योगिता यादव की कहानी 'दही'


योगिता यादव


युवा कहानीकारों में योगिता यादव अपने कथ्य और शिल्प के लिए प्रमुख तौर पर जानी जाती हैं. आज योगिता का जन्मदिन है. इस अवसर पर योगिता को जन्म दिन की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी ‘दही’. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं योगिता यादव की यह कहानी.    

दही

योगिता यादव


कल्लो..... नाम भले ही काला हो पर थी बड़ी खूबसूरत। सूरत से भी ज्यादा अपनी सीरत के लिए जानी जाती थी कल्लो। तब आठ-दस साल की ही तो रही होगी जब उसकी भाभी ने अपनी नन्हीं बेटी को तमाचा मारा। इस तमाचे पर तुनक गई थी कल्लो। आव देखा न ताव, बगल में पड़ा धनकुटा जमा दिया अपनी भाभी की कमर पर और नन्हीं बच्ची को उठा दालान की तरफ भाग गई थी। उस साल धान खूब हुई थी। इतनी कि गेहूं की बजाए चावल के आटे की सफेद फुलकिया खाईं जातीं।

जैसे-जैसे बड़ी हुई ननद भाभी में खूब छनने लगी थी। धनकुटे की मार से कमर पकड़ लेने वाली भाभी ने ही पीले किए थे उसके हाथ। धनकुटे की जरूरत अब कहां रह गई थी। बेले, लौटे, धनकुटा, सूप, छलनी सब धीरे-धीरे पुरानी कोठरी में बंद होते जा रहे थे। अब तो चटनी भी मिक्सी में पिसती थी। दूध-दही की बड़ी-बड़ी हंडिया भी पुरानी कोठरी में पहुँच गईं थी। रात भर दूध ओटाने वाली बरोसी बड़ी-बूढिय़ों की याद में आंगन की शोभा बनी हुई थी। दूध-दही की जरूरत पूरी करने के लिए बहुत सी गूजरियां थी मोहल्ले में। जो सुबह शाम जब जरूरत होती दूध, दही दे जातीं।

बदलते वक्त में कल्लो का नाम पुराना पडऩे लगा था। सो उसने भी बदल कर कल्याणी कर लिया।

''राशि थोड़े ही बदली है, है तो क से ही न।”

कल्लो अब कल्याणी बन अपनी गृहस्थी में खूब रमी हुई थी। जो नहीं मिला उसका दुख करने की उसकी आदत थी ही नहीं। जेठ-जेठानियों के बाद देवर-देवरानियों ने भी अपने-अपने परिवार बड़ा लिए। पहले सास-ससुर की, फिर जेठ-जेठानियों और फिर देवर-देवरानियों की भी कल्याणी ने खूब सेवा की। सब के बच्चे कल्याणी की गोद में पल कर बढ़े हुए। पर जिस-जिस की बैल थी बड़े हो कर उसी की जड़ से लिपट गई। कल्याणी ने इसका भी मलाल नहीं किया। 


''कौन किसका हुआ है। यहां का सब यहीं रह जाएगा। जितने दिन खुशी-खुशी बीत गए, वही अपने थे।”

भरे-पूरे कुनबे में अब धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे थे। बंटवारे की सुगबुगाहटें बढऩे लगी थीं।

कल्याणी के पति ने खटिया पकड़ ली। जाने क्यों, वह चाह कर भी अपना सा जीवट पति में न भर पाई थी। कल्याणी के पति को लगने लगा था कि यह खटिया ही अब उसकी है, बच्चे होते तो हिस्सा मिलता।

इधर पति ने खटिया पकड़ ली और उधर जेठानी मर गई।

दोनों की सेवा-सुश्रुषा कल्याणी ने अपने कंधों पर संभाल ली। जेठ दोनों वक्त पकी-पकाई मिल जाने से खुश था और कल्याणी को घर में अपना हिस्सा मिलने की उम्मीद सी हो गई थी।

साल भर बाद जब कल्याणी पीहर गई तो उसकी बगल में बच्चा था। 15 साल में जो न हुआ वो अब कैसे हो गया भाभी ने पूछा तो कल्लो बोली, ''क्या करती भाभी, कोई हिस्सा देने को तैयार ही नहीं था..... तुम बताओ, मैंने कभी कोई शिकायत की किसी से.... जैसा मिला, वैसे में रह ली....। अब तो कोई ठौर करनी थी। ये भी बीमार हो गए।”

''पर लोग तो कहते हैं कि....”

''लोग थोड़ी दे देंगे मुझे बुढ़ापे में रोटी-पानी।”

कुछ दिन हंस बोल कर कल्याणी फिर अपने ससुराल चली आई। बालक बड़ा होने लगा, कल्याणी का पति भी अब पहले से अच्छा हो गया था।

कल्याणी को खुशी थी कि इस बार जो बेल वह पाल रही है, वह धीरे-धीरे उसी से लिपट रही है। बच्चा बड़ा होने लगा तो कईयों को मलाल हुआ ......

अब जायदाद के पांच हिस्से करने पड़ेंगे
पांच हिस्सो की बात उठी तो देवर-जेठ सब तुनक गए
''पांच काहे के.....
चार ही हिस्से काफी हैं
कौन नहीं जानता कल्लो ने किसका बच्चा जना है।
मंझले का क्या है ..... जाना या अनजाना सब मेरा ही तो है।”

अपने और अपने पति के बुढ़ापे की एक मात्र लाठी पर कल्याणी को चिंता होने लगी। जिस आस में उसे पाल पोस कर बड़ा किया था अब उसी पर लोगों की नजर लग गई है....

कल्याणी के शरीर में अब पहले सी ताकत नहीं रह गई थी, बड़ा सोच रही थी कि बाहर से गूजर-गूजरियों के लडऩे की आवाजें आईं।

कल्याणी चौखट पर जा खड़ी हुई, गूजर और गूजरी में दही के पैसों पर झगड़ा हो रहा था। गूजर ने दैहिक बल दिखाते हुए गूजरी से पैसे छीन ही लिए थे। जिनके प्रतिकार में वे मनचाही गालियां दे रही थी। उसकी गालियों की बौछार सुन कर रोज उसके साथ आने वाले दो-चार गूजरियां और इकट्ठी हो गईं।

अब गूजरी को लगा कि वो अकेली नहीं है। सारी हिम्मत बटोर कर वह गूजर पर टूट पड़ी, ''जा रे भूतनी के.... सारी मेहनत मेरी, इसमें तेरा क्या साझा? तुझसे थोड़ा सा जामन ले कर दूध जमा लिया तो क्या दही तेरा हो गया? गूजरी ने उस गंधाते, बड़बड़ाते आदमी को धक्का दिया और अपने सारे पैसे छीन लिए।



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