सीमा संगसार की कविताएँ



सीमा संगसार

हिन्दी कविता अपने विषय-वैविध्य और भाषा-शिल्प के स्तर पर आज एक नए मुकाम पर खड़ी है। यह ऐसा मुकाम है जो हमें सुखद भविष्य के लिए आश्वस्त करता है। आज की हिन्दी कविता में स्त्रियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की भरपूर उपस्थिति देखी जा सकती है। यह इस मायने में भी अहम् है कि इन वर्गों की दिक्कतें, परम्पराएँ, अनुभूतियाँ, द्वंद्व इनके अनुभवों में हमें स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ते हैं। सीमा संगसार ऐसी ही कवयित्री हैं जिनकी कविताओं में उस आधी आबादी के अनुभवों, दिक्कतों, पीड़ाओं, खूबियों को सहज ही देखा और महसूसा जा सकता है। सीमा की एक खूबसूरत कविता है ‘दो औरतें’। इस कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए एक समूचा दृश्य साकार हो जाता है - “जब मिलती हैं दो औरतें/ दो सूखी नदियों में/ भर आता है पानी/ जो काजल के फैल जाने से/ छोड़ देती है निशानी/ अपने दुख भरे कालिमा की...”। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं सीमा संगसार की कुछ नयी कविताएँ। सीमा की कविताओं पर हमें युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की एक टिप्पणी भी मिली है। तो आइए आज पढ़ते हैं उमाशंकर की इस टिप्पणी के साथ सीमा संगसार की कविताएँ।     
      


सीमा संगसार की कविताएं वगैर भाषाई खिलवाड़ के सादगीपूर्ण समर्थ शब्दों द्वारा की गयी सपाट अभिव्यक्तियाँ हैं। भाषा नवीनता से अधिक सार्थकता का बोध दे रही है और कुछ कविताओं में तो वह  अपनी जमीन बेगूसराय के प्रचलित शब्दों को भी बडी कारगरी से गुँथ देती हैं। यही कारण है कविता किसी भी विषय पर हो उनकी अपनी जमीन की रंगत बडे गहरे से उभर कर सामने आती है। यह रंगत मुहावरा नही हैं लोकधर्मी कविता का बेहद जरूरी तकाजा है। इसी रंगत में सीमा अपनी कविताओं में आधी आबादी के लिए उठाए गये सवालों और मानवीय इतिहास और सभ्यता द्वारा तय की गयी वर्गीय संस्कृति के जरूरी प्रसंगों को भी  छेडती हैं। यही नहीं स्त्री विमर्श के चलताऊ मुहावरों को धता बताते हुए वैचारिक रंगत से युक्त संवेदनों के माध्यम से  सीमा सामाजिक अन्तर्द्वन्दों द्वारा उत्पन्न स्त्री के मन और विजन को बडे सलीके से व्यक्त करती हैं। इस सन्दर्भ में सीमा की बाजार कविता को देखा जा सकता है। आज का समय भारतीय लोकतन्त्र में स्थापित पूर्वमान्यताओं के टूटने का समय है। हम जिन लोकतान्त्रिक मूल्यों को अटूट, स्थाई व अनिवार्य समझ रहे थे उन मूल्यों के विसर्जन का समय है। इस तोडफोड को कवि भी देख रहा है। जाहिर है ऐसे संकट मे स्त्री या पुरुष का भेद नही रह जाता है। यदि हम इन संकटों को मानवीय स्तर से पृथक कर लैंगिक भेद के अनुसार देखें तो यह कवि की जागरुकता और युगोन्मुखता का अभाव व्यक्त करता है। सीमा इस दोष से रहित है। उसकी वैचारिक अवस्थिति कविता मे साफ़ परिलक्षित हो रही है शायद यही कारण है वह तमाम विषयों को अपने तरीके और सलीके से कहने मे सफल हो जाती है।
-उमाशंकर सिंह परमार


सीमा संगसार की कविताएँ

बाजार

तनी हुई रस्सी पर 
संतुलन साधने का
कला-कौशल है
जिन्दगी की वृताकार वलय में,

यह बखूबी जानती है
वह लड़की!

जब वह नपे तुले कदमों से
डगमगाती है
उस राह पर
जो टिकी होती है
दो बांस के सहारे...

करतब दिखाती वह लड़की
बाजार का एक हिस्सा 
बन कर रह जाती है
जहाँ सपने खरीदे और बेचे जाते हैं 
वह चंद सिक्कों में ही
समेट लेती है
अपने हिस्से का बाजार...

 
दो औरतें 

जब मिलती हैं दो औरतें
दो सूखी नदियों में
भर आता है पानी
जो काजल के फैल जाने से
छोड़ देती है निशानी
अपने दुख भरे कालिमा की...

जब मिलती हैं दो औरतें 
दो कहानियों की पटकथा
लिखी जाती हैं 
उनके चेहरे पढ़ कर...

जब मिलती हैं दो औरतें 
उनके खोंइछा में
भर दी जाती है
ढेर सारी सांत्वना की हरी दूब!

जब मिलती हैं दो औरतें 
लिखी जाती हैं, दो कवितायें!
दो औरतों की कविता में
दुनिया की सारी औरतों का
बिम्ब उभर आता है!

जब मिलती हैं दो औरतें 
वे मिल कर एक हो जाती हैं ---


 यह इंसान बनने का समय है 

अपनी पुतलियों को फैला कर
सिकोड़ लेती है
बजबजाती भूख से
अतृप्त इच्छाओं को...

खैरात में मिले उन टुकड़ों को
चबा-चबा कर खाती है
ताकि देर तलक
बजती रहे 
चपर-चपर की आवाज 
और
उसकी गंध को भरती रहे वह
अपने नथुनों में!

जब इंसान चुक जाता है
अपनी संप्रेषणीयता बनाने में
पशु की आंखें बोल पड़ती हैं...

यह इंसान की आखिरी अवस्था है
जब इंसानियत 
पशुता की भेंट चढ़ जाती है
और
पशु इंसान बनने लगता है...

यह इंसान का
पशुता की शक्ल में
इंसान बनने का समय है...


उलझते रिश्ते 

अंगना बुहारती स्त्रियाँ 
अपनी सारी वेदनाओं को
उड़ा देती हैं घर के धूल के साथ!

उनींदी रातों की कहानी 
चिपक जाया करती हैं 
कमरे की दीवारों पर ...

बासी कमरे से आती बू 
उदास चेहरे पर 
जबरन मुस्कान थोपते हुए
वह सहजता से मिटा देना चाहती है
अपने सारे निशान 
बिखरे हुए तिनके की तरह ...

बेतरतीब जुल्फों को
करीने से काढ़ती हुई
आड़ी तिरछी बिन्दी को 
माथे पर सुनिश्चित कर 
आश्वस्त करती है
अपना पता ठिकाना!

झाड़ू कोई उपकरण नहीं 
बस एक समाधान है
उलझते बिगड़ते रिश्तों को
तहजीब से रखने की...

मैं मकबूल

कूंची में है रंग इतना भरा
कि मैं रंग सकता हूँ 
पंढरपुर की दीवारों को ही नहीं 
मुंबई की रिहाइशी फिल्मी बस्तियों को भी 
और
खींच सकता हूँ खाका
इस्लामाबाद से ले कर 
लंदन की गलियों तक का ...

मेरी जमीन इतनी छोटी भी नहीं कि
समा जाती मेरी रंगीन दुनिया 

देश-निकाला तुमने मुझे नहीं 
कला को दिया,
अपनी संस्कृति को दिया

नग्नता देखने की आदी
तुम्हारी आँखें 
द्रोण और भीष्म की तरह चुपचाप 
देखा करती है 
जब भरी सभा में
द्रौपदी की नग्न देह पर 
बिछता है चौसर ...

मैं मकबूल
कबूल करता हूँ कि
मैने तुम्हारी आँखों की पट्टी खोली है
ताकि तुम देख सको 
हस्तिनापुर का सच

तुम देख सको 
अग्नि में जलता सीता का शरीर
तुम देख सको 
रामायण व महाभारत के उन किस्सों को 
जिन्हें तुम नहीं देख सकते ...

मैं मकबूल 
एक सजायाफ्ता कैदी
गुनहगार हूँ 
तुम्हारी
भारत माता के
जिनके चिथड़े वस्त्रों पर 
मैने चलाई है अपनी कूंची!

मैं मकबूल
धूल फांकता रहा विदेशों में
अपने देश की मिट्टी 
बुलाती रही मुझे ...

तुमने मुझे दो गज जमीन का टुकड़ा
देना मुनासिब नहीं समझा
मुझे दफन के लिए!

मैने तुम्हें सारा जहाँ दे दिया ...

मैं मकबूल
फिदा हूँ आज भी अपने वतन पर
और गाता हूँ 
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ...

मुर्दहिया

मुर्दहिया
आत्म संगीत है
मरी हुई इच्छाओं की

थिरकती है नटिनियां
खुदे हुए कब्रों पर
जहाँ जनमता है
हर रोज एक
मुर्दहिया ...

चीलों व गिद्धों के शहर में
जहाँ बसेरा हो
पाशविक आत्माओं की
चमरा बजाता है
अपने ही धुन में तुरही

सिंघा बजाता हुआ 
बंकिया डोम
आत्मा है मुर्दहिया की
जिसकी तृप्ति के लिए
आयोजित होता है महाभोज

अन्य सभ्यताओं के तरह ही
मुर्दहिया टिका है
अपने लोक संगीत व
ढेरों रस्मों रिवाजों की ढेर पर

समय के टोटके पर
नई इबारत नहीं पढी जा सकी
अब तक

एक दिन गूंजेगा
मुर्दहिया के अवशेष पर
चमरा का जयघोष ---

{डॉ0 तुलसीराम के उपन्यास मुर्दहिया पर आधारित}


सम्पर्क-

सीमा संगसार

फुलवड़िया-1, बरौनी, बेगूसराय (बिहार)

सदस्य जनवादी लेखक संघ बिहार



मोबाईल - 7543860361  

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-04-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2618 (http://charchamanch.blogspot.com/2017/04/2618.html) में दिया जाएगा
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. एक ही पोस्ट में इतनी साड़ी कवितायें!
    वैसे आपकी रचनाएँ काफी अच्छी हैं.
    साधुवाद.

    जवाब देंहटाएं
  3. सीमा संगसार जी के परिचय के साथ उनकी सुन्दर रचनाएँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. कविताएँ कविता जैसा है ... आगेभी लिखते रहिए

    जवाब देंहटाएं

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