माधव चतुर्वेदी की कहानी 'महापात्र का एजेंट'



माधव चतुर्वेदी

किसी भी रचनाकार के लिए दृष्टि सम्पन्नता बहुत जरुरी होती है। रसूल हमजातोव ने अपनी प्रख्यात किताब 'मेरा दागिस्तान' में एक जगह लिखा है - 'यह मत कहो कि मुझे विषय दो। बल्कि यह कहो कि मुझे दृष्टि दो।' जो रचनाकार अपने आस-पास के समूचे दृश्य-परिदृश्य को सजग-सचेत दृष्टि से देखते हैं वही बेहतर सृजन कर पाते हैं। माधव चतुर्वेदी एक पत्रकार होने के साथ-साथ उम्दा कहानीकार भी हैं। माधव जी मीडिया जगत की विडम्बनाओं से अच्छी तरह परिचित हैं। यह वही मीडिया है जो दूर से चकाचौंध भरी लगती है। तो आज आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं - माधव चतुर्वेदी की कहानी 'महापात्र का एजेंट'  
      

महापात्र का एजेंट


माधव चतुर्वेदी



चीफ रिपोर्टर का काम बड़ा किचाइन होता है। शहर में कुछ भी हो जाए, ...मुसीबत चीफ रिपोर्टर की। हर बात का जवाब दो। यह साला सम्पादक भी.....दिनों-दिन सठिया जा रहा है। कल मकरानपुर की सड़क धंस जाने की इतनी बड़ी खबर देर से देने के कारण भड़क गया। कह रहा था, ‘‘आप की वजह से डेड लाइन मिस कर गये। आप जानते हैं कि शेड्यूल से दस मिनट भी पिछड़ने से कितना नुकसान होता है।’’


अब इस खब्ती को कौन समझाये कि कोई सड़क अखबार की डेड लाइन का ध्यान रख कर तो धसकेगी नहीं। इतनी बड़ी खबर यदि अखबार में नहीं जाती तो कल सारा पत्रकारिता इतिहास समझा दिया जाता। मुझे ‘‘डेड वुड’’ घोषित कर दिया जाता। सुबह की मीटिंग में एक साथ कई रागों के जलतरंग बज उठते।


वैसे अपना क्राइम रिपोर्टर भी है गजब चीज!


थानेदारों से मिलने में जितनी तत्परता दिखाता है, उतनी ही फुर्ती वह खबरें लिखने में दिखाये तो मेरा आधा सिर-दर्द खत्म हो जाए। बहुत दिनों से वह एक सहायक मांग रहा है। अब इसे कौन समझाये कि आए दिन संपादक धमकाता रहता है.... ‘‘इतने बड़े लोकल ब्यूरो के साथ तो मैं चार अखबार निकाल सकता है।’’ 


यहाँ लोकल ब्यूरो पर ही तलवार लटक रही है और इस पट्ठे को एक सहायक चाहिए।


       वेज बोर्ड क्या लागू हुआ, ऐसा लगता है कि प्रबंधन किसी अति पिछड़े देश की अर्थव्यवस्था का वित्त मंत्री हो गया हो। अब 15 साल में तिल-तिल कर बढ़ती तनख्वाह महंगाई से प्रतिस्पर्धा कर फेंचकुर फेंकने लगी थी। दमे के मरीज की तरह हांफने लगी थी। इस वेजबोर्ड के प्रकाश स्तंभ को दिखा कर घर में श्रीमती जी एवं बच्चों की कितनी जायज-नायज मांगों को प्रशांत महासागर की गहराइयों में डुबो कर आगे बढ़े हैं। सुबह उठने के साथ ही समाचार की चिंता से ज्यादा इसकी फिक्र लगी रहती है कि कौन-सा नया खर्च मुंह बायें खड़ा हो जाये। स्कूटर का पिस्टन बदलवाना है। मैकेनिक कह रहा था, ‘‘बाबू जी किसी दिन चलते-चलते बैठ जाएगा।’’ पर हम है कि उसी स्कूटर को रगेदे जा रहे हैं। वेजबोर्ड आने के बावजूद नया स्कूटर खरीदने की तो नहीं, पर पुराने का पिस्टन बदलवाने की अवश्य सोच रहे हैं। पर दिमाग की बात प्रायः वास्तविकता तक आने में कई सीढ़िया लुढ़क जाती है। जेब की कमजोरी प्रायः उमंगों के पैरों में पोलिया ला देती है। हर समय कदम साध-साध कर चलना संभव भी कहाँ?


       अब लो! यह भैरू बाबा धमक गए...। 


       उफ, इस भैरव प्रसाद का क्या करूं? रोज-रोज कर्जा वसूलने वाले पठान की तरह धमक पड़़ता है। पठान है तो जा कर सूबे पर बैठे। 


       भैरव प्रसाद आया तो औपचारिक अभिवादन के बाद मैं मेज पर पड़ी तमाम कॅापियों में लग गया। पत्रकार की आदत में होता है कि हर काम डेड लाइन पर ढुरका देता है। डेड लाइन उसके लिए एक सुरक्षा कवच होती जाती है। कॅापियों में उभरे छोटे-बड़े काले बरसाती कीड़ेनुमा शब्द। कई बार डर लगता है कि इनकी कालिमा चश्मे के शीशे को भेदती हुई मेरी आंखों में धंस रही है। मेरी आंखों में काले मोतियाबिन्द की जमीन तो तैयार नहीं हो रही। कॅापियां पढ़ते समय मैं बीच-बीच में कनखियों से उसे भी देख लेता हूँ। भैरव प्रसाद तसल्ली से बैठा हुआ था। मुझे लगा कि वह ठीक मेरे सामने बैठा है किन्तु प्रकाश उस तक पहुंचते पहुंचते फिसल रहा है। पीला हो कर। 


      वह यू. पी. एजुकेशन बोर्ड में खलासी था। पक्की नौकरी। सरकारी नौकरी में जितना काम करना चाहिए, वह उतना कर लेता था। अब सेवानिवृत्त होने के बाद भले ही उसे पेंशन मिल रही हो, पर ‘‘मुफ्त हाथ लग जाए तो बुरा क्या है’’ की अपनी आदत का क्या करेकुन्दन कुमार की सिफारिश से मेरे पास आ गया है। इस बीच शाम की चाय आ गयी। कैंटीन के लड़के ने बिना कुछ कहे मेरे सामने चाय का गिलास रख दिया। मैंने इशारे में उससे भैरव को भी चाय देने के लिए कहा। वह हर बार चाय का गिलास मेज से उठाता। फिर चाय सुड़कता। सुड़कने से पहले मूंछों से लदा उसका ऊपरी ओंठ गोलाकार हो कर थोड़ा खुलता। चाय की मामूली सी गर्मी को बिसारते हुए वह घूंट भरता। 


      एकाएक मुझे कुछ सूझा। मैंने कॅापी को एक तरफ खिसकाते हुए भैरव से कहा, ‘‘आपके लिए एक काम है तो.....पर थोड़ा संकोच है कि आप....’’


      उसने ठेठ आत्मविश्वास से कहा, ‘‘जी... काम तो काम है। उसमें कैसा संकोच?’’


      ‘‘हमारे अखबार में क्राइम की खबरें छपती हैं... समझे, क्राइम की। आप क्या जिला अस्पताल में किसी को जानते हैं?’’


      ‘‘जानता तो किसी को नहीं। पर अपना शहर है, अपने लोग हैं। आप तो बस काम बताइये?’’


       मैंने अपने बात कहने के ढंग को औपचारिक की जगह कुछ मुलायम बनाते हुए कहा, ‘‘भैरव जी, हमें कभी-कभी क्राइम की खबरों में पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यदि आप मोश्चरी में जा कर किसी से जान-पहचान बना लें तो यह काम आसान हो जाएगा। वैसे मोश्चरी में पोस्टमार्टम डॉक्टर नहीं करते हैं। यह तो मोश्चरी वाला ब्वॉय करता है। मुर्दा शरीर को फाड़ना कोई आसान है क्या? साले चिकने-चिकने नये डॉक्टरों की तो फट पड़ती है, उघेड़े हुए मुर्दे को देख कर। आला लटका कर मजबूरी में आते हैं। मुंह पर कपड़ा बांध कर। डरते रहते हैं कि वहाँ की किसी चीज से स्पर्श न हो जाए। और पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर बस चिड़िया बैठा कर भाग लेते हैं।’’


      अपने दिमाग के इस चंटपन से मैं बहुत अभिभूत था। उमस में पंखे के नीचे भी हो रही चिनमिनाहट के बावजूद मैं पता नहीं क्यों खुश था। पर मन के किसी कोने में यह बात भी अच्छी तरह बैठी थी कि यह प्रस्ताव कभी स्वीकार नहीं होगा। 


    भैरव ने मेरी उस चिनमिनाहट को एकाएक फिर बढ़ा दिया। सहज ढंग से हामी भर दी। मानो उससे बाजार से हरी धनिया लाने को कहा गया है। 


      कुछ देर के मौन के बाद भैरव बोला- ‘‘सर जी! दिन कटता नहीं है। घर के सारे काम तो सूरज निकलने से पहले ही हो जाते हैं। अब इस उम्र में पैसा चिंता नहीं है। पिंशन से सब हो जाता है। असल दिक्कत है समय काटना। कुछ दिन पीने-पाने का पिरोग्राम भी चला पर उसमें भी कोई मजा नहीं।’’


      मैं उमस से बहुत परेशान था। एक कूलर था। पर उसकी मोटर बनने गये गयी है। मैंने मौन की कनात को ताने रखा। किन्तु भैरव, ने उसे परे करते हुए कहा सवाल किया, ‘‘वैसे सर जी!! इस काम में कुछ मिलेगा भी क्या?’’


      उसके इस सवाल ने मुझे थोड़ा कठिनाई में डाल दिया। क्योंकि बात के इतनी दूर तक पहुंचने के बारे में मैंने सोचा ही नहीं था। मैंने एक कॉपी को उठाया और अपने बाल पैन की टिप पर जमे स्याही के छोटे से थक्के को उसी कापी के हाशिये के कोने से थोड़ा मोड़ कर साफ किया। इस थक्के की वजह से प्रायः लिखते समय अनावश्यक मात्राएं और बिन्दु कॉपी पर स्वतः उभर आते हैं। मैंने इसके बाद मैसेंजर को बुला कर एक कॉपी थमाते हुए कहा कि इसे पहले पेज के प्रभारी को दे आओ और उनसे कहना कि पेज पर चिपकाने से पहले एक बार गेली मुझे दिखा लें। 


      फिर मेरी नजर भैरव से टकरायी। पता नहीं क्यों भैरव को देख कर मुझे कुन्दन कुमार की याद आ गयी। मुझे लगा इसे कुन्दन ने नहीं भेजा, बल्कि यह कुन्दन का ही विस्तार है। विस्तारवाद की घाटियों की धूप इतिहास ही नहीं वर्तमान में भी अपनी हरारत बनाए हुए है। ...व्यष्टि स्तर पर भी। पर आखिर यह प्रवृत्ति पलती कहाँ हैं


      मेरी आंखें इतिहास में भटकने लगीं। कुन्दन और मैं एक ही गाँव के थे। हमने साथ ही पढ़ाई की। साथ ही पत्रकारिता शुरू की थी। कुन्दन ने कुछ ही दिन में हम सब के बीच अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। "ट्रेनीरहते ही उसने एक कार खरीद ली थी। सेकेंड हैण्ड स्टेण्डर्ड कार। जी हां, वही स्टेण्डर्ड कार जिसका अगला दरवाजा उल्टा खुलता था। यह कार पुरातात्विक महत्व की अधिक थी। चलती कम बीच में रुकती ज्यादा थी। लेकिन कुन्दन की कार यह बता रही थी कि वह स्पीड में यकीन रखता है। उसे जल्दी जल्दी कहीं पहुंचना है, कुछ हासिल करना है। क्या यह शायद वह भी नहीं जानता था। अक्सर इस स्टेण्डर्ड कार को धक्का देते कुन्दन मिल जाता था। प्रेस क्लब, अखबार की कैण्टीन, न्यूज रूम में कुन्दन की स्टेण्डर्ड कार हंसी-मजाक का एक विषय हुआ करती थी। लेकिन कुन्दन इस सबकी परवाह नहीं करता था। उसे तो बस तेज दौड़ना था। सबसे आगे निकलना था। लोग पहले कुन्दन के सामने इस पर बात नहीं करते थे। लेकिन बाद में कुन्दन की उपस्थति की मैकमोहन लाइन को भी पार कर लिया गया। उसके सामने ही स्टेण्डर्ड कार का मजाक उड़ने लगा।


      एक दिन मैंने उपदेष्टा भूमिका अपनाते हुए कुन्दन को समझाया, ‘‘यारा! क्यों अपने को बिजूका बना रखा है। छोड़ यह सब। कोई स्कूटर खरीद ले।’’  


    कुन्दन कुछ नहीं बोला। बस मुस्कुरा दिया। किन्तु उसकी आंखों में कुछ लाल डोरे थे। वह दूर देख रहा था। कहाँ स्कूटर और कहाँ गाड़ी? उसे शुरू से ही गाड़ी पसंद थी। यह उसकी जिद थी कि टू व्हिलर पर वह कभी सवार नहीं होगा। कार ले कर उसने अपनी यह जिद पूरी की थी। 




     
वक्त बीता और बीतता रहा। कुन्दन कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर गया। करीब एक पखवाड़े बाद लौटा तो उसके पास नयी प्रीमियर कार थी। कुन्दन तेजी से आगे निकल रहा था। पीछे की दुनिया की वह परवाह नहीं करता था। नयी प्रीमियर कार ने अटकलों का बाजार गर्म कर दिया। अटकलों का सनसेक्स रुका इस नतीजे पर कि कुन्दन की शादी एक पी.सी.एस. की लड़की से होने जा रही है। शादी की बस एक ही शर्त थी कि पहले प्रीमियर कार चाहिए। प्रीमियर कार में वह बड़े उत्साह के साथ मुझे भी बैठा कर सिविल लाइंस तक ले गया। शेरवानी सिलने के लिए देनी थी। मैंने कार, बीच में मोड कर सुभाष नगर तक चलने को कहा। कुन्दन ने मेरी तरफ देखे बिना कहा, ‘‘वहाँ नहीं जा सकते। टाइम कम है।’’ टाइम कम था। और दूर जाना था।


      हम सिविल लाइंस के उस मशहूर टेलर के यहाँ गये। कुन्दन कई कपड़े निकलवा कर देखता रहा। और मैं टेलर की दुकान के बाहर सिविल लाइंस में फुटपाथ आ जा रही भीड़ को देख रहा था। मुझे लगा कि उस भीड़ का हर आदमी चल नहीं रहा, बल्कि स्टेबल हो गया है। अधिक तेजी से चलने पर भी ऐसा ही लगता है। फिर मैंने सोचा कि यह भीड़ कुछ तलाश रही है। हर कोई अपने भीतर कुछ दबाये है। क्या पता नहीं। कुन्दन ने एक-दो बार किसी खास कपड़े के बारे में मेरी राय ली। मैंने हर कपड़े को ‘‘उम्दा’’ और ‘‘बेहतरीन’’ बता कर उसकी उलझन को और बढ़ा दिया।


      शेरवानी फाइनल कर हम वहाँ से बाहर तक आये। कार तक मैं कुन्दन के साथ गया। कुन्दन जब कार खोल कर बैठ गया तो मैंने कहा कि मैं उसके साथ नहीं जाऊंगा। कुन्दन ने कुछ नहीं कहा। पहले उसने मेरी ओर कुछ देर देखा और फिर वह वह बैक मिरर में देखने लगा। 


    प्रीमियर कार आते ही कुन्दन की जिंदगी फर्राटे से दौड़ने लगी थी। हमारे बैच के सभी लोगों ने छह माह की ट्रेनिंग और छह माह की प्रोबेशनशिप की थी। कुन्दन छह माह में ही कन्फर्म रिपोर्टर बन गया। समय-समय पर कुन्दन कारें बदलता रहा। और नौकरी भी। आज वह खाड़ी के एक देश से निकलने वाले एक प्रसिद्ध अखबार में एशिया पैसेफिक एडीटर है। 


    इसी एशिया पैसेफिक क्षेत्र का एक देश है भारत। उसमें आबादी के लिहाज से सबसे बड़े राज्य में निकलने वाले एक हिन्दी के अखबार का मैं चीफ रिपोर्टर हूँ। कुछ ही महीने पहले मैंने भी एक नया बजाज स्कूटर खरीद लिया है। स्कूटर चलाते समय कभी कभी मौज आने पर मैं फुटबोर्ड से अपना बायां पांव थोड़़ा अधिक ही बाहर निकाल लेता हूँ। साथ ही अपने दायें कंधे को थोड़ा तिरछा कर स्कूटर चलाता हूँ। स्कूटर चलाते समय एक-दो बार जब कुन्दन की याद भी आयी जाती है। मन को समझाने के लिए कहता हूँ... भले ही वह एशिया पैसेफिक एडीटर हो, बड़़ी सी लग्जरी कार में चलता हो (यह अनुमान से लिख रहा हूँ) पर उस अखबार का चीफ रिपोर्टर तो नहीं बन पाया जहाँ वह कभी ट्रेनी रिपोर्टर था। पता नहीं ये मेरा विजयघोष था या पराजय थी। मैं इतिहास के इस दुविधाजनक मोड़ को छोड़ कर वर्तमान में लौट आया। भैरव उसी तरह बैठा था।


      मैंने भैरव से पूछा, ‘‘क्या आपके पास कोई वाहन है?’’

      ‘‘साइकिल।’’

      यह सुनते ही मेरे मन में सवाल उठा कि क्या कोई साइकिल से एशिया पैसेफिक नाप सकता है ? भैरवनहीं.... यह तो शायद उससे भी आगे जा सकता है शायद।

      मैंने अपने सवालों का गला घोंटते हुए और चेहरे पर सराहना के कृत्रिम भावों को उगाते हुए कहा, ‘‘बहुत अच्छे। ....... साइकिल से तो बहुत आसानी हो जाएगी। आप यहाँ रोज भले ही न आयें पर अस्पताल रोज जरूर जाया करिए। किसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जरूरत हुई तो मैं आपको खबर करवा दूंगा। आप शाम तक हमें दे दीजिएगा। हर रिपोर्ट पर आपको मैं दो रुपये दिया करूंगा।‘‘


   धन की बात आते ही भैरव की आंखों में कुछ पल चमक आयी और फिर गायब हो गयी। उसने थोड़ा आगे झुकते हुए धीमी आवाज में पूछा, ‘‘महीने में कितनी बार मेरी जरूरत पड़ सकती है?’’


   मैंने कहा, ‘‘समझ लीजिए 10-12 बार। कमी-बेशी हो सकती है।‘‘


   उसने जवाब में बिना कुछ कहे सिर हिलाया। कुछ देर बाद वह अभिवादन करके चला गया। 


    भैरव अगले करीब 10 दिन नहीं आया। मैंने राहत की सांस ली। मुझे लग रहा था कि यह काम इतना कर्रा था कि अब शायद ही आये। लेकिन मैं गलत था।

 
    वह करीब एक पखवाड़े बाद नमूदार हुआ। आते ही बिना किसी लाग-लपेट के बोला, ‘‘भाई साहब! कई दिन इसलिए लग गये कि सरहज की गर्मी में गाँव जाना पड़ा। आप तो जानते ही हो रिश्तेदारी....।’’


      मैंने धीमे से अपनी बात कह दी, ‘‘अस्पताल का चक्कर लगा क्या, इस बीच?’’


      ‘‘अस्पताल की तो चिंता ही मत करिये। वहाँ जिस लड़के से काम है वह तो अपनी ही तरफ का ही निकल आया। सिरसागंज का। वह कह रहा था कि परवाह की जरूरत ही नहीं। पोस्टमार्टम तो क्या, जरूरत पड़ी तो पूरी लाश भिजवा देंगे।’’


      मैंने क्राइम रिपोर्टर को बुलवा कर भैरव से उसका परिचय करवा दिया। इसके बाद बहुत दिनों तक ऐसा कोई मौका ही नहीं आया कि भैरव का कोई उल्लेख आया हो।


      इस बीच, शहर के एक ‘‘पेज थ्री’’ व्यवसायी की एक बार में, बड़ी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गयी।  वह बार के एक छोटे से रूम में बैठ कर अकेले ही ‘‘ठंडा-गरम’’ कर रहा था। बाद में जब बार का बैरा उसके रूम में गया तो उसे जमीन पर मृत पड़ा पाया। हर समाचार की एक आयु होती है। समाचार का जीवन काल उत्सुकुता की बैसाखी पर टिका रहता है। यह मौत तमाम कारणों से महत्वपूर्ण हो उठी। घटना रात में हुई थी। अगले दिन होली थी। ऐसे में पोस्टमार्टम लटक गया। अखबारों ही नहीं हर जगह व्यवसायी की मौत को लेकर तमाम तरह की अफवाहें-अटकलें थीं। 


      मैंने क्राइम रिपोर्टर से बुला कर इस मामले में बात की। साथ ही भैरव के बारे में भी पूछा।

    क्राइम रिपोर्टर ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘भैरव, अब पहले वाला भैरव नहीं रह गया है। अब उसकी हमारे काम में कोई रुचि नहीं रही।’’ 

     हैरत जताते हुए मैंने पूछा, ‘‘आखिर ऐसा क्या हो गया?’’

     ‘‘भैरव ने अब एक नया धंधा अपना लिया है। वह अब लाशों का धंधा करने लगा है।’’

     ‘‘यह मनोहर कहानी वाली शैली छोड़ो। सीधे-सीधे बताओ कि क्या हुआ?’’


      क्राइम रिपोर्टर बोला, ‘‘सर, पोस्टमार्टम के लिए जो भी लाश आती है, उसके साथ आये हर रिश्तेदार-परिचितों को यह जल्दबाजी रहती है कि जल्द से जल्द यह काम पूरा हो ताकि अंतिम क्रिया-कर्म किया जा सके। विशेषकर गाँव से आने वाले लोग। वे चाहते हैं कि लाश को शाम से पहले गाँव ले जा कर उसका क्रिया-कर्म कर दें। समझ लीजिए कि भैरव अब पोस्टमार्टम करने वाले लड़के का एजेंट बन गया है। वह पोस्टमार्टम जल्दी करवा देने का आश्वासन देकर लोगों विशेषकर गाँव वालों से पैसा ऐंठता है। गाँव वाले भी बिना हील-हुज्जत किये पैसा दे देते हैं। बस समझ लीजिए, आपके भैरव का काम खूब फूल-फल रहा है।’’


     वह जब यह सब सुना रहा था तो मुझे न जाने क्यों मनको की याद आ गयी।
 ......अस्पताल में उस दिन भी तो कुन्दन मेरे साथ था। 


    मनको लड़कपन में हमारा लट्टू थी। धरती पर पतली सी कीली के सहारे घूमती हुई। तेजी से धूमती तो लगता था कि यह किसी सीधे स्तंभ की तरह खड़ी है। पर गति कम होते हुए वह चारों ओर झुकी-झुकी-सी नाचती थी। ठीक धुरी पर घूमती पृथ्वी की तरह। और हम राहु-केतु से उसके अक्ष पर ताली बजाते हुए उसे देखा करते थे। 


     मनको का पूरा नाम मानवती था। छठवीं कक्षा तक आते-आते ही मनको की पढ़ाई छूट गयी। पर मनको भी गजब थी। बिल्कुल मधुमालती की लतर की तरह।  उसका स्कूल छूटा था। स्कूल की ललक नहीं। कुछ साल बाद उसने अपने ही घर में एक स्कूल तो नहीं स्कूल के इरादे नुमा एक चीज़ खोल ली थी। पता नहीं किन-किन घरों से बच्चों को उठा लायी थी। किसी बच्चे की नाक बह रही थी। तो कोई धूल में सना। कुछ बच्चे नंगे पांव। गाँव के गरीब अभिभावक। उनकी आंखों में टंगी फीस की चिंता। खुले-दबे स्वर में मनको से स्कूल की जब फीस पूछते तो मनको हंसते हुए हाथ हिला-हिला कर कहती- ‘‘घर का बच्चा है, नन्द की भाभी। दो रुपया फीस है। जब मरजी हो दे दीजियो। महीने के शुरू या अंत में। न होए तो मांगने न आऊंगी कभी। बस एक गर्मा-गर्म चाय पिला दीजियो।’’ 


    स्कूल में मनको ने दो टीचर भी रख ली थी। बड़ी बहनजी... छोटी बहन जी।


    जल्दी ही मनको का स्कूल मधु मालती की ऐसी बेल बन गया, जो सुबह-दोपहर छोटी-छोटी चिड़ियों से गुलजार हो जाता था। मधुमालती भी गजब होती है। इसमें चिड़ियाएं बैठना तो पसंद करती हैं। पर एक भी चिड़िया इसमें घोंसला नहीं बनाती। शायद इस बेल की टहनियों में पारदर्शिता कुछ अधिक ही होती है। छोटी चिड़ियाएं जहाँ आती हैं, वहाँ धीरे से किसी दिन बाज भी आने लगता है।



    ‘‘जो खिल सके न वो फूल हम हैं/ तेरे चरणों की धूल हम हैं/ प्रभु! दया की दृष्टि सदा ही रखना’’... स्कूल की यह प्रार्थना बच्चों के साथ गाते गाते मनको के जीवन में एक दिन प्रभु की कृपा ‘‘दृष्टि’’ हो गयी। उसकी शादी की बात पक्की हो गयी। 


     साथ ही कुन्दन ने उसे चिढ़ाना शुरू कर दिया था, ‘‘तेरा वोतो कुल हाई स्कूल पास है। ऊपर से बैंक में चपरासी।’’ 


     मनको पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती, ‘‘देख लेना कुन्दन! मैं उसे बी.ए. पास करवाऊंगी और फिर वह बैंक में क्लर्क बन जाएगा...।’’ 

     कुन्दन ने फिर तो उसे ‘‘क्लर्क वाली’’ कहना शुरू कर दिया। और एक दिन मनको अपने ‘‘उसे’’ बी.ए. पढ़ाने के लिए चली गयी।

     फिर हम भी अपने पढ़ाई में व्यस्त हो गये। मनको भी विवाह के बाद कई महीनों तक हमारी चर्चा से गायब रही। मेरे और कुन्दन के बीच मनको को ले कर कोई बातचीत नहीं होती थी। ‘‘बी.ए. पास’’ वाला मजाक भी नहीं।


    दिनों की आपाधापी चलती रही। काफी समय बाद मनको घर लौटी। उसे जब मैंने देखा तो लगा कि यह वह मधुमालती की बेल नहीं हो सकती जिस पर कभी चिड़िया चहचहाया करती थी। मैंने कटाक्ष भरे अंदाज़ में ‘‘बी.ए. पास’’ के हाल-चाल भी पूछे। पर वह कुछ बोली नही। बस एक खीज भरी कृत्रिम मुस्कान उसने अपने चेहरे पर लाने का प्रयास भर किया। ऐसा लगा कि दीवारों पर कहीं कोई म्लानता की खाल उतर रही हो। बाद में कुन्दन ने बताया कि मनको भी दहेज उत्पीड़न के दंश को झेल रही है- ऐसा उसने गाँव में उड़ते-उड़ते सुना।


     फिर उमस भरी किसी एक रात में कुन्दन ने आ कर मुझे जगाया। उसके शब्द मेरे सिर पर घन की तरह बजे- ‘‘यार! मनको ने सुसाइड कर लिया।’’ मैं निशब्द। मेरी आंखें न जाने क्यों बंद हो गयीं। मैंने मनको की कई छवियों को स्मृति की झील से निकालने का प्रयास किया। किन्तु हथेली पर रखे पारे की तरह बहने लगी। कुन्दन ने हड़बड़ी दिखाते हुए कहा, ‘‘जल्दी चल। 


     बदहवास से हम मनको के घर पहुंचे। मनको के पास से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला। दसवीं फेल मनको! क्या लिखती सुसाइड नोट? कुन्दन की उस छोटी-सी ‘‘पुर्जी’’ का जवाब तक तो नहीं लिख पाई थी। 


     काफी रोवा-पीटी मची। पुलिस आयी। लाश कब्जे में ले कर पंचनामा बना। एक सिपाही मनको के शव को रेत ढोने वाले ट्रक में लाद कर कर जिला अस्पताल लाया था। पोस्टमार्टम के लिए। उसके साथ मैं और कुन्दन तथा मनको के कुछ रिश्तेदार ट्रक के पीछे बैठ कर अस्पताल आये। 


      अस्पताल का मुर्दाघर। आपने मोहल्लों के मकान देखे होंगे। आगे से नहीं पीछे से। उसमें एक छोटी सी हौदी होती है। घर का कचरा डालने के लिए। लोग उसका इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उस पर नजर डालने से बचते हैं। लोगों का प्रयास रहता है कि कचरा डालते समय भी उस पर नजर नहीं जाए। बस अभ्यास से उसमें कचरा डाल दिया जाता है। प्रायः इसीलिए कुछ इधर-उधर बचता है। अस्पताल परिसर में भी मुर्दाघर प्रायः मुख्य इमारत के पीछे की तरफ ही होता है। जो लोग वहाँ से गुजरते हैं, वे भी इसी प्रयास में रहते हैं कि उधर नजर न पड़े। 


      मनको की लाश जब मुर्दाघर के अंदर गयी तो हम में से किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया गया। पता नहीं पुलिस का सिपाही भी कहाँ गायब हो गया। मुझे याद आया कि मैटरनिटी होम के आपरेशन थिएटर में भी किसी को अंदर नहीं जाने दिया जाता। उघड़ा हुआ शरीर वहाँ भी है और यहाँ भी। पर एक जगह जीवन का क्रम प्रारम्भ होता है और दूसरी जगह उस यात्रा के थम जाने के कारणों का पता लगाया जाता है। पर क्या करें? जीवन ही जीवन का पता दे सकता है। मुर्दा केवल मौत के कारणों का पता-ठिकाना बता सकता है।  


      मुझे लगा कि तेज गति से भागने का कायल कुन्दन यह कभी नहीं समझ सकता। ठहराव के सापेक्ष ही गति को पहचान जा सकता है। 


    अस्पताल में प्रतीक्षा से ऊब कर मैंने कुन्दन से कहा, ‘‘चल चल कर चाय पीते हैं। अस्पताल के गेट वाली चाय की दुकान पर बहुत भीड़ है। उसी के यहाँ।’’

      अस्पताल में सारी कार्रवाई पूरे होते-होते करीब करीब आधी रात हो गयी। 

  
      उसी ट्रक में हम वापस लौटे। बरसात के बाद की ठंडी-ठंडी हवा में हमें कब नींद लग गयी, पता ही नहीं चला। पौ फटने से कुछ ही पहले ट्रक एक चाय की दुकान पर रुका। हम सब मनको के शव के बगल में सोये पड़े थे।

   
 
  सिपाही ने हमें तेज आवाज में जगाते हुए कहा, ‘‘अरे उठ जाओ।....लाश के साथ तुम सब भी लाश बन कर सोए पड़े हो।’’

(सृजन सरोकार के प्रवेशांक से साभार)

     
सम्पर्क –



माधव चतुर्वेदी 





मोबाइल-09968441258

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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