पंकज मित्र के कहानी संग्रह ‘वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’ पर जगन्नाथ दुबे की समीक्षा 'कस्बाई जीवन यथार्थ की कहानियां'

पंकज मित्र 

पंकज मित्र हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं। हाल ही में इनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’। इस संग्रह पर समीक्षा लिखी है युवा आलोचक जगन्नाथ दुबे ने जगन्नाथ ने संग्रह की कहानियों पर तरतीबवार बात की है। यह समीक्षा 'तद्भव' के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। उस समीक्षा का संशोधित रूप 'पहलीबार' पर आप सब के लिए प्रस्तुत है। 
    

कस्बाई जीवन यथार्थ की कहानियां



जगन्नाथ दुबे



‘वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’ हिन्दी  के विशिष्ट कथाकार और गंवई कस्बाई चेतना के वाहक पंकज मित्र का चौथा कहानी संग्रह है। इससे पहले पंकज जी के तीन कहानी संग्रह 'क्विजमास्टर', 'हुडुकलुल्लू' और 'जिद्दी रेडियो' नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। आज जबकि कहानी को लेकर तमाम तरह की बहसें हिन्दी  आलोचना में चल रही हैं। कहानी की सार्थकता उसके कहानीपन और उसके  सरोकार जैसे मूल मुद्दे पर गंभीरता से विचार न करके कहानी से सवाल किया जा रहा है कि उससे क्रांति क्यों नहीं हो रही है? कहानी जैसी शसक्त विधा जिसे नामवर जी ने छोटी मुँह बड़ी बात कहने वाली विधा के रूप में विश्लेषित किया है उसे आज के सन्दर्भों के लिहाज से नाकाफी तक समझने की बात हो रही है तब पंकज जैसे कथाकारों को पढ़ते हुए कहानी के मूल -कहानीपन और उसके सरोकारों- पर सहज ही ध्यान चला जाता है।  कहानी या कला के किसी भी माध्यम को किसी विचारधारा के घोषणापत्र  का वाहक समझना और यह उम्मीद करना कि वह सीधे-सीधे किसी महान क्रांति की घोषणा करे या उससे  ऐसी कोई महान क्रांति हो जाय दरअसल एक तरह का अतिवाद से ग्रस्त होना है। कलाओं का काम कभी भी क्रांति करना नहीं रहा है। उनसे क्रांति संभव भी नहीं है। वे क्रांति की जमीन तो तैयार कर सकती हैं लेकिन वे किसी क्रांति की वाहक बनें ऐसा अबतक नहीं देखा गया है। यह भी नहीं है कि इस तरह की अतिवादी सोच का विस्तार इधर के दिनों में ही हुआ है। इस तरह से सोचने समझने वालों की एक लंबी परम्परा रही है दुनिया भर में। कई बार तो इसी सोच को आधार बनाकर लोगों ने पार्टी साहित्य तक की बात की। माओ जैसे चिंतकों ने तो पार्टी साहित्य की आवश्यकता पर लंबे लंबे भाषण दिए जिन्हें आजतक सुरक्षित रखा गया है। तो एक धारा है ऐसा सोचने-विचारने वालों की जो रचनात्मक लेखन को भी पार्टी की विचारधारा से जोड़कर देखने के हिमायती हैं। पंकज जी की कहानियों पर बात करने से पहले मैं इस तरफ इसलिए भी इशारा करना चाहता हूँ क्योंकि हिन्दी कहानी की परम्परा  प्रतिरोध के बहुत महीन रेशे से बीनी हुई परम्परा है। इधर जब से उत्तरकालीन विमर्शों ने साहित्य की परख का आधार सामाजिक-राजनैतिक रूप से उसका मुखर होना माना तबसे उस महीन रेशे को और ज्यादा उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। हिन्दी आलोचना का संकट यह है कि उसने  21वीं सदी के साहित्यिक-विमर्शों और मूल्यों को व्यख्यायित कर सकने के टूल्स आज तक ईजाद नहीं किये। आज भी आलोचना के मान वही हैं जो परम्परा से चले आ रहे हैं। कुछ नया करने के चक्कर में कई बार आलोचना इतनी ज्यादा पश्चिम-मुखापेक्षी हो जाती है कि बहुत सारी वैचारिक बहसों को ही वह केंद्र में रख कर अपनी बात करने लगती है। ऐसा करते हुए वह इस तरह का स्वांग रचती है कि  रचना से उसका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं समझ में आता। वह अधिकांश बार कोरा बुद्धि विलास सा लगने लगता है। इसलिए भी जब हम हिन्दी कहानी पर बात करना चाहते हों तो हमें उन सन्दर्भों और मूल्यों पर विचार करना चाहिए जिन संदर्भों और मूल्यों के इर्द-गिर्द कहानी रची जा रही है। हमें रचना के भीतर विन्यस्त मूल्यों का सामाजिक-राजनैतिक संदर्भों की स्थितियों-परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा कर अपनी बात करनी चाहिए न कि किसी खास चिन्तन धारा के टूल को आधार बना कर रचना के भीतर जाना चाहिए। इस लिहाज से जब हम कहानी पर बात करते हैं तभी हमें प्रेमचंद भी समझ में आते हैं और तभी हम अपने समय की रचनात्मकता को भी समझने में सफल हो पाते हैं।



21वीं सदी की भावभूमि और चिन्तन भूमि को हम अगर थोडा करीब से देखना चाहें तो हम देख पाएंगे कि यह सदी बहुत ज्यादा तकनीकी ज्ञान की सदी है। तकनीकि के विकास ने ज्ञान को सूचना में बदल दिया है। आज ज्ञान सूचना मात्र है। यह सूचना के महाजंजाल की भी सदी है। इस सूचना और तकनीकि ने मानवीय संबंधों के सभी प्रचलित ढांचों मे आमूल चूल परिवर्तन लाने का काम किया है। पिछले 20 वर्षों में दुनिया की तस्वीर जिस तीव्रता के साथ बदली है उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सूचना के इस महाजंजाल ने सूचना और ज्ञान की इतनी अलग-अलग और  परस्पर विरोधी प्रविधियां रच  डाली हैं कि हमें प्राप्त होने वाली सूचना और ज्ञान को लेकर लगातार संशय बना रह रहा है। सूचना के इस विस्फोटक युग में एक ही घटना और वस्तुस्थिति को ले कर इतनी विरोधी सूचनाएं मिल रही हैं कि उसको व्यख्यायित कर सकने के लिए हमारे पास पर्याप्त साधन नहीं है। हम जिस युग में जी रहे हैं उसमे घटनाएं ही घटनाएं हैं। उनका विश्लेषण करने के लिए तो जैसे मनुष्य के पास वक्त ही शेष नहीं है। ऐसे में अगर कोई यह उम्मीद करे की हमारी सामाजिक संरचना का ढांचा पूर्ववत बना रहे तो भला कैसे संभव है? आज कहानी से सबसे बड़ा सवाल यही किया जाता है कि उसने गांव से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। यह मानी हुई बात है कि कहानी का जन्म और उसका विकास गांव से हुआ। प्रेमचंद ने गांव को कहानी में इस तरह ढाला कि कहानी गांव का पर्याय बन गयी। हिन्दी आलोचना का संकट यह है कि वह आज भी हिन्दी  कहानी में प्रेमचन्द का गांव खोजती है। वह गांव न मिलने पर उसे कहानी असफल और बनावटी लगने लगती है जबकि वस्तुस्थिति उससे इतर है। अब अगर 21वीं  सदी का कहानीकार प्रेमचन्द के गांव को अपनी कहानियों में नहीं ढाल सकता तो उसे उसकी असफलता से देखना कैसे जायज ठहराया जाय? वह असफल कैसे हो गया? अगर भारतीय गांवों की तस्वीर प्रेमचन्द के जमाने की नहीं रही तो वह कहानी में भला कहाँ से आये?


इसलिए मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि कहानी के भीतर विन्यस्त मूल्यों के सहारे हमें अपनी वैचारिक निस्पत्तियों का सृजन करना चाहिए।


पंकज मित्र जिस पीढ़ी के कथाकार हैं इस पीढ़ी ने जब लिखना शुरू किया तो दुनिया भर में विमर्शों के उत्तरकालीन दौर की शुरुआत ही चुकी थी। बहुत कुछ के अन्त की घोषणाएं हो रही थीं। तो बहुत कुछ को बचा लेने की हर संभव कोशिश की जा रही थी। जो कुछ बचा लेने की कोशिश लगातार होती रही उसके हिमायती रचनाकार हैं पंकज मित्र। पंकज अपनी कहानियों में इंसानियत बचा लेना चाहते हैं। वे मानवीय गरिमा और चेतना को बचा लेना चाहते हैं। वे लोकतन्त्र को सुरक्षित देखना चाहते हैं। और सबसे बढ़ कर वे भारतीय गांव, कस्बा और समाज-राजनीति का सच कहना चाहते हैं। वह सच जो किसी किताब में लिखा हुआ नहीं मिलेगा। जो आँखों के सामने दीखता है। जिसे महसूस करने के लिए उन गांवों कस्बों से बहुत करीब से जुड़ना पड़ता है। उनके बीच जाना होता हैं उनसे एक तरह का संवादी रिश्ता कायम करना होता है।


पंकज की कहानियों को पढ़ते हुए सहज ही यह रिश्ता बनता हुआ दीखता है। 21वीं सदी में जिन कथाकारों ने गंवई कस्बाई परिवेश के यथार्थ को अपनी कहानियों का विषय बनाया उनमे पंकज मित्र एक अनिवार्य नाम हैं। पंकज से पहले की पीढ़ी के शिवमूर्ति और पंकज के तुरन्त बाद लिखना शुरू करने वाले मनोज पाण्डेय के  यहाँ भी भारतीय गांवों का सच बयान हुआ दिखाई पड़ता है।


समीक्ष्य संग्रह की कहानियों में चेतना के स्तर पर  एक तरह का नयापन दिखाई पड़ता है। इस संग्रह की कहानियों के माध्यम से पंकज ने अपने द्वारा ही बनाई हुई कथा प्रविधियों को तोड़ा है। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के नए मुहावरे गढ़े हैं। इस संग्रह की सभी कहानियां ग्रामीण और कस्बाई परिवेश को आधार बना कर लिखी गयी हैं। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा मालूम पड़ता है कि इन कहानियों की घटनाओं में लेखक की आवाजाही पर्याप्त रूप में है। यानी ये उस भूमि की कहानियां हैं जिनमे रचनाकार की चेतना को विस्तार मिला है। और साफ़ कहूँ तो पंकज जी के  रहवास का पता देती हैं ये कहानियां। उनका जीवनानुभव इन कहानियों को प्रमाणिकता प्रदान करता है। इसके पात्र गढ़े हुए नहीं बल्कि जीवन जीते हुए सहज ही दिख जाने वाले पात्र हैं। इनकी कथा-भूमि की बुनावट किसी प्रपंच को न रच कर बहुत सामान्य सी है। कहानियां ऐसी जैसा जीवन जिया जा रहा है। जो कुछ चल रहा है, लेकिन सरोकार ऐसे कि आँख खुल जाय। इसे ही चलते हुए मुहावरे में कहूँ तो सामान्य के बीच से असामान्यता का सृजन करती हुई कहानियां हैं।   संग्रह की पहली ही कहानी है 'वाशिंदा @ तीसरी दुनिया’। कहानी की कथा-भूमि बेहद सामान्य सी है। कहानी शुरू होती है कुछ छात्रों के स्कूल जीवन से। स्कूल में एक ऐसा छात्र पढ़ने आता है जो औरों की तरह का नहीं है। थोडा अलग सा है। उसका अलग होना उसका चयन नहीं बल्कि नियति है। छात्रों के बीच वह किसी कौतूहल से कम नहीं है। पढ़ने में सामान्य छात्रों से ज्यादा तेज। दुनिया में हो रहे तमाम नए बदलावों से नावाकिफ़। उसकी विशेष विशेषता यही कि दोपहर के खाने में वह हर रोज करेला लाता था। विद्यालय के छात्रों के बीच वह करेला झा के नाम से चर्चित रहा। उसका परिवार बेहद ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ। ए जी कालोनी के सभी लोग परेशान। कहाँ से आ गया यह इंसान? तब जब कि सुखी पगार पर किसी का भला नहीं हो सकता यह उसी पर अड़ा रहता है। कालोनी भर के लोगों का जीना मुहाल किये हुए है। उधर करेला झा का परिवार है कि अपनी धुन में जिए जा रहा है। बहुत हल्के-फुल्के अंदाज से शुरू हुई  कहानी अपने अन्त तक जाते-जाते अपना सरोकार स्पष्ट करती है। कहानी का अंतिम दृश्य ज़माने की हकीकत बयां करने के लिए पर्याप्त है। सच और ईमानदारी के साथ चलने वाला झा जी का परिवार बिखर सा गया है। छोटा करेला पागलपन की स्थिति में है। करेले की कीमत पूछ-पूछकर बच्चे झा जी का मजाक बना रहे हैं। यह सब कुछ कहानी के सरोकार को विस्तार देता है। कहानी यहाँ आ कर दो परस्पर विरोधी मूल्यों के बीच आधुनिक सभ्यता की दखलन्दाजी को रेखांकित करती है। मूल्यों के संकटकालीन दौर में मूल्यचेता झा का परिवार हताशा में जीने को अभिशप्त है। प्रकारांतर से यह कहानी आधुनिक परिवेश में ग्रामीण जीवन की दशाओं के पंगु होने की कहानी है। छोटा करेला और उसका परिवार ग्रामीण मूल्यों का संवाहक बनकर कहानी में आते हैं। यह अनायास नहीं है कि अन्त तक जाते जाते वे उपहास के पात्र बन कर रह जाते हैं।



संग्रह की दूसरी कहानी 'सहजन का पेड़' शीर्षक से है। यह कहानी एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है। पंकज की कहानियों में एक खास किस्म का खिलंदड़ापन मौजूद रहता है शुरू से अन्त तक। कहानी का यह खिलंदड़ापन कस्बाई जीवन की चुहलबाजी और मसखरेपन को भी अपने में समेटकर चलता है। इससे कहानी  बोझिल होने से बच जाती है और पाठक कहानी के मर्म तक पहुँच पाने में सफल होता है। इस कहानी में उसी कस्बाई खिलंदड़ेपन और मसखरेपन के सिवाय और कुछ ऐसा नहीं दिखता जिसकी वजह से कहानी की चर्चा की जाय। पाण्डे परिवार में बड़कू पाण्डे बस के ड्राइवर हैं। उनके सन्दर्भों से भारतीय परिवहन की दशा को व्यक्त किया गया हैं। बस के कंडक्टर और ड्राइवर को वेतन नहीं मिल रहा, बस की दशा बेहद चिंतनीय है गियर बक्सा अलग है गियर अलग। कुछ इसी तरह की और जीवन स्थितियां हैं जिनके बीच पांडे परिवार जी रहा है। अन्त में पांडे जी के जीजा जी इसलिए सहजन का पेड़ काट डालते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इनकी माली हालात का जिम्मेदार यही सहजन का पेड़ है। तो कुल मिला कर यह एक कमजोर कहानी है। जिससे किसी भी तरह का कोई डिस्कोर्स उभर कर सामने नहीं आता। सिवाय थोड़ी बहुत चुहलबाजी और निम्न मध्य-वर्गीय परिवार के यथार्थ को व्यक्त करने के। यह कहानी इसलिए भी गैर जरुरी लगती है क्योंकि जिस परिवार को आधार बनाकर यह कहानी लिखी गयी है उसपर इससे ज्यादा बेहतर कहानियां हिन्दी में मौजूद हैं। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो नया हो।


पंकज मित्र की कहानियों को पढ़ते हुए हमारा ध्यान सहज ही उनके पात्रों की जीवन स्थितियों की ओर चला जाता है। उनके पात्र भी विलक्षण किस्म के होते हैं। जुझारूपन और संघर्षशीलता के प्रतिमूर्ति। उनके मध्य वर्गीय काइयांपन नही दीखता। उनमें सजगता और जुझारूपन के दर्शन होते हैं। इसी तरह के गुणों से युक्त एक पात्र की कहानी है अजबलाल एमडीएम। अजबलाल एमडीएम के बारे में लेखक की स्वीकारोक्ति -'अजबलाल एमडीएम तो शुरू से ही हमारा हीरो था, हीरो रहेगा और इस बातचीत के आखिर तक उम्मीद है, आपका भी हीरो हो जाय।' इस वाक्य से शुरू होने वाली कहानी जाहिर सी बात है पाठक के भीतर पर्याप्त उत्सुकता पैदा करेगी ही। पूरी कहानी इसी उत्सुकता के परिणति की कहानी है। अजबलाल अपने नाम के ही मुताबिक अजब गज़ब का ही इंसान है। वह अपने व्यक्तित्व की विलक्षणता की वजह से विद्यालय में छात्रों और शिक्षकों के बीच पर्याप्त चर्चा का केंद्र बना रहता है। अजबलाल यूँ तो कुछ-कुछ इस तरह का छात्र है जैसे हर विद्यालय में कुछ लफंगे किस्म के लड़के होते हैं जो अपनी कक्षा के सामान्य छात्रो से उम्र और डील डौल सबमे बड़े होते हैं। पढाई लिखाई से उनका नाता थोडा दूर का ही होता है। वे अपनी असामान्य हरकतों की वजह से छात्रों के बीच हंसी के पात्र बने रहते हैं। अजबलाल में भी ये सारी विशेषतायें मौजूद हैं लेकिन इसके अलावा उसमें जो है वही उसे औरों से अलग करता है। उस अलग की ही कहानी भी होती है वरना ऐसे छात्रों की क्या कोई कहानी सुनाएगा? औरो से अलग उसमे इबी था कि वह जिद्दी किस्म का इंसान था। जो जिद पर अड़ गया तो कुछ भी हो जाय उसे वह पूरा करके ही मानेगा। उसकी जिदें भी अजब-गज़ब की। पिता द्वारा लिए गए कर्ज को पाटने की जिद पकड़ी तो जब तक पूरा नहीं किया सुकून से बैठा नहीं। एमडीएम की पोल खोलने की जिद पकड़ी तो सारे पुराने रजिस्टर उपलब्ध करवा दिए पत्रकारों को। लेकिन यहीं आकर अजबलाल जैसे लोग व्यवस्था की मार की चपेट में आ जाते हैं और अपनी नौकरी तक से हाथ धो बैठते हैं। तो कहानी कहने को तो अजबलाल की कहानी कह रही है लेकिन उसके भीतर वह हमारे लोकतन्त्र और हमारी सामाजिक व्यवस्था की कहानी कहती हुई दिखाई दे रही है। पंकज जी भी अपनी कहानियों में व्यवस्था की पोल पट्टी खोलने की जैसे कसम सी खा लिए हों। जहाँ भी मौका मिला है उन्होंने व्यवस्था की नाकामियों पर ऊँगली टिकाई है। उनका यही रूप उन्हें एक प्रतिबद्ध कथाकार के रूप में स्थापित भी करता है।


मेरे लिहाज से जिस कहानी की वजह से यह संग्रह जाना जायेगा वह कहानी है 'द इवेंट मैनेजर'। इस कहानी में जितनी गहराई है उतना ही विस्तार भी। आधुनिकता का दबाव जिस तरह व्यक्ति और समाज पर पड़ा है उसका बहुत बारीकी से विश्लेषण इस कहानी में मिलता है। तिल्लोतमा और मोटका कहानी के ऐसे पात्र हैं जिनके इर्द-गिर्द ही सभी घटनाएं घूमती हैं।ये दो पात्र हमारे समय की शहरी मध्यवर्गीय जिंदगी के प्रतिनिधि पात्र हैं। मध्यवर्गीय मनुष्य की अदम्य इच्छाओँ से भरे ये ऐसे चरित्र हैं जो पूंजी और बाजार की संस्कृति के चमत्कार से चमत्कृत ही नहीं होते उसमे अपना प्रतिनिधित्व भी खोजते हैं। अपने सम्पूर्ण रूप में यह कहानी मध्यवर्गीय मनुष्य की चिंताओं और उसकी परिणतियों की कहानी है। कहानी का अन्त जिस ट्रेजिक ढंग से होता है वह भी बहुत सारे संदर्भ छोड़ जाता है हमारे लिए। इस कहानी में पंकज जी की प्रतिबद्धता और उनकी गहन सूझबूझ का भी परिचय मिलता है। छोटे छोटे घटना प्रसंगों को बड़े आयामों में कैसे व्यक्त किया जाय यह इस कहानी को पढ़ते हुए सहज ही देखा जा सकता है।


इस संग्रह में कुल 11 कहानियां संकलित हैं। जिनमे जिनकी चर्चा मैंने यहाँ की उसके अलावा कांझड़ बाबा थान, जलेबी बाई डाट काम, अधिग्रहण, फेसबुक मेंस पार्लर, कफ़न रीमिक्स, सोहर भुइयां की बकरियां और मनेकि लबरा नाई के दास्तान जैसी महत्वपूर्ण कहानियां शामिल हैं। ये अभी कहानियां ऐसी हैं जिन पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा-बोला जा सकता है। कांझड़ बाबा थान कहानी प्रेमचन्द के उस होरी की परम्परा से जुड़ती है जो मर्जात को बचाने की बात करता है। भारतीय परम्परा की वस्तुस्थिति में ग्रामीण जन स्वाभिमान को सबसे ऊपर रखता है। कांझड़ बाबा भी उसी कोटि के इंसान हैं। कहानी का अंतिम दृश्य जहाँ बेटा जमीन बेच कर आया है और बाबा जमीन पर लेटे हुए हैं बेहद मार्मिक स्थिति पैदा करता है। यहाँ आ कर कहानी गंवई जीवन के यथार्थ की कहानी बन जाती है।


इस संग्रह की दो और कहानियों की चर्चा करना यहाँ मुझे जरुरी लगता है एक तो सोहर भुइयां की बकरियां और दूसरी मनेकि लबरा नाई के दास्तान। सोहर भुइयां की बकरियां कहानी सरकार की जन पक्षधर योजना का मजाक बनाती हुई कहानी है। सरकार की महत्वाकांक्षी बकरी पालन की योजना के अन्तर्गत सोहर को चार बकरियां मिलती हैं घर तक आते आते उनके पास एक बकरी बचती है। ऐसा कैसे होता है यही कहानी में ट्विस्ट पैदा करता है और यही हमारे समाज की हकीकत भी बयान करता है।


मनेकि लबरा नाई के दास्तान कहानी ऐसे युवा वर्ग की प्रतिनिधि कहानी है जो सोचता तो बहुत लंबा-लंबा है लेकिन उसे हकीकत का अमली जामा पहना पाने की कूबत उसके भीतर है ही नहीं। यह कहानी भारतीय युवा मन की संभावनाओं की हत्यारी सरकारों के मुँह पर तमाचे की तरह लगती है। पंकज मित्र का यह संग्रह एक ऐसे समय में आया है जब दुनिया भर में विकास पुरुषों की आंधी आई हुई है। हर कोई विकास करना चाहता है। उस विकास की सच्चाई क्या है यह पंकज बहुत बारीकी से इन कहानियों में बयां कर जाते हैं। समकालीन हिन्दी कहानी में भाषाई प्रयोग बहुत कम देखे जाते हैं। युवाओं के यहां तो न के बराबर। अपनी पीढ़ी में पंकज के पास जितनी समृद्ध भाषा है उतना ही चेतस भाषाई प्रयोग भी। बिहार,झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की कथाभूमियों पर जिस तरह की भाषाई विविधता का प्रयोग वे करते हैं वह वाकई पाठक में दिलचस्पी पैदा करता है। इन कहानियों को पढ़ना अपने समय-समाज के सामाजिक ताने-बाने के रेशों को खोलने जैसा है। यह संग्रह हिन्दी  कहानी के परिसर को और ज्यादा समृद्ध करेगा ऐसी उम्मीद है।



जगन्नाथ दुबे






सम्पर्क –

जगन्नाथ दुबे
शोध-छात्र, हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
उत्तर प्रदेश

मोबाइल - 9670107530


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