व्यवस्था बने, जो यूरोपीय राष्ट्रों के बीच की आपसी टकराहटों को सँभाल सके...


संज्ञा उपाध्याय: लेकिन यूरोपीय यूनियन में उन राष्ट्रों के बीच की टकराहटें कहाँ समाप्त हुईं? जैसे ग्रीस या यूनान को देखें, या स्पेन को देखें...


लालबहादुर वर्मा: हाँ, वहाँ ये दिक्कतें  आ रही हैं। इसीलिए आर्थिक या पूँजी का भूमंडलीकरण पूरी तरह चरितार्थ नहीं हो पा रहा। भले ही कह दिया गया हो कि सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध समाप्त हो गया, लेकिन जो शीत युद्ध अमरीका और यूरोपीय यूनियन के बीच है, या उन दोनों का एशियाई देशों के साथ है, या चीन का पूँजीवादीकरण होने के बाद चीन और अमरीका के बीच चल रहा है, वह साबित कर रहा है कि पूँजी का भूमंडलीकरण सहज रूप से नहीं हो पा रहा है। इसीलिए भूमंडलीकरण के बावजूद पूँजी का संकट बना हुआ है और सारी दुनिया में एक प्रकार का ‘स्टैगनेशन’ (गतिरोध) आया हुआ है। उत्पादन एक प्रकार से थमा हुआ है। उसके कारण बाजार में तरह-तरह के संकट आते रहते हैं। अलग-अलग देश अपने-अपने फायदे की बात सोचते हैं। उन्होंने विश्व व्यापार संगठन तो बना लिया, लेकिन वह भी उन संकटों का समाधान नहीं कर पा रहा है और भूमंडलीकरण के बावजूद पूँजीवाद का संकट बढ़ता ही जा रहा है। 



संज्ञा उपाध्याय: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि पूँजीवाद अपने जिस संकट का समाधान राजनीतिक स्तर पर नहीं कर पा रहा, सांस्कृतिक स्तर पर करने की कोशिश कर रहा है? 


लालबहादुर वर्मा: बिलकुल यही बात है। पूँजी के भूमंडलीकरण ने भूमंडलीकरण के नैसर्गिक विकास को बाधित कर दिया है। नैसर्गिक या वास्तविक भूमंडलीकरण होता, तो उसका स्वरूप सांस्कृतिक क्षेत्रों में विकसित होता। सांस्कृतिक क्षेत्रों का मतलब है मानवीय मूल्यों के क्षेत्र, स्वतंत्रता और स्वायत्तता के क्षेत्र, सर्जनात्मकता और एक श्रेष्ठतर जीवन जीने की आकांक्षा के क्षेत्र, चीजों के मर्म को समझकर उन्हें बेहतर बनाने के मानवीय प्रयासों के क्षेत्र। इन क्षेत्रों में विकसित भूमंडलीकरण हुआ होता, तो दुनिया कितनी सुखी और सुंदर होती! लेकिन पूँजी के भूमंडलीकरण ने इस विकास को रोककर सारी दुनिया को एक-सा बनाने वाला बुलडोजर-सा चला रखा है--कि सारी दुनिया में एक ही भाषा (अंग्रेजी) हो, एक ही खान-पान हो, एक ही रहन-सहन हो। इससे मनुष्य की वह सृजनशीलता बाधित हो रही है, जिससे संस्कृति के क्षेत्र में उसका इतना विकास हुआ था। इससे मनुष्य या तो यंत्र बन रहा है या बर्बर हो रहा है। वह इतना ‘एलिएनेटेड’, इतना अजनबी, इतना अकेला होता जा रहा है कि अपने अलावा कुछ सोच ही नहीं पा रहा है। इसका असर साहित्य और कलाओं पर दिख रहा है। हिंदी में आज ‘कथन’ जैसी कितनी पत्रिकाएँ हैं, जिनमें सृजनशीलता को ले कर इतनी चिंताएँ व्यक्त की जा रही हों? ये सब भूमंडलीकरण के विकृत होने के प्रमाण हैं। अगर सही रूप से सांस्कृतिक भूमंडलीकरण होता, तो एक मानव संस्कृति और तरह-तरह की क्षेत्रीय संस्कृतियाँ होतीं। उनके बीच, जैसा मैं कहता रहता हूँ, एक प्रकार का ‘कल्चरल फेडरलिज्म’ (सांस्कृतिक संघवाद) पैदा होता। एक ऐसी संघीयता पैदा होती, जिसमें छोटी इकाइयों और बड़ी इकाइयों में, छोटे मूल्यों और बड़े मूल्यों में, व्यक्तिगत हितों और सामूहिक हितों में एक संतुलन होता। लेकिन वर्तमान भूमंडली- करण में अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति और जन-जीवन के सभी क्षेत्रों में भयानक असंतुलन पैदा हो गया है, जिससे पूँजीवाद को भी लाभ नहीं हो रहा है। उसके संकट कम नहीं हो रहे, बल्कि बढ़ रहे हैं और उसके साथ-साथ दुनिया तरह-तरह के संकटों में फँसती चली जा रही है। 





संज्ञा उपाध्याय: क्या यह सच है कि इतिहास में भूमंडलीकरण के विभिन्न दौर रहे हैं, उसके विभिन्न रूप रहे हैं, देश और काल की भिन्नताओं के कारण उनमें भिन्नताएँ रही हैं? स्थानीय (भारत के) और भूमंडलीय (विश्व के) संदर्भ में भूमंडलीकरण के इन विभिन्न दौरों, रूपों और भिन्नताओं के बारे में आप क्या सोचते हैं?

लाल बहादुर वर्मा : देखिए, प्राचीन काल से ही, भारत में देखें या यूनान में देखें, विश्व की दो अवधारणाएँ रही हैं--एक हमारा अपना विश्व, जिसे हम जानते हैं, जिसमें हम रहते हैं; दूसरा संपूर्ण विश्व, जिसे हम पूरी तरह नहीं जानते, लेकिन यह जानते हैं कि हमारा अपना विश्व उस बृहत्तर विश्व का हिस्सा है। विश्व की इन्हीं दो अवधारणाओं से दो प्रकार का इतिहास-लेखन पैदा हुआ है, जिसे यूनान में ‘पॉलिटिकल हिस्टरी’ (राजनीतिक इतिहास) और ‘यूनिवर्सल हिस्टरी’ (सार्वत्रिक या विश्वजनीन इतिहास) कहा गया। हमारे यहाँ विश्व को भौतिक जगत और आधिभौतिक या आध्यात्मिक जगत--इन दो रूपों में देखा जाता था। भौतिक और आध्यात्मिक दो दृष्टिकोणों से दुनिया को देखा जाता था। भौतिक जगत उत्पादन, उपभोग, अर्थव्यवस्था और राजनीति जैसी ‘छोटी’ चीजों से संबंधित जगत माना जाता था और आध्यात्मिक जगत सभ्यता, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म आदि ‘बड़ी’ चीजों से संबंधित। एक में निजी हितों की या स्वार्थ की बात होती थी और दूसरे में सार्वजनिक या विश्वजनीन हितों की या परमार्थ की। एक का संबंध सभ्यता से है, दूसरे का संस्कृति से। सभ्यता निहित स्वार्थों के आधार पर चलती है, जबकि संस्कृति में उनसे ऊपर उठने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार मुझे लगता है कि भूमंडलीकरण की विविध अवधारणाएँ विभिन्न देशों में, विभिन्न कालों में और विभिन्न रूपों में विकसित होती रही है। इसका कारण रहा है उस समय की भौतिक स्थिति और साथ ही उस समय की दार्शनिक अपेक्षाएँ और आकांक्षाएँ। 


संज्ञा उपाध्याय: जिसे हम अब तक ‘विश्व इतिहास’ के रूप में जानते रहे हैं, क्या उसी का नाम ‘भूमंडलीय इतिहास’ है? या दोनों अलग-अलग चीजें हैं? कृपया उदाहरण देते हुए अपनी बात कहें। 


लाल बहादुर वर्मा: हालाँकि प्राचीन काल में यूनान में हेरोडोटस ने ‘यूनिवर्सल हिस्टरी’ की बात की थी, लेकिन वास्तव में यह अवधारणा इतिहास-लेखन में चरितार्थ नहीं होती थी। आधुनिक इतिहास की धारणा की शुरुआत प्रबोधन काल से और वोल्टेयर से मानी जाती है। लेकिन उन्नीसवीं सदी में जो इतिहास लिखा गया और पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया, वह एक प्रकार से विश्व के राजनीतिक यथार्थ को ही जानने का प्रयास था। लेकिन इतिहास का विषय वास्तव में मानव सभ्यता है और मानव सभ्यता का इतिहास ही विश्व इतिहास है, लेकिन जैसे हम भौतिकी में अलग-अलग पदार्थों का अध्ययन करते हैं, वैसे ही हम इतिहास में विशिष्ट का अध्ययन कर सकते हैं। मसलन, किसी क्षेत्र का, किसी परिघटना का, यहाँ तक कि हम किसी गाँव का या एक व्यक्ति का इतिहास भी लिख सकते हैं। लेकिन इतिहास की प्रकृति है मानव सभ्यता के अतीत को समझना। उसे समग्रता में ही समझा जा सकता है। यों अलग-अलग देशों का इतिहास लिखकर एक साथ एक पुस्तक में रख दिया जाये, तो वह भी एक प्रकार का विश्व इतिहास होगा, लेकिन वह ऐसा होगा, जैसे जंगल का इतिहास लिखने की जगह अलग-अलग पेड़ों का इतिहास लिख दिया जाये। यह सही है कि अलग-अलग पेड़ एक जंगल के हिस्से हैं, लेकिन जंगल उनका कुल योग नहीं है। अंशों का समुच्चय पूर्ण नहीं होता। पूर्ण में उसके अंश तो शामिल होते हैं, लेकिन और भी बहुत कुछ होता है, जैसे जंगल में केवल पेड़ नहीं होते, और भी बहुत कुछ होता है। वैसे संपूर्ण विश्व का इतिहास लिखने के भी अनेक सफल-असफल प्रयास हुए हैं। मसलन, एच.जी. वेल्स ने एक जमाने में विश्व का इतिहास लिखा, जिससे प्रेरणा लेकर जवाहरलाल नेहरू ने ‘ग्ंिलप्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्टरी’ लिखी या टॉयनबी ने ‘स्टडी ऑफ हिस्टरी’ लिखी। आज भी ऐसी बहुत-सी कोशिशें हो रही हैं। जैसे क्रिस हर्मन ने विश्व का जन-इतिहास लिखा है। इस प्रकार विश्व इतिहास का मतलब है संपूर्ण विश्व को या संपूर्ण मानव समाज को एक इकाई मानकर समग्रता में उसका इतिहास लिखना। 



संज्ञा उपाध्याय: लेकिन आजकल जिसे भूमंडलीय इतिहास कहा जा रहा है, वह क्या है? क्या वह विश्व इतिहास का ही दूसरा अथवा नया रूप है या वह कुछ और ही चीज है? 


लालबहादुर वर्मा: भूमंडलीय इतिहास की शब्दावली वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में सामने आयी है। इस दौर में कई नये शब्द चलन में आये हैं, जैसे ‘ग्लोबल’, ‘लोकल’ और दोनों को मिलाकर बना एक नया शब्द ‘ग्लोकल’। कारण यह है कि जब हम ‘ग्लोबल’ कहते हैं, तो ‘लोकल’ हाशिये पर चला जाता है और जब ‘लोकल’ की बात करते हैं, तो ‘ग्लोबल’ हाशिये पर चला जाता है। इसलिए दोनों को मिलाकर एक नया शब्द ‘ग्लोकल’ गढ़ा गया है, जिसमें स्थानीय और भूमंडलीय दोनों आयाम आ जाते हैं। जैसे हम अगर किसी गाँव का इतिहास भूमंडलीय परिप्रेक्ष्य में लिखें, तो वह स्थानीय होते हुए भी एक प्रकार का भूमंडलीय इतिहास ही होगा। एक गाँव का इतिहास लिखते समय अगर हम यह ध्यान रखें कि हम इतिहास मानव सभ्यता का ही लिख रहे हैं, तो हम यह देखेंगे कि मानव सभ्यता के जो उतार-चढ़ाव हैं, उसकी जो सफलताएँ-असफलताएँ हैं, लालसाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ हैं, वे सब इस एक स्थान में कैसे चरितार्थ हुईं। या पूँजीवाद का इतिहास लिखते समय अगर हम यह देखें कि पूँजीवाद भारत में कैसे आया, भारत के किसी राज्य में कैसे आया, उस राज्य के किसी गाँव में कैसे आया, तो वह एक देश या एक राज्य या एक गाँव का इतिहास न होकर पूँजीवाद का इतिहास ही होगा।



संज्ञा उपाध्याय: इन नये परिवर्तनों से इतिहास-लेखन में क्या समस्याएँ आ रही हैं?
 
लालबहादुर वर्मा: उसमें कई नयी समस्याएँ पैदा हो गयी हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई राष्ट्रीय इतिहास लिखा जा रहा है, तो हमें देखना होगा कि वहाँ राष्ट्र से जो राष्ट्रवाद पैदा हुआ है, उसका स्वरूप क्या है, उसकी दिशा क्या है और वह उप- निवेशवाद की ओर जा रहा है या फासीवाद की ओर जा रहा है या स्वाधीनता आंदोलन के जरिये स्वतंत्रता, समता और समाजवाद की दिशा में जा रहा है। ये परिघटनाएँ राष्ट्रीय होते हुए भी अंतरराष्ट्रीय, वैश्विक या भूमंडलीय परिघटनाएँ हैं। इसलिए स्थानीय इतिहास लिखते समय भी हम एक प्रकार का भूमंडलीय इतिहास लिख रहे होंगे। लेकिन स्थानीय स्तर पर भी इतिहास-लेखन में कई नयी समस्याएँ आती हैं। भारत में देखें, तो जैसे-जैसे राज्य बनते हैं, वैसे-वैसे उनका इतिहास लिखा जाने लगता है। अभी मुझे उत्तराखंड में बुलाया गया था, तो वहाँ पता चला कि उत्तराखंड का इतिहास लिखा जा रहा है। अब समस्या यह है कि पहले तो उत्तराखंड कोई इकाई थी ही नहीं, यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश में शामिल था। लेकिन अब उत्तराखंड का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसमें शामिल कुमाऊँ और गढ़वाल के भी अलग-अलग इतिहास लिखे जायेंगे। इस प्रकार देखें, तो दुनिया में जो संक्रमण हो रहे हैं, उनके कारण इतिहास-लेखन में भी बहुत-से संक्रमण पैदा हो रहे हैं।


संज्ञा उपाध्याय: ये नये संक्रमण भविष्य के प्रति क्या भाव पैदा करते हैं? आशा का, निराशा का या सिनिसिज्म का? 

 
लाल बहादुर वर्मा: बात यह है कि दुनिया में अभी तक जो भी चला आ रहा था, उस सब पर प्रश्न उठ गये हैं। दुनिया की जितनी भी धारणाएँ, जितनी भी विचारधाराएँ, जितनी भी स्थापनाएँ, जितनी भी समस्याएँ थीं, उन सब पर प्रश्न खडे़ हो गये हैं। इससे अब एक तरफ तो आदमी सिनिकल हो जा रहा है। सोचता है कि अब कुछ भी हमको सस्टेन नहीं कर रहा है, कि जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गयी है, टिकने का कोई आधार ही नहीं है, तो हम क्या करें! लेकिन दूसरी तरफ इन संक्रमणों से कुछ नयी बातें पैदा हो रही हैं, जो मेरे अंदर बहुत आशावाद पैदा करती हैं। इतिहास-लेखन को लेकर मैं बहुत उत्साहित हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि अब तक जो इतिहास लिखा गया है, जैसे भी लिखा गया है, वह सब हाशिये पर जाने वाला है और इतिहास की एक नयी धारणा पैदा हो रही है, जिससे इतिहास की वास्तविक प्रकृति स्पष्ट होगी और हमें पता चलेगा कि इतिहास की अर्थवत्ता क्या है, उसकी जरूरत क्यों है, उसकी समाज में क्या उपयोगिता है, ज्ञान-मीमांसा में क्या उपयोगिता है।


संज्ञा उपाध्याय: इसके चलते भूमंडलीयता की जो नयी अवधारणा आ रही है, उसे भारत के संदर्भ में हम कैसे समझेंगे? 

 
लाल बहादुर वर्मा: देखिए, भारत में इतिहास-लेखन की जो धारणाएँ बनी थीं, वे यूरोप और यूनान से काफी भिन्न थीं। इसीलिए बहुत-से लोग यह मानते रहे, आज भी मानते हैं, कि भारत में तो इतिहास-लेखन की परंपरा थी ही नहीं। यहाँ तक कहा जाता है कि बारहवीं शताब्दी में जब कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ लिखी, तभी वास्तव में इतिहास-लेखन शुरू हुआ। लेकिन दूसरी बात यह भी कही जाती है कि ‘इतिहास’ शब्द तो बहुत पुराना है, प्राचीन काल के साहित्य में मिलता है। इसका मतलब यह है कि इतिहास जैसी कोई चीज जरूर रही होगी, जिसे यह नाम दिया गया। इतना तो तय है कि इतिहास किसी न किसी रूप में जरूर रहा होगा। लेकिन वह आज जो इतिहास की धारणा है, उससे भिन्न था। उसमें मिथक और इतिहास दोनों गड्डमड्ड थे। आज की तरह दोनों का क्षेत्र अलग-अलग नहीं था। इसीलिए बाद में कोसंबी को तो लिखना ही पड़ा कि मिथकों में भी यथार्थ होता है। मिथक और इतिहास की यह गड्डमड्ड आज भी होती है। किताबों में एक साथ राम-कृष्ण और अकबर-गांधी की बातें होती हैं, जैसे सब के सब इतिहास में ही हों। मध्यकाल में ज्यादातर चारण इतिहास या दरबारी इतिहास ही लिखा गया, जिसमें अतिशयोक्तियों के रूप में राजाओं या शहंशाहों के बारे में यथार्थ नहीं, मिथ्या या मिथकीय बातें लिखी गयी हैं। अंग्रेजों का राज आया, तो औपनिवेशिक इतिहास लिखा जाने लगा और फिर उसके जवाब में राष्ट्रीय इतिहास लिखा जाने लगा। आजादी के बाद ऐतिहासिक भौतिकवादी या मार्क्सवादी इतिहास-लेखन की धारा भी आयी। इस प्रकार प्राचीन काल में ही नहीं, आधुनिक काल में भी इतिहास के नाम पर मिथक और यथार्थ की काफी गड्डमड्ड हुई है। और अब जो भूमंडलीय इतिहास लिखा जा रहा है, या उसके लिखे जाने की जो बात हो रही है, वह भी स्पष्ट नहीं कि कैसा होगा। 



संज्ञा उपाध्याय: भारत में इतिहास- लेखन की क्या स्थिति है? 

 
लालबहादुर वर्मा: अच्छी नहीं है। भूमंडलीकरण के संदर्भ में तो बिलकुल अच्छी नहीं है। इतिहास के भूमंडलीकरण के बारे में हो या भूमंडलीकरण के इतिहासी- करण के बारे में, यहाँ भारी कनफ्यूजन है। यह कन्फ्यूजन इतिहास-लेखन की ऐति- हासिक भौतिकवादी धारा के द्वारा दूर किया जा सकता था, लेकिन उसकी भी हालत अच्छी नहीं है। इतिहास-लेखन की यह धारा भारत में आजादी के बाद स्थापित होनी शुरू हुई थी, लेकिन ठीक से स्थापित नहीं हो पायी। वैश्विक धरातल पर इतिहास संबंधी जो बहसें चलती रहीं, उन्हें यहाँ कभी भी पूरी तरह से ग्रहण नहीं किया गया। भारत के विश्वविद्यालयों में इतिहास पढ़ाया जाता रहा, लेकिन यहाँ के अकादमिक जगत में इतिहास दर्शन और इतिहास-लेखन पर कभी बात नहीं होती थी। अभी कुछ ही दिनों पहले हमारे अपने विश्वविद्यालय (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) में इतिहास दर्शन और इतिहास-लेखन का एक परचा शुरू किया गया। लेकिन जब हम लोग पढ़ रहे थे, हम जानते भी नहीं थे कि इतिहास दर्शन क्या है। भारत में इतिहास बहुत ही सतही तौर पर लिखा गया और बहुत ही सतही तौर पर पढ़ाया गया। इसलिए जिसे इतिहास चेतना या इतिहास बोध कहते हैं, वह कभी भी भारतीय मनीषा का अंग बना ही नहीं। यही कारण है कि इतिहास और भूमंडलीकरण से संबंधित जो नये सवाल आज की दुनिया में उठ रहे हैं, उन पर यहाँ कोई विशेष चर्चा नहीं है। अन्य क्षेत्रों की तरह यहाँ इतिहास-लेखन के क्षेत्र में भी पिछलग्गू बनने की प्रवृत्ति रही है। उसके चलते इतिहास की मूल समस्याएँ, इतिहास की विभिन्न धारणाएँ चिह्नित ही नहीं हो पायीं। इतिहास की अर्थवत्ता पर, उसकी अनिवार्यता पर ढंग से विचार ही नहीं हुआ। इसीलिए अब जो नये-नये विवाद या विमर्श इतिहास में या इतिहास को लेकर पैदा हो रहे हैं, उनकी जानकारी ही नहीं है लोगों को। और हिंदी में तो और भी मुश्किल है, क्योंकि हिंदी के अधिकांश पाठक इन सारी बहसों से परिचित ही नहीं हैं।


संज्ञा उपाध्याय: इसीलिए हमने ‘कथन’ में इस बार यह विषय उठाया है। 

 
लाल बहादुर वर्मा : इतिहास मेरा क्षेत्र है और मैं देख रहा हूँ कि इतिहास के अध्ययन-अध्यापन में, प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक, एक भारी संकट आने वाला है; क्योंकि पढ़ने-पढ़ाने के लिए जो इतिहास-लेखन हो रहा है, बहुत ही पुराने ढंग का है। उसमें पुरानी ही लकीर पीटी जा रही है। हमारे देश में इतिहास की जो दुर्गति है, उसका एक कारण यह भी है कि इतिहास पढ़ना-पढ़ाना जरूरी नहीं माना जाता, जबकि इतिहास ही मानव विवेक का आधार है। इतिहास से ही वह सामुदायिक विवेक पैदा होता है, जो दुनिया को रास्ता दिखाता है। इसलिए बेहद जरूरी है कि हम उसमें रुचि लें, उसमें हो रहे नवीनतम परिवर्तनों को समझने की कोशिश करें। इस दृष्टि से देखें, तो ‘कथन’ में इस बार जो विषय उठाया गया है, बहुत महत्त्वपूर्ण है। 

संज्ञा उपाध्याय: तो अब आप हिंदी के सामान्य पाठकों को और ‘कथन’ के साहित्यप्रेमी पाठकों को ध्यान में रखते हुए इतिहास के भूमंडलीकरण और भूमंडलीकरण के इतिहासीकरण की प्रक्रियाओं पर प्रकाश डालें।

 
लालबहादुर वर्मा: देखिए, भूमंडलीय इतिहास पर अंग्रेजी में आजकल बहुत लिखा जा रहा है। ‘ग्लोबल हिस्टरी’ नाम से एक नहीं, अनेक पुस्तकें मिल जायेंगी। अमरीका से हाल ही में ‘जर्नल ऑफ ग्लोबल हिस्टरी’ नामक एक शोध पत्रिका भी निकलनी शुरू हुई है। जहाँ तक ‘कथन’ के साहित्यप्रेमी पाठकों का प्रश्न है, मैं तो शुरू से यह मानता हूँ कि साहित्य और इतिहास का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। साहित्य के लिए इतिहास और इतिहास के लिए साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इस प्रसंग में अक्सर ‘फैक्ट’ (तथ्य) और ‘फिक्शन’ (कल्पना) का सवाल उठाया जाता है और इतिहास को तथ्यात्मक और साहित्य को काल्पनिक मानते हुए दोनों को एक-दूसरे के लिए गैर-जरूरी माना जाता है। मैंने एक जमाने में एक शोध कराने की कोशिश की थी कि साहित्य और इतिहास का अंतरंग संबंध है। बहुत प्रतिरोध हुआ इसका। मुझसे कहा गया कि साहित्य का क्या लेना-देना है इतिहास से? तब मैंने कहा कि जब हम प्राचीन काल का इतिहास देखते हैं, तो वह वेद पर आधारित है। उस जमाने की आर्कियोलॉजी (पुरातत्त्व) इतनी विकसित नहीं थी। इसलिए वेद के जमाने में साहित्य को ही इतिहास मान लेते हैं और आधुनिक काल के आने पर हम आधुनिक काल का इतिहास लिखते हैं। आधुनिक काल में भी हम देखें, तो क्या भारतीय मनीषा को समझे बिना--मसलन प्रेमचंद और सुब्रह्मण्य भारती को समझे बिना--भारत का आधुनिक इतिहास लिखा जा सकता है? केवल राजनीतिक आंदोलनों के आधार पर तो भारत के आधुनिक इतिहास को नहीं समझा जा सकता। दूसरी तरफ इतिहास बोध के बिना अच्छा साहित्य भी नहीं लिखा जा सकता। 


संज्ञा उपाध्याय: जी, यथार्थवादी साहित्य लिखने के लिए यथार्थ को जानना और यथार्थ को जानने के लिए इतिहास को जानना, उसमें हो रही नयी चीजों को जानना निहायत जरूरी है...

 
लालबहादुर वर्मा: तो यह इतिहास के भूमंडलीकरण और भूमंडलीकरण के इतिहासीकरण का जो प्रश्न उठा है, उसका कारण मुझे यह लगता है कि एक तरफ तो इतिहास के क्षेत्र को बढ़ाया जाये और दूसरी तरफ भूमंडलीकरण को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये। मतलब यह कि इतिहास को केवल किसी भौगोलिक क्षेत्र तक और उसमें घटी राजनीतिक परिघटनाओं तक सीमित न रखा जाये, बल्कि संपूर्ण विश्व को और उसमें घटित होने वाली सभी चीजों को समग्रता में देखा जाये। मनुष्य और समाज को समग्रता में देखा जायेगा, तो साहित्य, सिनेमा, संगीत आदि सारी चीजों से इतिहास के अंतरसंबंध विकसित होंगे। और इस प्रकार जो विकास होगा, वह भारतीय साहित्य, भारतीय सिनेमा, भारतीय संगीत का विकास होने के साथ-साथ इन चीजों का वैश्विक या भूमंडलीय विकास भी होगा। इसी तरह इतिहास किसी एक क्षेत्र, देश या राष्ट्र का होते हुए भी संपूर्ण विश्व का इतिहास होगा, भूमंडलीय इतिहास होगा। 


संज्ञा उपाध्याय: लेकिन सबाल्टर्न इतिहासकारों के बारे में आप क्या कहेंगे, जिनका पूरा जोर भूमंडलीयता के विरुद्ध स्थानीयता पर होता है? 
 
लालबहादुर वर्मा: मैं सबाल्टर्न इतिहासकारों के योगदान का बहुत सम्मान करता हूँ, क्योंकि उन्होंने इतिहास की अंतर्वस्तु का विस्तार किया और इतिहास को देखने की एक नयी दृष्टि दी। वह यह कि इतिहास को ‘‘ऊपर से’’ अर्थात् शासकों के स्तर से नहीं, बल्कि ‘‘नीचे से’’ अर्थात् साधारण लोगों के स्तर से देखा जाये। सबाल्टर्न इतिहासकारों ने यूरोप-केंद्रित और उपनिवेश- वादी दृष्टि से लिखे जाने वाले इतिहास को ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक भौतिकवादी या मार्क्सवादी दृष्टि से लिखे जाने वाले इतिहास को भी चुनौती दी। उदाहरण के लिए, मार्क्सवादी इतिहास-लेखन में जब यह कहा जाता है कि समस्त इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है, तो सबाल्टर्न इतिहासकार कहता है कि वर्ग-संघर्ष केवल मिल-मालिक और मजदूर के बीच या सड़कों पर ही नहीं होता है। वह घरों में स्त्री-पुरुष के बीच, यानी पितृसत्ता के रूप में भी होता है। समाज में जातियों के बीच, यानी ब्राह्मणवाद के रूप में भी होता है। यह संघर्ष बड़े सूक्ष्म स्तरों पर होता है और इसका भी इतिहास लिखा जाना चाहिए। फिर, सबाल्टर्न इतिहासकारों ने इतिहास की स्रोत सामग्री के बारे में बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि वह लिखित दस्तावेजों में नहीं होती, मौखिक स्रोतों से प्राप्त सामग्री के आधार पर भी इतिहास लिखा जाना चाहिए।


संज्ञा उपाध्याय: आप स्वयं मार्क्सवादी हैं और सबाल्टर्न वालों की प्रशंसा कर रहे हैं, जो मार्क्सवाद के विरोधी हैं?
लालबहादुर वर्मा: किसी को ठेस न लगे, इसलिए मैं यह बात बहुत बाअदब कह रहा हूँ कि मार्क्सवादी इतिहास-लेखन में अपना विकास करने की और विरोधियों के प्रश्नों के उत्तर देने की क्षमता होनी चाहिए, जिसकी भारत के मार्क्सवादी लेखन में मुझे बहुत कमी नजर आती है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जन-इतिहास पर एक शोध कराना चाहा, और मेरे शोध छात्रों ने कुछ बड़े मार्क्सवादी इतिहासकारों से मदद चाही, तो उन्होंने नाक-भौं सिकोड़कर कहा, जन-इतिहास क्या होता है! यानी उनको इस बात पर भी ऐतराज था कि जन-इतिहास जैसी कोई बात की जाये। इसी तरह जब मैंने शोध में मौखिक स्रोत सामग्री को शामिल करने की बात की, तो मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा गया कि भूसे के ढेर में सुई कहाँ से मिलेगी? मैंने जवाब दिया कि ‘‘जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार’’! अगर सुई से ही काम निकलना है, तो चाहे वह भूसे के ढेर में हो या समुद्र में बह रही हो, उसको ढूँढ़ना तो पड़ेगा ही। इस प्रकार इतिहास में मौखिक स्रोतों को शामिल करने की लड़ाई मैं पिछले पच्चीस साल से लड़ रहा हूँ। लेकिन मौखिक स्रोतों का आज भी बहुत-से इतिहासकारों ने, जिनमें मार्क्सवादी इतिहासकार भी शामिल हैं, महत्त्व नहीं समझा, जबकि बहुत-सी ऐसी सच्चाइयाँ हैं, जो किसी भी लिखित दस्तावेज के रूप में सामने नहीं आतीं। उदाहरण के लिए, मौखिक स्रोतों के बिना अफ्रीका का इतिहास कैसे लिखा जायेगा? भारत के किसी गाँव का इतिहास कैसे लिखा जायेगा? या नागालैंड का इतिहास कैसे लिखा जायेगा, जहाँ पर लिखित दस्तावेज ही नहीं हैं? मैं कहना यह चाहता हूँ कि सबाल्टर्न इतिहासकारों ने निश्चित रूप से उन स्रोतों का, उन क्षेत्रों का, उन व्यक्तियों का महत्त्व चित्रित किया, जो उजागर नहीं हो पा रहा था। और यह उनका बहुत बड़ा योगदान है।


संज्ञा उपाध्याय: लेकिन सबाल्टर्न इतिहास की सीमाएँ भी तो हैं? 

 
लालबहादुर वर्मा: हाँ, उसकी सीमाएँ हैं। उसकी सबसे बड़ी सीमा तो यह थी कि शुरू में सबाल्टर्न इतिहास केवल अंग्रेजी में लिखा गया, जबकि भारत की भाषाएँ तो अंग्रेजी के मुकाबले में सबाल्टर्न भाषाएँ हैं। सबाल्टर्न इतिहासकार भारत की भाषाओं और बोलियों का इस्तेमाल तो करते थे, लेकिन जो इतिहास लिखते थे, वह अंग्रेजी में लिखते थे। वह इतिहास उन सबाल्टर्न लोगों तक कैसे पहुँचे, इसकी तरफ उन्होंने ध्यान भी नहीं दिया। इसीलिए उन पर यह आरोप लगा कि यह इतिहास ‘वेस्टर्न कंजंप्शन’ (पश्चिमी देशों के उपभोग) के लिए लिखा जा रहा है। मैं यह मानता हूँ कि इतिहास-लेखन का उद्देश्य होना चाहिए लोगों में इतिहास का बोध पैदा करना। आप जानती हैं कि मैं ‘इतिहास बोध’ नामक पत्रिका निकालता हूँ। उसका सूत्र ही यह है कि इतिहास बोध इतिहास-निर्माण के लिए। यानी इतिहास की भूमिका यह है कि वह हमें अतीत की समझ देता है और वर्तमान से संघर्ष के लिए तैयार करता है। इस प्रकार देखें, तो इतिहास-निर्माण की जो शक्ति ऐतिहासिक भौतिकवाद देता है, उसकी चिंता ही सबाल्टर्न इतिहासकारों ने नहीं की। उन्होंने एक जरूरी चीज चिह्नित की कि इतिहास ‘‘नीचे से’’ लिखा जाये। यह उन्होंने बहुत ही जरूरी काम किया। लेकिन इतिहास की मूल प्रकृति पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। 


संज्ञा उपाध्याय: मेरा प्रश्न था कि इतिहास के भूमंडलीकरण और भूमंडलीकरण के इतिहासीकरण की प्रक्रिया को हम कैसे समझें।

लालबहादुर वर्मा: मुझे ऐसा लगता है कि इतिहास के भूमंडलीकरण का मतलब है इतिहास के क्षेत्र को बढ़ाना। अर्थात् इतिहास में केवल किसी एक भौगोलिक क्षेत्र की नहीं, बल्कि सारे विश्व की सारी चीजों को समेटा जाये। इतिहास का विषय केवल राजनीति न रह जाये, बल्कि मनुष्य और समाज को समग्रता में लिया जाये। और दूसरी तरफ भूमंडलीकरण का इतिहासी- करण अपने में एक बहुत जरूरी चीज इसलिए है कि भूमंडलीकरण को जब तक हम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखेंगे, तब तक हम उसके वर्तमान रूप को ही देखकर उसका मूल्यांकन कर लेंगे। और उसमें अगर बुराइयाँ हैं, तो उसी से नतीजे निकाल लेंगे। आदमी की प्रकृति होती है सरलीकरण की, सूत्रीकरण की। मसलन, हमारी किसी अंग्रेज से मुलाकात हो और अंग्रेज हमारे साथ बदतमीजी से बात करे और हम कह दें कि अंग्रेज तो बहुत बदतमीज होते हैं। यदि हम भूमंडलीकरण को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखेंगे, तो उसके वर्तमान स्वरूप को देखकर हमारे अंदर एक क्षोभ पैदा होगा और फिर हम भूमंडलीय यथार्थ को अथवा भूमंडलीयता को नकारकर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय या स्थानीय होते जायेंगे। इसलिए जरूरी है कि भूमंडली- करण को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये और इतिहास को उसके भूमंडलीय परिप्रेक्ष्य में समझा जाये। लेकिन  यहीं पर मैं यह भी जोड़ दूँ कि ये बातें अभी काफी हद तक एक अकादमिक चर्चा के स्तर पर ही हैं। ये बातें अकादमिक पत्रिकाओं में आ रही हैं और विश्वविद्यालयों की संगोष्ठियों आदि में दिखायी पड़ती हैं। इनका वास्तव में इतिहास-लेखन या इतिहास के पठन-पाठन पर कोई खास असर पड़ता दिखायी नहीं दे रहा है। 


संज्ञा उपाध्याय: अब तक के ‘विश्व इतिहास’ प्रायः यूरोप-केंद्रित दृष्टि से लिखे गये हैं, जिसका संबंध साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से है। इन ‘विश्व इतिहासों’ की आलोचना में ‘ओरिएंटलिज्म’  (प्राच्यवाद) का प्रश्न प्रमुखता से उठाया गया है और इस संदर्भ में हेगेल, मार्क्स और मैक्स वेबर इत्यादि से लेकर आज तक के विचारकों की आलोचना की गयी है। आप इस प्रश्न और आलोचना को कैसे देखते हैं? 


लालबहादुर वर्मा: देखिए, ओरिएंट- लिज्म के सवाल पर ध्यान देने से पहले मैं समझता हूँ कि इतिहास में पूर्वग्रह की भूमिका पर थोड़ा विचार कर लिया जाये। जब पूर्व और पश्चिम की बात हुई थी और जब किपलिंग ने यह कहा था कि ‘‘ईस्ट इज ईस्ट, वैस्ट इज वैस्ट एंड ट्विन शैल नेवर मीट’’, यानी ये दो बिलकुल भिन्न दुनियाएँ हैं, जो कभी मिल नहीं सकती हैं; और जब मैकाले ने कहा था कि पूरब और हिंदुस्तान का जितना भी ज्ञान है, वह पश्चिम की एक लाइब्रेरी के एक शेल्फ के बराबर भी नहीं है; तब पूरब और हिंदुस्तान को उन्होंने जिस नीची निगाह से देखा था, उसके मूल में उपनिवेशवाद था। उपनिवेशवाद को ‘‘व्हाइट मैन्स बर्डन’’ की तरह से पेश किया गया था कि जो उपनिवेशवादी हैं, वे तो दुनिया को सभ्य बनाने निकले हैं। इस तरह के पूर्वग्रहों के उत्तर में एडवर्ड सईद ने ओरिएंटलिज्म की बात की और यह दिखाया कि इसमें जिस पूरब की बात है, वह एक ‘कंस्ट्रक्ट’ (निर्मिति) है और यह इसलिए गढ़ा गया है कि इससे साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद का औचित्य सिद्ध किया जा सके। अपनी गलत बातों को भी सही ठहराने की कोशिशें एक प्रकार से सभी जमानों में और सभी देशों में हुई हैं। यही प्रवृत्ति उपनिवेशवाद में भी रही और पश्चिम में तो खास तौर से रही। इसलिए जब तथाकथित विश्व इतिहास लिखा गया, तो यूरोप के दृष्टिकोण से लिखा गया। उसकी सबसे प्रमुख संचालक प्रवृत्ति थी यह दिखाना कि हम श्रेष्ठ हैं और यही श्रेष्ठता हम सारी दुनिया में लाना चाहते हैं। इसका सबसे निकृष्ट रूप फासीवाद में दिखता है, जिसमें कहा गया कि दुनिया की सबसे श्रेष्ठ कौम आर्य है और सारी दुनिया को आर्य बनाने के लिए फासीवाद जरूरी है। इस प्रकार पूरब के पिछड़ेपन को चिह्नित करने की कोशिश की गयी। इसकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी, जो हर जगह हुई भी। भारत में भी हुई। उदाहरण के लिए, के. पी. जायसवाल ने, जो पेशे से इतिहासकार नहीं थे, ‘इंडियन पॉलिटी’ नाम की एक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने ईंट का जवाब पत्थर से देने के अंदाज में कहा कि जब अंग्रेज लोग पेड़ों पर रह रहे होंगे, तब भारत में संवैधानिक गणतंत्र आ गया था। यानी भारत तो बहुत ही विकसित था। दयानंद सरस्वती ने तो यहाँ तक कह दिया कि हमारे वेदों में सब कुछ है। इस प्रकार एक तरफ उपनिवेशवादी इतिहास लिखा गया, तो दूसरी तरफ पूरब के देशों में पुनरुत्थानवादी इतिहास लिखा गया।


संज्ञा उपाध्याय: भूमंडलीय इतिहास की चर्चा में दो चीजें अत्यंत प्रमुखता से उभरी हैं--आधुनिकता और भूमंडलीयता। इनके बारे में आपका क्या विचार है? 

 
लालबहादुर वर्मा: यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि आधुनिकता आज निश्चित रूप से प्रश्नेय है और उत्तर-आधुनिकता ने उस पर बहुत-से सवाल उठाये हैं। आधुनिकता अपने में बहुत दिनों तक अस्पष्ट रही, फिर धीरे-धीरे उसे स्पष्ट किया गया, तो पता चला कि आधुनिकता एक दृष्टिकोण है, जिसका संबंध नयी प्रौद्योगिकी से है, प्रगति से है, तर्क-बुद्धि से है, धर्मनिरपेक्षता इत्यादि से है। अर्थात् जीवन और जगत के यथार्थ को समझने तथा उसे आधुनिक बनाने की एक विधि भी है आधुनिकता। उसने हमारी समझ को विकसित किया, दुनिया की बहुत-सी सच्चाइयों को उजागर किया और दुनिया को आगे बढ़ाया। लेकिन जब किसी चीज में ‘एक्सक्लूसिवनेस’ (एकांतिकता या अनन्यता) आ जाती है, तो उसकी सीमाएँ उजागर होने लगती हैं। आधुनिकता के बारे में धीरे-धीरे यह उजागर होने लगा कि वह सारे प्रश्नों को, जीवन और जगत की सारी जटिलताओं को समेट नहीं पा रही है। बाद में इसीलिए उत्तर- आधुनिकतावाद आया और उसने उन सवालों को उठाया, जो आधुनिकता के सरोकार नहीं थे। उत्तर-आधुनिकतावाद ने अपने द्वारा उठाये गये सवालों के जो जवाब दिये हैं, वे सारे जवाब हमें स्वीकार्य नहीं हो सकते हैं, लेकिन यह तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि उसने जरूरी सवाल उठाये हैं। हम उन सवालों के अपने नये जवाब ढूँढ़ सकते थे, लेकिन वे जवाब तो हमने ढूँढ़े नहीं और उत्तर-आधुनिकतावाद को खारिज कर दिया। उत्तर-आधुनिकतावाद ने आधुनिकता की सीमाएँ चिह्नित की हैं और साथ-साथ उसकी अपनी सीमाएँ भी उजागर हुई हैं, लेकिन जो प्रश्न उसने उठाये, उनके उत्तर उसने चाहे न दिये हों, या गलत दिये हों, पर उसके द्वारा उठाये गये प्रश्न गंभीर हैं, जरूरी हैं और हमें उनके उत्तर खोजने चाहिए। उन प्रश्नों का एक भौतिक आधार है और मार्क्स के जमाने से हम जानते हैं कि जो प्रश्न आता है, वह अपना उत्तर साथ लेकर आता है। हमारा काम होता है उसे ढूँढ़ना। 


संज्ञा उपाध्याय: कहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तर-आधुनिकतावाद द्वारा उठाये गये प्रश्नों के उत्तर खोजने की प्रक्रिया में ही भूमंडलीयता का विचार पैदा हुआ हो? 

 
लालबहादुर वर्मा: भूमंडलीयता पर बात करने से पहले यह कह देना जरूरी है कि भूमंडलीकरण के वर्तमान रूप के अंतर्गत भूमंडलीयता की बात निहित स्वार्थों की पूर्ति के उद्देश्य से भी की जाती है। उसकी बात कुछ लोगों के लाभ के लिए, कुछ देशों के लाभ के लिए, बल्कि उन देशों के शासक वर्ग के लाभ के लिए की जाती है। अतः भूमंडलीयता की बात करते समय उसके इस उपयोग या दुरुपयोग पर कड़ी नजर रखना जरूरी है। लेकिन जैसे मैंने नैसर्गिक भूमंडलीकरण की बात की, उसके संदर्भ में भूमंडलीयता को देखें, तो उससे हम निश्चित रूप से पूरे भूमंडलीय यथार्थ को देख सकते हैं। और भूमंडलीय ही क्यों, अब तो पूरे ब्रह्मांडीय यथार्थ को समझने की ओर हम आगे बढ़ रहे हैं। पूरे ग्लोब या पूरी पृथ्वी के सत्य को ही नहीं, अब तो हम मानवेतर या मानवोपरि भूमंडलीय सत्य को भी जानने की ओर बढ़ रहे हैं। कौन जाने इसी शताब्दी में हम भूमंडलीयता से आगे बढ़कर ब्रह्मांडीयता की भी बात करने लगें! 


संज्ञा उपाध्याय: मतलब यह कि आज के भूमंडलीय यथार्थ को आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सहारे समझना मुश्किल है। उसे समझने के लिए भूमंडलीयता की अवधारणा जरूरी है।

 
लालबहादुर वर्मा: हाँ, लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, शासक वर्ग और साम्राज्यवाद के द्वारा इस अवधारणा का दुरुपयोग भी किया जा सकता है, इस खतरे से सावधान रहना होगा। मैंने पिछले साल एक किताब लिखी थी ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहास बोध’। मेरा कहना है कि क्रांति होती है, तो वह निश्चित रूप से दुनिया को आगे बढ़ाती है। लेकिन जैसे ही क्रांति होती है, उसमें भी कुछ लोगों का निहित स्वार्थ पैदा हो जाता है और वे उस क्रांति को रोकने की कोशिश करते हैं। इससे फिर एक नयी क्रांति की जरूरत पैदा होती है। इस प्रकार क्रांति एक सतत प्रक्रिया है। विचारों और अवधारणाओं में परिवर्तन भी एक सतत प्रक्रिया है। आधुनिकता आयी, तो वह एक प्रगतिशील चीज थी। लेकिन जब उसे एकांतिक बना दिया गया कि यही आधुनिकता है और बाकी सब आधुनिकता नहीं है--जैसे पश्चिम ही आधुनिक है और बाकी दुनिया आधुनिक नहीं है--तो उसकी प्रगतिशीलता नष्ट हो गयी। इसी तरह उत्तर-आधुनिकता ने जब आधुनिकता की अपर्याप्तता को चिह्नित किया, तो यह एक प्रगतिशील बात थी। लेकिन अब उसमें भी निहित स्वार्थ पैदा हो गये हैं। उससे भी कुछ खास लोग लाभ उठा रहे हैं और बाकी लोगों को उसके लाभों से वंचित कर रहे हैं। इस प्रकार देखें, तो भूमंडलीयता एक आगे बढ़ा हुआ कदम है। लेकिन इसके भी अपने खतरे हैं। इसलिए सावधान रहना होगा कि यह भी कहीं एकांतिक न बन जाये, इसमें भी कुछ लोगों के निहित स्वार्थ पैदा न हो जायें। 

हाँ, एक बात मैं और कहूँगा कि आज हम एक संक्रमण काल में हैं, जिसमें सभी विचारों पर, सभी विचारधाराओं पर, सभी मूल्यों पर और सभी मर्यादाओं पर तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे हैं। मेरी नजर में यह बहुत सकारात्मक स्थिति है। इसमें से बहुत-सी नयी चीजें पैदा हो सकती हैं, नये प्रयोग शुरू हो सकते हैं और बहुत मुमकिन है कि इक्कीसवीं शताब्दी में मानव सभ्यता एक गुणात्मक छलाँग लगा जाये। बहुत-से लोगों का कहना है कि 2050 में शायद धरती का अस्तित्व ही न रह जाये। लेकिन मैं ‘क्रॉनिक ऑप्टिमिस्ट’ (असाध्य आशावादी) हूँ। मुझे लगता है कि मनुष्य में अभी विवेक बाकी है और दुनिया को नष्ट होने से बचाकर वह उसे एक ऐसी दुनिया बना सकता है, जिसमें मानव और प्रकृति का तादात्म्य हो, मनुष्यों के बीच न्यायसंगत संबंध हों, जीवन में एक नयी उदात्तता हो और मनुष्य में एक नया सौंदर्यबोध हो, जिसके आधार पर वह एक नया संसार रच सके। मुझे यह शेर बार-बार याद आता है:

हिम्मत-ए-हजरत-ए-इंसाँ की हद तो देख
चाँद-तारों पे इरादों की कमाँ डाली है।

 

संज्ञा उपाध्याय






सम्पर्क -

ई-मेल : upsangya@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन। इतिहास का भूमण्डलीकरण, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता की सीमाओं को चिन्हित करते हुए भूमण्डलीकरण के इतिहासिक दृष्टिकोण को समझने, जंगल एवं पेड़ के उदाहरण मष्तिष्क पटल पर जम गये हैं।

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