कुँवर नारायण पर पंकज चतुर्वेदी का स्मृति आलेख 'समकालीन कविता के बुद्ध का जाना'

कुँवर नारायण

बीते 15 नवम्बर 2017 को हिन्दी के उम्दा कवि कुँवर नारायण का निधन हो गया। कुँवर जी  को याद करते हुए कवि पंकज चतुर्वेदी ने एक आत्मीय संस्मरण लिखा है। कुँवर नारायण को नमन करते हुए आज पहली बार पर प्रस्तुत है पंकज चतुर्वेदी का संस्मरण 'समकालीन कविता के बुद्ध का जाना'   

समकालीन कविता के बुद्ध का जाना

पंकज चतुर्वेदी 



अब जीवन कुछ विपन्न हो गया है;  उस मननशील औदात्य और संवेदना के सहज सौंदर्य से महरूम, जो यशस्वी कवि कुँवर नारायण के व्यक्तित्व की विशेषता थी। उनका जाना उसी 'विघ्नहर विनायक छाया'  का ज़िंदगी से चले जाना है, जो उनके दुर्लभ सान्निध्य में महसूस होती थी और जिसे वह प्रेम कहते थे –

''.....एक शुभेच्छा की 
विघ्नहर विनायक छाया में 
अगर झुकते माथे जुड़ते हाथ 
तो उस जुड़ने को हम प्रेम कहते ''


बीस-बाईस बरस पहले दिल्ली में जब मैं पहली बार उनसे मिलने उनके घर गया, तो दरवाज़े पर कॉल बेल की बजाए कोई उपकरण लगा था, जिसके ज़रिए वह आगंतुक से बात कर सकते थे और शायद उसे देख भी सकते थे। मेरे लिए वह एक सर्वथा नयी चीज़ थी। जब मैंने उसे छुआ, तो फ़ोन पर सुनी हुई उनकी आवाज़ सुनायी पड़ी - 'कौन, पंकज?'  वह स्वर इतना ममतामय और उदात्त था,  इतना कोमल और मननशील कि उसका आत्मीय और उज्ज्वल एहसास मैं कभी भूल नहीं सकता।

जब मुझे ख़बर मिली कि यशस्वी कवि कुँवर नारायण नहीं रहे, तो सबसे पहले यह आघात लगा कि वह स्वर अब कभी सुनने को नहीं मिलेगा!

हिन्दी साहित्य संसार में होते हुए भी वह उससे इतने अलग और अद्वितीय थे कि मेरे लिए मेरे समय के एक दूसरे आयाम की मानिंद थे। जिस समय में भीषण कोलाहल, अराजकता, आत्म-मुग्धता, सुख-भोगवाद, वैमनस्य, छल और हिंसा है;  उसमें वह इतने शान्त, अप्रतिहत, सौम्य, उदार और निस्पृह-से थे कि हर बार मिल कर सुखद अचरज होता था कि ऐसा भी हुआ जा सकता है। कवि के रूप में जो ऊँचाई उन्होंने हासिल की, वह भी शायद इसीलिए कि इस दुनिया से कुछ अलग हट कर उन्होंने अपना मक़ाम बनाया था। बक़ौल ग़ालिब

''मंज़र इक बलंदी पर, और हम बना सकते
अर्श से इधर होता, काशके मकाँ अपना।''

समकालीन कविता में उनकी उपस्थिति मानो आधुनिक बुद्ध की उपस्थिति थी - इस मानी में कि वह लगभग 'मध्यम-मार्ग  के कवि थे। मार्क्सवाद के प्रति उनके मन में हमेशा लगाव और आदर रहा, मगर वह यह भी मानते रहे कि रचनाकार का 'विज़न'  सिर्फ़ उसके अधीन न हो। निरी विचारधारा पर आधारित आक्रामक क़िस्म की वाचालता किसी को महत्त्वपूर्ण कवि नहीं बना सकती, न विचारधारा से बेज़ार अहंकार ही कोई बरकत ला सकता है। सबसे बड़ी बात है विवेक-संवलित संवेदना या मूल्यनिष्ठा, यानी आप जो कह रहे हैं,  उसे ले कर कितने सच्चे और संजीदा हैं, कितने चिन्तनशील और अध्यवसायी हैं! मुझ से उन्होंने कहा था - ''हमेशा पढ़ते और सोचते, अपने को सुधारते रहना चाहिए।''  इस में उनका इतना मन लगता था कि एक बार उदास हो कर बोले, ''इसके अलावा जो काम हैं, हमारी ज़िंदगी का ज़्यादातर समय उनमें चला जाता है।''

एक तरह से वह कविता के 'होलटाइमर'  थे। यह सच है कि एक समृद्ध घर में वह जनमे थे, पर पुश्तैनी कारोबार में उनका कभी मन नहीं लगा। लखनऊ में उनके चाचा ने उन्हें 'स्पीड मोटर्स'  का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया था, लेकिन उनकी साहित्यिक मसरूफ़ियत के चलते व्यापार में हो रही हानि के मद्देनज़र वह उन्हें 'डैमेजिंग डायरेक्टर'  कहा करते थे।

लखनऊ में कुँवर नारायण के घर का नाम था 'विष्णु कुटी' । मगर उनकी कविता के मिज़ाज को देखते हुए हम कह सकते हैं कि वह 'विष्णु कुटी'  में रहते हुए आधुनिक बुद्ध के समान थे। बुद्ध ने जो ज्ञान आविष्कृत किया, वह था कि दुख सत्य है, उसका कारण तृष्णा है और उसका निराकरण तृष्णा से दूर रह कर 'मध्यम मार्ग'  पर चलते हुए किया जा सकता है। यानी सुख-भोग और यातना, ज़िंदगी के इन दोनों अतिरेकों से बचते हुए इनके बीचो-बीच चल कर। कविता और जीवन, दोनों में ही कुँवर नारायण संयम, सौम्यता और विचारशीलता की अपनी इस प्रतिश्रुति से कभी विचलित नहीं हुए। उनकी रचनाओं में गंभीर चिन्तन का जो सौंदर्य संभव हुआ, उसका रहस्य यही है। लोगों ने उन्हें कभी ज़ोर-ज़ोर से हँसते, आक्रामक संभाषण करते, क्रोधित होते नहीं देखा। हाँ, वह मुस्कराते ज़रूर थे, संजीदा हो जाते, कभी बहुत ज़रूरत पड़ने पर शाइस्तगी से अपना एतराज़ जताते थे। मगर किसी को दुखी, पराजित या अपमानित करने के इरादे से नहीं। शायद उन्हें लगता था कि ज्ञान की दुनिया में कोई हार-जीत नहीं होती, सबका अपना पक्ष होता है, जिसके प्रति संवेदनशील होना और भरसक न्याय करना हमारा फ़र्ज़ है। मनुष्य की गरिमा उनकी दृष्टि में सर्वोपरि थी, जिसे किसी भी तरह आहत नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने एक कविता में लिखा है कि जो हमारे लिए अपरिचित या ग़ैर होता है, हम उसे ही मामूली या 'आम आदमी  समझते हैं। अगर हम इंसान से प्रेम करें, तो किसी को, यहाँ तक कि ख़ुद को भी छोटा समझने की भूल नहीं करेंगे : 

''आम तौर पर
आम आदमी
ग़ैर होता है
इसीलिए हमारे लिए जो
ग़ैर नहीं
वह हमारे लिए
मामूली भी नहीं होता
मामूली न होने की कोशिश
दरअसल किसी के प्रति भी
ग़ैर न होने की कोशिश है।''

राम और बुद्ध के बारे में हमारे श्रेष्ठ ग्रंथों में यह लिखा मिलता है कि उन्हें किसी ने कभी अट्टहास करते नहीं देखा-सुना। बुद्ध तो वैमनस्य, हिंसा और युद्ध के भी हमेशा ख़िलाफ़ रहे। क्रोध को अक्रोध और वैर को प्रेम से ही जीता जा सकता है, ऐसा उन्होंने कहा था। गाँधी इसी मार्ग पर चले। सुमित्रानंदन पन्त ने उनके बारे में लिखा : 

''सुख-भोग खोजने आते सब
तुम आये करने सत्य खोज।''  

बिलकुल यही बात कुँवर नारायण के प्रसंग में भी सच है। इसीलिए वह असाधारण थे और जब भी उनकी कविता का अन्तरंग मूल्यांकन होगा, यह सचाई और समुज्ज्वल होती जायेगी। अक्सर किसी के शान्त, मर्यादित, भद्र आचरण को देख कर हमें यह संभ्रम होता है कि वह व्यक्ति कमज़ोर, भयभीत या तटस्थ है। कुँवर नारायण को भी ग़लत समझे जाने का अंदेशा था, तभी उन्होंने साक्षात्कारों के अपने एक संग्रह का नाम रखा था : 'तट पर हूँ, पर तटस्थ नहीं  और उनकी कविता गवाह है कि वह बराबर पीड़ित मनुष्यता की बाबत चिंतित रहे, उसके पक्षधर रहे। क्रोध वह करता है, जिसकी आत्म-शक्ति क्षीण होती है और डरा हुआ व्यक्ति ही हिंसा करता है। यह दुनिया, जहाँ हमारा अस्तित्व निहायत नश्वर है, उसमें क्या अभिमान करना और क्या नफ़रत? एक प्रेम ही है, जो सबसे सार्थक कार्रवाई है और वह भी इतना दुश्वार है कि ख़ुश होने की सूरतें बहुत कम हैं। इसलिए कुँवर नारायण की-सी सचाई, संजीदगी और फिर सहज स्मिति उस व्यक्ति में होती है, जिसने जीवन के सार को एकबारगी समझ लिया हो और कहीं गहरे उदास हो गया हो। उनकी याद गोया फ़िराक़  का एक शे'र है : 


''ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जायें।''

कुँवर नारायण में भौतिक या सांसारिक वजूद की नश्वरता का तीखा एहसास था, इसलिए इसे एक अमर अर्थ में वह जीना चाहते थे। यह अमर अर्थ और कुछ नहीं; दूसरों के लिए जीने, उनके लिए कुछ कर सकने की उनकी आकांक्षा है। जितने मनुष्य हम हैं, उससे बड़े और बेहतर मनुष्य बन सकें, इससे श्रेयस्कर अवदान और क्या हो सकता है : 

''अबकी अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा।''  

यों इस साधना की सर्वश्रेष्ठ परिणति या आत्म-विकास का चरम बिंदु वह है, जहाँ हमारे लिए कोई भी ग़ैर या पराया नहीं रह जाता। कुँवर नारायण को अपना जो कविता-संग्रह सर्वाधिक प्रिय था और जो सबसे लोकप्रिय भी हुआ, उसका नाम ही है : 'कोई दूसरा नहीं।'  दरअसल इसकी बुनियाद में कहीं 'ईशावास्योपनिषद्'  के एक श्लोक का यह मंतव्य है कि 'जो समस्त प्राणियों को अपने में और अपने को समस्त प्राणियों में देखता है, वह किसी से द्वेष नहीं करता।'  इस मानी में उनकी कविता भारतीय मनीषा के सर्वोत्तम सार को अन्यान्य रूपों में सुंदर और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करती है।

कुँवर नारायण ने 1965 में महज़ अड़तीस वर्ष की उम्र में 'कठोपनिषद्'  के नचिकेता आख्यान से प्रेरित हो कर 'आत्मजयी'  सरीखे दार्शनिक भावभूमि पर आधारित प्रबंध-काव्य की रचना की थी। इससे उस समय यशस्वी कवि रामधारी सिंह 'दिनकर'  इतने अभिभूत हुए कि कुँवर जी से मिलने लखनऊ पहुँचे। रिक्शे से उतर कर उन्होंने जिससे पूछा कि 'मैं' आत्मजयी' के रचनाकार कुँवर नारायण से मिलने आया हूँ', वह ख़ुद कुँवर जी ही थे। सामने एक नवयुवक को पा कर उन्हें सुखद अचरज हुआ, बोले : 'तुमने इस उम्र में वैसी दार्शनिक कृति लिखी है, तो आगे चल कर क्या करोगे!'  स्वाभाविक ही, आगे चल कर यह युवा कवि स्वयं हिन्दी का यशस्वी कवि साबित हुआ। वास्तव में कुँवर नारायण की कविता के निर्माण में विचार-तत्त्व की केंद्रीय भूमिका है,  लेकिन इसकी वजह है जीने के उदात्त आशय की खोज, जो शुरूआत से ही उनकी प्रेरणा रही। 29 बरस की आयु में आये अपने पहले ही संग्रह 'चक्रव्यूह'  में उन्होंने लिखा कि यह आशय भौतिक सुखों की प्रतिस्पर्धा और सिर्फ़ ऐन्द्रिय आकांक्षाओं की तृप्ति के प्रयासों में लिप्त रहने से नहीं पाया जा सकता। इस लक्ष्य तक वही पहुँच सकता है, जिसमें जीवन-सत्य के अभिज्ञान की बृहत्तर उत्कंठा हो। 'आत्मजयी'  की भूमिका में उन्होंने लिखा है : ''केवल सुखी जीना काफ़ी नहीं, सार्थक जीना ज़रूरी है।''

एक बार दिल्ली में मैं उनसे मिलने गया, तो उन्होंने ज़रा दुख के साथ यह घटना सुनायी कि घर के सामने सड़क पर एक किनारे उनकी कार खड़ी थी, किसी ने अपनी कार से उस पर ठोकर मार दी। ज़ाहिर है कि दोनों गाड़ियाँ थोड़ी क्षतिग्रस्त हुईं। लेकिन उस व्यक्ति ने इस बात पर उनसे विवाद किया कि उनकी कार ठीक जगह नहीं खड़ी थी, इसलिए उसकी गाड़ी की मरम्मत के लिए हर्जाना वह दें, जो उसके मुताबिक़ कुछ हज़ार रुपये बनता था। फिर उन्होंने बताया कि क़ानून यह है कि चलती हुई गाड़ी का चालक दोषी माना जाता है, न कि पार्किंग में लगी हुई कार का मालिक। मैंने पूछा : 'तो आपने क्या किया?'  उन्होंने बताया : 'मैंने हर्जाना दे दिया।'  मुझे अफ़सोस और हैरत हुई : 'आप ग़लत के सामने क्यों झुके, आपने क़ानूनी लड़ाई क्यों नहीं लड़ी ?'  उनका बहुत शान्त जवाब था : 'क़ानूनी लड़ाई लड़ने में आर्थिक के साथ-साथ मानसिक हानि भी होती, ऐसे कम-से-कम एक ही हानि हुई।


इससे मैंने जाना कि जीवन में बहुत सारी लड़ाइयाँ होती हैं और हमें छोटी-छोटी लड़ाइयों में अपना वक़्त, ऊर्जा, दिमाग़ और पैसा नहीं गँवाना चाहिए। सब से निरर्थक संघर्ष वह है, जो स्वार्थ के लिए किया जाय। झगड़ों में उलझ कर हम अपनी मनुष्यता का स्तर गिरा सकते हैं, जबकि प्रेम का जोखिम उठा कर मानवीय गरिमा को बहाल रखा जा सकता है। कुँवर नारायण अपनी एक मशहूर कविता में कहते हैं कि अंग्रेज़ों से नफ़रत करने चलता हूँ, तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते हैं और मुसलमानों के समय ग़ालिब। सिखों के मामले में गुरु नानक के सामने सिर झुक जाता है। ऐसा ही और प्रसंगों में भी होता है। नतीजा यह है कि

''कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किये बिना रह ही नहीं पाता।''  

तो ये थे कुँवर नारायण! दुनिया के इस दौर में, जबकि अक्सर लोग नफ़रत और हिंसा की वजहों की तलाश में रहते हैं, इस कवि को प्रेम का कोई विकल्प नज़र नहीं आता था। आप बेशक इसे उनकी कमज़ोरी मान सकते हैं, क्योंकि यह प्रेम सेंत में नहीं मिलता, इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है, कई बार जान दे कर भी! इसलिए क्या ताज्जुब कि इस कविता का समापन अब स्वर्गीय हो चुके कुँवर नारायण ने एक आत्म-व्यंग्य से किया था : 

''दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखा कर ही रहेगा।''

कुँवर नारायण कभी किसी की निंदा नहीं करते थे। निंदा वह करता है, जो कुंठित या महत्त्वाकांक्षी हो, लेकिन वह किसी से कोई अपेक्षा नहीं करते थे, न उनमें निजी लाभ के लिए किसी के प्रति समर्पण का भाव था। आजकल विज्ञापन का ज़माना है, इसलिए मुमकिन है, उनकी बात समझ में न आये;  पर किताबों के ब्लर्ब बड़े लेखकों से लिखवाना उन्हें मुनासिब नहीं लगता था। वह कहते थे कि यह अपनी रचना की सिफ़ारिश कराने जैसा है। इससे मुझे यह लगता रहा कि रचनाकार का स्वाभिमान सर्वोच्च होता है और उसे बग़ैर किसी बाहरी मदद के मंच पर आना चाहिए।


मैंने एक बार बहुत दुखी हो कर उनसे कहा कि 'तीन साल से मैं एक भी शब्द नहीं लिख पाया हूँ और मुझे लगता है कि मेरे भीतर रचना का स्रोत सूख गया है। मगर उन्होंने मुस्करा कर जवाब दिया : ''जब हम लिखते हैं, उससे अधिक मूल्यवान् वह समय होता है, जब हम नहीं लिखते ; क्योंकि उसी दौरान लिखने के समय की अदृश्य तैयारी चल रही होती है।''

अभिव्यक्ति के मुक़ाबले उसकी साधना उनके लिए ज़्यादा अहम थी, क्योंकि मौन को आप नहीं समझते, तो शब्द का बेहतरीन इस्तेमाल संभव नहीं है। ज्ञान के समुद्र की विशालता के एहसास ने उन्हें मेधावी बनाया था, तो विनयशील भी। सही संवेदनात्मक विचार की प्रतीक्षा के अपार धीरज से उनकी कविता मनस्वी होती है और इसीलिए उसमें गहन आत्मविश्वास है, प्रदर्शन और आक्रामकता की बजाए आंतरिक दृढ़ता और सौष्ठव। यह शान्त क्लैसिक आकर्षण उनकी रचना का स्थायी मूल्य है। वाह्य अलंकरण की नश्वरता का उनमें तीखा बोध था,  इसलिए अपने जीवन और रचना दोनों को ही उन्होंने उससे मंडित नहीं करना चाहा। एक जगह वह लिखते हैं : 'सादगी अभाव की नहीं, संस्कृति की परिभाषा है।'


आज से पच्चीस वर्ष पहले कुँवर नारायण ने राम को संबोधित करते हुए एक कविता लिखी थी--'अयोध्या, 1992'  बीते तीन दशकों में भारत में हिंदुत्ववादी राजनीति ने जो वर्चस्व हासिल किया है, उसकी बुनियाद में 'रामजन्म भूमि विवाद और उससे जुड़ी लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा रही है। मगर इसके चलते समाज में साम्प्रदायिक तनाव, विद्वेष और हिंसा का जो माहौल बना और आज भी जारी है; उस पूरे यथार्थ को यह कविता बहुत संयमित, उदात्त और सशक्त लहजे में सामने लाती है -

''इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य''

आज हिंदुत्ववादी राजनीति का न सिर्फ़ दबदबा है, बल्कि आलम यह है कि उसका एजेंडा 'विपक्ष-मुक्त भारत'  का है। हमें विपक्ष की उतनी चिन्ता नहीं, जितनी इस बात की है कि राम अपने जिस विनय, त्याग और करुणा के लिए जाने गये; क्या उसके लिए भी समाई उनके ज़ेहन में है, जो राम नाम के राजरथ पर आरूढ़ हो कर ही सत्ता के मक़ाम तक पहुँचे हैं? अकारण नहीं कि कुँवर नारायण को अंदेशा था कि यह वह मंज़र है, जहाँ राम की भी कुशल नहीं –

''हे राम, कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण---किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक.........
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि !''

देश के मौजूदा हालात से उन्हें तकलीफ़ थी। इसके बावजूद वह अन्तिम तौर पर निराश नहीं थे। आख़िरी बार जब मैं उनसे मिला, मैंने कहा कि 'रचना वही महान हो सकती है, जिसमें ट्रैजेडी हो, उसका सुखान्त न किया गया हो !'  उन्होंने धीमे-से जवाब दिया : 'इस पर फिर से विचार करना! कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीयम्' के अन्त में जब उर्वशी पुरुरवा से बिछुड़ती है, तो जाते हुए कहती है : 'मैं फिर लौट कर आऊँगी !'

आज यह शोक का क्षण है। हम जानते हैं कि कवि कुँवर नारायण अब नहीं लौटेंगे, नहीं लौट सकते; फिर भी जब तक कविता-प्रेमी समाज रहेगा, उनकी ये अमर काव्य-पंक्तियाँ उसे प्रेरक प्रकाश-स्तम्भ की तरह याद आती रहेंगी : 

''अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा.........।''

पंकज चतुर्वेदी



संपर्क -

पंकज चतुर्वेदी 
हिन्दी विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर (म.प्र.)---470003

मोबाइल-09425614005
ई-मेल—cidrpankaj@gmail.com


(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें गूगल इमेज के सौजन्य से) 

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